शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

साझी विरासत के बहाने सियासी विरासत की चिंता

साझी विरासत के बहाने सियासी विरासत की चिंता


सियासत में होना और दिखना अमूमन अलग ही रहता है। होता कुछ और है, दिखता कुछ और। दिख तो यह रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति में विकल्पहीनता के निर्वात ने दिनों-दिन क्षीण व दीन-हीन होते जा रहे विपक्षी दलों को इतना आकुल-व्याकुल कर दिया है कि वे आपसी मतभेदों को भुलाकर किसी भी बहाने एकजुट हो जाने के लिए बुरी तरह बेचैन हो उठे हैं। इस बेचैनी का ही नतीजा है कि बिना किसी चेहरे और बिना ठोस एजेंडे के ही तमाम भाजपा विरोधी ताकतें उस साझी विरासत को बचाने के बहाने एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं जिसमें उनका कुछ भी साझा नहीं है। ना तो सैद्धांतिक तौर पर उनकी कोई आपसी साझेदारी रही है और ना ही व्यावहारिक तौर पर ऐसा कुछ दिखाई दे रहा है जो उनके बीच साझा हो। अलबत्ता मौजूदा समस्याएं अवश्य ही सबकी साझा हैं जिसे तथाकथित विरासत की चाशनी में लपेटकर आम लोगों को ऐसी कहानी सुनाने का प्रयास किया गया है जिसका कोई आदि-अंत ही नहीं है। मौजूदा शासक वर्ग के खिलाफ एकजुट होकर आंदोलन करने के लिए भले ही देश ही साझी विरासत को बचाने की आड़ ली जा रही हो लेकिन दीवार के पीछे की हकीकत को टटोलने से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि यह आंदोलन वास्तव में अपनी सियासी विरासत को बचाने के लिए छेड़ा जा रहा है। चुंकि सियासी विरासत को बचाने की समस्या साझी है इसलिए आंदोलन भी साझेदारी में ही करना होगा। वर्ना सियासी विरासत के समाप्त होने का सिलसिला अगर यूं ही चलता रहा तो जल्दी ही सबकी झोली खाली हो जाने वाली है और वे चाहकर भी अपने उत्तराधिकारियों के लिए कोई विरासत नहीं छोड़ पाएंगे। यानि साझी विरासत को बचाने का आंदोलन बाहर से जितना विस्तृत, व्यापक व विशाल दिखाई पड़ता है, वह अंदरूनी तौर पर उतना ही संकुचित, सीमित व साजिशपूर्ण है। यहां तक कि जिस शरद यादव ने साझी विरासत को बचाने के आंदोलन को खड़ा करने का बीड़ा उठाया है उनके मन में भी देश की साझी विरासत की कितनी चिंता है इसके बारे में उनके निकट सहयोगी भी दावे से कुछ नहीं कह सकते। अलबत्ता अपनी सियासी विरासत को बचाने और उसे अगली पीढ़ी को सौंपने के लिए वे कितने बेचैन हैं इसकी फुसफुसाहट अवश्य सुनाई देने लगी है। बताया जा रहा है कि साझी विरासत को बचाने की आड़ लेकर वे जिस विपक्षी एकता का ताना-बाना बुन रहे हैं उसके पीछे की कहानी पुत्रमोह से ही जुड़ी हुई है। खास तौर से बिहार में जदयू के राजग के जुड़ जाने की आड़ लेकर वे जिस नाराजगी का इजहार कर रहे हैं उसकी असली वजह उनका पुत्रमोह ही है। वर्ना जिस जदयू को उन्होंने खुद ही स्थापित किया हो उसको तोड़ने के लिए वे उस कांग्रेस से शक्ति हर्गिज नहीं लेते जिसका विरोध करके ही उन्होंने अपनी राजनीतिक पहचान कायम की है। लेकिन बताया जाता है शरद अब अपने बेटे शांतनु बुंदेला को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं। शांतनु ने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और लंदन यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री हासिल की है और पिछले लोकसभा चुनाव में जब शरद यादव मधेपुरा से चुनाव लड़ रहे थे तब शांतनु ने ही उनके चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। हालांकि शरद ने अब तक अपनी सियासी विरासत शांतनु को सौंपने की अंदरूनी मंशा को सार्वजनिक नहीं किया है लेकिन जदयू के शीर्ष स्तर से मिली जानकारी के मुताबिक उन्होंने नीतीश कुमार को इसके लिए मनाने, रिझाने व समझाने की तमाम कोशिशें करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन नीतीश ने उन्हें कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया था जिसके बाद से ही वे नीतीश से नाराज चल रहे हैं और जदयू के साथ वैसा लगाव-जुडाव महसूस नहीं कर पा रहे हैं जो उनसे अपेक्षित है। वे हर हालत में अपने बेटे के लिए मधेपुरा लोकसभा की वही सीट सुरक्षित कराना चाहते हैं जहां से वे संसद के लिए चुने जाते रहे हैं। बेशक पैदाइशी तौर पर शरद का बिहार से कोई नाता-रिश्ता ना हो लेकिन मधेपुरा को उन्होंने अपनी चुनावी कर्मस्थली बनाया हुआ है और इस बात का पूरा पुख्ता इंतजाम भी कर चुके हैं कि वहां उन्हें अब कोई बाहरी बताने की हिम्मत नहीं कर सकता है। जाहिर है कि उस सीट को वे अपने बेटे के बजाय किसी और के लिए छोड़ना कतई गवारा नहीं कर सकते हैं जबकि जदयू में रहते हुए अपनी मनचाही कर पाना उनके लिए नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो चला है। लेकिन पुत्रमोह की पट्टी आंखों पर पड़ जाए तो सियासी डगर का सफर किधर मुड़ जाए यह कोई नहीं जानता। भले इसके लिए कुछ भी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े। तभी तो सियासी विरासत को आगे बढ़ाने के एवज में अब शरद भी वैसी ही कीमत चुकाने की राह पर आगे बढ़ते दिख रहे हैं जो गांधी, यादव और चौटाला सरीखे कई परिवार अदा कर रहे हैं। इन सभी परिवारों की समस्याएं साझी हैं और भाजपा के रूप में इनकी समस्याओं की जड़ भी साझा ही है लिहाजा साझी विरासत को बचाने के आंदोलन की आड़ लेकर इनके एक मंच में जुटने को कतई अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। लेकिन साझी विरासत के बंबू पर सियासी विरासत का तंबू तो तब खड़ा होगा जब इनके साझा एजेंडे की जमीन पर आम लोगों को यकीन हो पाएगा। जिसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं दिख रही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

गुरुवार, 10 अगस्त 2017

‘सतह पर कुछ और है गहराई में कुछ और’

‘सतह पर कुछ और है गहराई में कुछ और’

अब तक यही होता आया है कि बेमानी मसलों पर मारामारी के कारण असली मुद्दे हाशिए पर रह जाते थे। जो काम होना चाहिए वह हो नहीं पाता था और बेमतलब का बवाल कटता रहता था। लेकिन मौजूदा निजाम की कार्यप्रणाली इस तरह की है कि जिसमें बवाल अपनी जगह कटता रहता है और काम अपनी जगह होता रहता है। ऐसे में विरोधियों के लिए मुश्किल यह हो जाती है कि आखिर वे सरकार का घेराव किस मसले पर करें। असली काम तो इतनी चतुराई से अंजाम दिया जाता है कि उसका सीधे तौर पर विरोध करने की किसी की हिम्मत ही नहीं होती और जिन कथित ज्वलंत मसलों पर विरोध की आंच सुलगाने का प्रयास किया जाता है उस पर सरकार के रणनीतिकार निर्णायक तौर पर ऐसा पानी फेर देते हैं कि विरोध का मसला ही समाप्त हो जाता है। मिसाल के तौर पर विपक्ष ने सरकार को दलित विरोधी साबित करने की पुरजोर कोशिश की लेकिन एक ही झटके में दलित समाज के व्यक्ति को राष्ट्रपति पद पर बिठाकर सरकार ने मुद्दे को ही समाप्त कर दिया। विपक्ष ने गौ-रक्षकों की गुंडागर्दी का मसला उठाया तो प्रधानमंत्री ने खुद ही उसके खिलाफ इतने कड़े तेवर दिखा दिए कि विपक्ष के पास कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं। हर वह मसला जिसे आधार बनाकर सरकार पर वार करने का प्रयास किया गया उसे पूरी तरह भोथरा व ध्वस्त करने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। यानि विपक्ष की हर चालबाजी को सरकार ने अपनी चतुराई से नाकाम करने का सिलसिला लगातार जारी रखा हुआ है लेकिन सरकार जिस चालाकी के साथ अपने मूलभूत सैद्धांतिक व वैचारिक प्रतिबद्धताओं को अमली जामा पहनाने में जुटी हुई है उस तरफ या तो विपक्ष की नजर ही नहीं जा रही है या फिर उसकी काट कर पाने का कोई ठोस हथियार उपलब्ध नहीं होने के कारण उसकी अनदेखी करना ही बेहतर समझा जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो सत्तारूढ़ भाजपा पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि जब वह सत्ता में आती है तो सिद्धांतों से पल्ला झाड़ते हुए अपने वैचारिक मसलों से किनारा कर लेती है। हालांकि इस बात पर अलग से बहस हो सकती है कि भाजपा ने सिद्धांतों व विचारों का कितना पोषण और कितना दोहन किया है लेकिन एक बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि सिद्धांतों को सर्वोपरि मानने से भाजपा ने कभी परहेज नहीं बरता है। मसला चाहे राम मंदिर का हो, समान नागरिक संहिता का हो या फिर धारा 370 का। इन मसलों पर सैद्धांतिक व वैचारिक प्रतिबद्धता दर्शाने में भाजपा कभी नहीं हटी। लेकिन मसला है कि अब तक उसके पास राजनीतिक तौर पर इतनी ताकत ही नहीं थी कि वह अपने सिद्धांतों व विचारों को अमली जामा पहनाने का सपना भी देख सके। लेकिन अब मौका भी मिला है और पार्टी इस मौके को पूरी तरह भुना भी रही है। तभी तो एक तरफ उसने सैद्धांतिक तौर पर अपेक्षित सियासी सपनों को खुद ही पूरा करना आरंभ कर दिया है जबकि उन मामलों को अदालत के माध्यम से निपटाने का निर्णायक प्रयास किया जा रहा है जो संवैधानिक व कानूनी प्रक्रियाओं से जुड़े हुए हैं। सच पूछा जाए तो भाजपा से सैद्धांतिक अपेक्षाएं यही रही हैं कि वह राम मंदिर बनाने, धारा 370 हटाने और समान नागरिक संहिता लागू कराने की राह तैयार कर दे और ‘सब सुधरेंगे तीन सुधारे, नेता कर कानून हमारे’ के नारे को हकीकत में बदल दे। जहां तक नारे को हकीकत में बदलने की बात है तो इसमें मोदी सरकार ने काफी हद तक सफलता हासिल कर ली है। नेताओं को सुधारने के लिए बेनामी कानूनों में संशोधन, कालेधन के खिलाफ लड़ाई, चुनाव सुधार की प्रक्रिया और लालबत्ती की समाप्ति सरीखे कदम उठाए गए है जबकि जीएसटी लागू करके ‘एक देश एक कर’ के विचार को मूर्त रूप देते हुए करों में सुधार का भी इंतजाम कर दिया गया है। इसके अलावा अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे बेमानी, अप्रासंगिक व उलझाऊ कानूनों को थोक के भाव में निरस्त करने और मौजूदा कानूनों को चुस्त-दुरूस्त करके व्यवस्था को सरल-सुगम तरीके से संचालित करने की कोशिशें युद्धस्तर पर जारी हैं। इसके अलावा पार्टी की पहचान से जुड़े सैद्धांतिक व वैचारिक मसलों की बात करें तो जहां एक ओर राम मंदिर के मामले की सर्वोच्च न्यायालय में त्वरित सुनवाई की शुरूआत होने जा रही है वहीं दूसरी ओर समान नागरिक संहिता के एक बड़े तकाजे को पूरा करने के लिए सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में ऐसा इंतजाम कर दिया है कि यह कुप्रथा अब समाप्त होने की कगार पर आ गई है। इस मामले की सुनवाई पूरी हो चुकी है और तीन तलाक की व्यवस्था के निरस्त होते ही पर्सनल लाॅ की व्यवस्था महत्वहीन हो जाएगी और स्वाभाविक तौर पर समान नागरिक संहिता को लागू करने की राह निकल आएगी। रहा सवाल धारा 370 का तो उसकी जान अटकी है संविधान के अनुच्छेद 35-ए में जिसे वर्ष 1954 में संसद से पारित कराए बिना सिर्फ राष्ट्रपति की सहमति के सहारे संविधान का हिस्सा बना दिया गया। जाहिर तौर पर इसकी संवैधानिक मान्यता को सर्वोच्च न्यायालय में दी गई चुनौती अपना रंग अवश्य ही दिखाएगी। यानि तयशुदा लक्ष्य की दिशा में सरकार इतनी दूर निकल गई है कि उसकी राह के आड़े आ पाना विपक्ष के लिए संभव ही नहीं दिख रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur