शनिवार, 31 अक्तूबर 2015



‘दूसरे की फतह के लिये तीसरों का मोर्चा’

नवकांत ठाकुर
अपने फायदे के लिये कोई दूसरों से लड़े तो इसमें अनोखा क्या है। मजा तो तब है जब दूसरे के फायदे के लिये तीसरों के बीच जंग छिड़े। दूसरे के फायदे के लिये जब कोई तीसरा पक्ष मोर्चा खोलता है तो वह चर्चा का विषय बनता ही है। दूसरे के लिये किसी तीसरे द्वारा मोर्चा खोले जाने की कहानी कितनी दिलचस्प होती है इसका सहज अंदाजा रामायण की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है जिसमें दूसरे की पत्नी के लिये तीसरे से लोहा लेनेवाले हनुमान, जटायु व सम्पाती सरीखे किरदारों की कहानी भी है और सुग्रीव को राजपाट दिलाने के लिये नाहक ही बालि का वध कर देनेवाले राम की भी गाथा है। यहां तक कि दूसरे के साथ हो रहे अन्याय के लिये अपने कुल खानदान का विनाश करा देने के पीछे विभीषण का इसमें कोई निजी स्वार्थ रहा हो ऐसी आशंका आज तक किसी ने भी नहीं जतायी है। ऐसा ही मामला महाभारत का भी है जिसमें दूसरे को उसका हक दिलाने के लिये तीसरे पक्ष के समूल नाश में अगर श्रीकृष्ण सहायक नहीं बनते तो शायद यह लड़ाई होती ही नहीं। कहने का तात्पर्य यह कि जब भी किसी दूसरे के हक में कोई तीसरा पक्ष मोर्चा खोलने की पहल करता है तो वह मामला लोगों की दिलचस्पी के केन्द्र में आ ही जाता है। तभी तो इन दिनों प्रियंका को कांग्रेस की बागडोर दिलाने के लिये एमएल फोतेदार द्वारा लिखी किताब ‘द चिनार लिव्स’ के सार्वजनिक होने का भी बेसब्री से इंतजार हो रहा है और राहुल गाधी को कांग्रेस की कमान दिलाने के लिये दिग्विजय सिंह द्वारा खोला गया मोर्चा भी दिलचस्पी का केन्द्र बना हुआ है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि फोतेदार के दावे को सही मानते हुए कांग्रेस ने स्वर्गीय इंदिरा गांधी की इच्छा को पूरा करने के क्रम में प्रियंका को संगठन की बागडोर सौंप भी दी तो इससे बाकियों का भले जो भी नफा-नुकसान हो लेकिन फोतेदार को तो इससे कतई कोई फायदा नहीं होना है। वैसे भी फोतेदार की अब कोई फायदा लेने की उम्र भी नहीं बची है। काफी हद तक ऐसा ही मामला दिग्गी राजा का भी है जो राहुल को पार्टी की कमान दिलाने के लिये सांगठनिक व सार्वजनिक तौर लंबे समय से लगातार मोर्चा खोले हुए हैं। हालांकि उनका मोर्चा अब तक संगठन में राहुल के नाम पर सर्वसम्मति बनाने व राहुल विरोधियों को सामने आने के लिये उकसाने के अलावा ‘मैया’ पर ‘भैया’ को बड़ी जिम्मेवारी देने का दबाव बनाने में ही जुटा हुआ था। लेकिन जब से फोतेदार ने कांग्रेस के लिये राहुल को अस्वीकार्य करार देने के क्रम में राहुल के पक्ष में मोर्चा खोलनेवालों को सोनिया गांधी के चापलूस की संज्ञा से नवाजते हुए यह खुलासा किया है कि इंदिराजी प्रियंका में ही अपनी छवि देखती थीं और उन्हें ही परिवार की सियासी विरासत सौंपने के पक्ष में थीं, तब से दिग्विजय की बेचैनी बुरी तरह बढ़ गयी है। अब फोतेदार के जवाब में उन्होंने बेहद ही आक्रामक मोर्चा खोलते हुए यहां तक कह दिया है कि अध्यक्ष वही बनेगा जिसे सोनिया चाहेंगी। यानि ताजा तस्वीर के तहत अब राहुल और प्रियंका के पक्ष-प्रतिपक्ष में दिग्विजय और फोतेदार आमने-सामने आ गये हैं। वैसे भी पार्टी में ना तो राहुल के समर्थकों की कोई कमी है और ना ही प्रियंका में ही इंदिरा की छवि देखनेवालों की। लिहाजा ‘भाई-बहन’ के हित में मोर्चा खोलनेवाले तीसरों का टकराव आगे क्या स्वरूप लेगा यह कहना तो अभी मुश्किल है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती है कि दूसरे के हित में जिन तीसरों ने मोर्चा खोलने की पहल की है उनको निजी तौर पर शायद ही कोई फायदा मिल सके। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि सियासत में अपने नुकसान की भरपाई करने के लिये दूसरे के कांधे पर बंदूक रखकर तीसरे को निशाना बनाने की परंपरा हमेशा से चली आ रही है। तभी तो भाजपा में भी जब यशवंत व शत्रुघ्न सरीखे लोगों को अपने नुकसान की भड़ास निकालनी होती है तो वे अपनी लड़ाई खुद लड़ने के बजाय लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के हित में पार्टी के मौजूदा निजाम पर चढ़ाई करने से भी परहेज नहीं बरतते हैं। यानि मामला यही दिखता है कि वे दूसरे के फायदे के लिये तीसरे से लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें उनका अपना कोई लोभ-लाभ नहीं छिपा है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि ‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।’ लिहाजा गहराई में उतर कर देखा जाये तो दूसरे के पक्ष में लड़नेवाले तीसरे भी अक्सर निष्पक्ष नहीं होते हैं। इस लड़ाई में उनका भी लोभ-लाभ छिपा ही रहता है। भले वह दिखे या ना दिखे। तभी तो प्रियंका के पक्ष में सोनिया के खिलाफ फोतेदार की वह टीस निकल रही है जिसके तहत मौजूदा दौर में उन्हें हाशिये पर रहने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है और दिग्विजय की वह चाहत भी सर्वविदित ही है जिसके तहत वे राहुल को आगे लाने की आड़ में अपनी छवि ‘किंग मेकर’ के तौर पर पुख्ता करना चाहते हैं। खैर, दूसरे के पक्ष में तीसरों की लड़ाई की कहानियों के उस पक्ष की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है जिसमें लड़ाई का मुख्य किरदार अक्सर रामायण की सीता की मानिंद आखिरकार खुद को ठगा हुआ ही महसूस करता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

‘काश जनता को दे सुनाई, सफाई और दुहाई’

नवकांत ठाकुर
अपने चरम की ओर अग्रसर हो रहे बिहार के चुनाव की ताजा तस्वीर का सबसे अनोखा पहलू है सफाई और दुहाई का। मान्यता यही है कि रक्षात्मक अवस्था को अंगीकार कर लेनेवाले खेमे से ही सफाई और दुहाई का स्वर सबसे अधिक मुखर होकर निकलता है। लेकिन बिहार में सफाई और दुहाई भी सबसे अधिक उसी भगवा खेमे से निकल रही है जो अति आक्रामक तेवर और कलेवर के साथ पूरे चुनाव अभियान में पिला हुआ है। एक ओर तो यह खेमा ऐसी अति आक्रामकता का परिचय दे रहा है कि बिहार में उसे जीत नसीब नहीं हुई तो मानो अनर्थ हो जाएगा। तभी तो इस खेमे के चारों घटक दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों ने अपने पूरे राष्ट्रीय संगठन, लाव-लश्कर व दल-बल के साथ पिछले एक महीने से पटना में ही अपना डेरा जमाया हुआ है और पूरा चुनाव निपटने तक वे सभी वहीं डटे रहनेवाले हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री से लेकर तमाम राजग शासित सूबों के मुख्यमंत्रियों को ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार के भी तमाम शीर्ष संचालकों व मंत्रियों से लेकर सांसदों को भी बिहार में पूरी तरह झोंक दिया गया है। रही सही कसर पूरी करने के लिये सिनेमाई सितारों को भी जमीन पर उतारने में कोताही नहीं बरती जा रही है। आलम यह है कि दिल्ली के सियासी गलियारों में सत्ता पक्ष इस कदर नदारद दिख रहा है मानों राष्ट्रीय राजनीति की ही नहीं बल्कि देश की राजनीतिक राजधानी की भी विस्तारित शाखा पटना में स्थापित हो गयी हो। भगवा खेमे की ओर से ऐसी आक्रामकता का मुजाहिरा किया जा रहा है कि तमाम सियासी गतिविधियां बिहार से शुरू होकर बिहार पर समाप्त हो जा रही हैं। बिहार ही ओढ़ना, बिहार ही बिछाना। बिहार ही सुनना, बिहार ही सुनाना। बिहार से बाहर कुछ दिख ही नहीं रहा। ऐसे में कायदे से तो विरोधी पक्ष की बोलती बंद हो जानी चाहिये थी। उसकी बातें नक्कारखाने में बजनेवाली तूती की मानिंद गुम होकर रह जानी चाहिये थी। उसकी बातों पर तो किसी का कान या ध्यान टिकना ही नहीं चाहिये था। लेकिन हो रहा है बिल्कुल उल्टा। सवाल उठा रहे हैं विरोधी और जवाब देने में गड़बड़ हो रही है भगवा खेमे को। पूरी ऊर्जा सफाई और दुहाई देने में ही खप जा रही है। हालांकि चुनाव अभियान की शुरूआत में तो राजग विरोधी महागठबंधन ही सफाई पेश करता दिख रहा था। लेकिन यह स्थिति तब तक थी जब तक आरोप-प्रत्यारोपों की जुबानी गेंदबाजी विकास और सुशासन के पिच पर हो रही थी। शुरूआती कुछ ओवरों के बाद जैसे ही पिच का मिजाज बदला और विकास व सुशासन की नमी सूखने के बाद मर्यादा की परत टूटते ही निजी आक्षेपों के अलावा जातिगत व सांप्रदायिक सियासत की धूल उड़नी आरंभ हुई वैसे ही सफाई व दुहाई की रक्षात्मक बैटिंग करके अपना विकेट बचाये रखना भगवा खेमे की मजबूरी बनती चली गयी। आखिरकार नौबत यहां तक आ पहुंची है कि महंगाई का मसला उठने पर भी सफाई आती है भगवा खेमे से कि नितीश सरकार की नीतियों के कारण ही दाल महंगी हुई है। दुहाई यह कि केन्द्र करे भी तो क्या करे। लेकिन लगे हाथों जब नहले पर दहले के तौर पर पूछ लिया जाता है कि बाकी सूबों में भी दाल महंगी क्यों है तो  समूचा भगवा खेमा सारा काम छोड़कर बस सफाई और दुहाई देने में जुट जाता है। मसला कुछ भी क्यों ना हो, सफाई और दुहाई भगवा खेमे से ही सुनाई देती है। आरक्षण पर संघ प्रमुख के बयान से उपजे विवाद पर सफाई, प्रधानमंत्री के डीएनएवाले बयान पर सफाई, केन्द्रीय मंत्री द्वारा दलित की तुलना कुत्ते से किये जाने के विवाद पर सफाई, सूबे में मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं करने के मसले पर सफाई, पटना में प्रधानमंत्री व पार्टी अध्यक्ष की होर्डिंग हटाये जाने पर सफाई, प्रधानमंत्री की रैलियों में कटौती किये जाने पर सफाई, गौमांस के मसले पर अनवरत जारी बतकहियों पर सफाई, गैरमराठी भाषियों के प्रति महाराष्ट्र सरकार की नीतियों पर सफाई, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करने के इल्जामों पर सफाई, भाजपाशासित राज्यों में मौजूद कमियों व खामियों पर सफाई, कालेधन के सवाल पर सफाई, हरित व गुलाबी क्रांति के बवाल पर सफाई। मौजूदा दौर की समस्याओं पर सफाई, अच्छे दिन के वायदों पर सफाई। सत्ता के संचालन की रीति पर सफाई, कथित विफल विदेशनीति पर सफाई। हर बात पर दुहाई, बात बात पर सफाई। अब तो हालत यह हो चली है कि भगवा खेमे से निकलनेवाली अधिकांश बातें दुहाई से आरंभ होकर सफाई पर ही समाप्त हो रही हैं। लेकिन मसला यह है कि अभी तो सूबे की महज एक तिहाई सीटों पर ही मतदान पूरा हुआ है, दो-तिहाई सीटों की अग्निपरीक्षा बाकी ही है। तीन चरणों का मतदान बाकी है। यानि अभी तो असली काम बाकी है। सीमांचल-मिथिलांचल में मोदी लहर की निष्क्रियता की चुनौती से निपटना है। दलित वोटों के अपने ठेकेदारों की अहम की लड़ाई को सुलटाना है। जनता को विरोधियों के खिलाफ भड़काना है। बिहार में परिवर्तन के लिये जनोन्माद पनपाना है। अपनी जरूरत जनता को जतानी है, विरोधियों की कमियां व खामियां लोगों को बतानी है। जाहिर है कि चुनाव अभियान के असली चरम का दौर अभी बाकी ही है। ऐसे में सफाई और दुहाई में उलझने के बजाय विरोधियों पर पूरी ऊर्जा के साथ चढ़ाई करने में बरती जा रही कोताही का नतीजा बेहद नकारात्मक भी साबित हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

‘पिता की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने की चुनौती’

नवकांत ठाकुर
पश्चिम चंपारण के रामनगर में जब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और लालू यादव के लाडले तेजस्वी यादव ने मंच साझा किया तो एकबारगी बिहार विधानसभा चुनाव की बहुआयामी तस्वीर का वह पहलू नमूंदार हो गया जिसके तहत विरासत की सियासत को आगे ले जाते हुए पिता की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने की चुनौती इन जैसे युवाओं के कांधे पर आ पड़ी है। हालांकि राजनीति में वंशवाद को बढ़ावा देना कितना उचित है या इसे कौन किस हद तक आगे बढ़ा रहा है इस मसले पर ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तर्ज पर जितना कहा या सुना जाये वह कम ही है। लिहाजा फिलहाल इस विषय को छेड़ने से परहेज बरतते हुए तटस्थ भाव से बिना कोई पूर्वाग्रह पाले अगर बिहार की मौजूदा चुनावी तस्वीर का अवलोकन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह चुनाव सिर्फ सत्ता पर अधिपत्य स्थापित करने के लिये नहीं हो रहा है। इसके और भी कई आयाम हैं। कई और भी पहलू हैं। जिसमें एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस चुनाव के माध्यम से सूबे की सियासत में पीढि़यों का निर्णायक परिवर्तन भी होना है। खास तौर से बिहार की सियासत में अब तक शीर्ष पर काबिज रहे चेहरों ने अपनी राजनीतिक विरासत अपने उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित करने के लिये इस चुनाव को चुनने की जो पहल की है उसके नतीजे में इस बार की चुनावी जंग ने बेहद दिलचस्प रूख अख्तियार कर लिया है। सूबे की सत्ता पर तकरीबन डेढ़ दशक तक एकछत्र राज करनेवाले राजद सुप्रीमो लालू यादव से लेकर सूबे के सबसे ताकतवर दलित नेता व लोजपा के मुखिया रामविलास पासवान ही नहीं बल्कि सतह से शिखर का सफर तय करते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पर अपना कब्जा जमा चुके हम के संस्थापक जीतनराम मांझी ने भी इस बार के चुनाव में ही अपनी सियासी विरासत युवा पीढ़ी के हवाले करने की दिली ख्वाहिश का खुलकर मुजाहिरा करने में कोई संकोच नहीं किया है। इसके अलावा राष्ट्रीय राजनीति में खुद को स्थापित करते हुए परिवार की राजनीतिक विरासत को संभालने की अपनी दक्षता व सक्षमता को प्रमाणित करने लिये राहुल गांधी ने भी कहीं ना कहीं बिहार के मौजूदा चुनाव को ही चुनना बेहतर समझा है। हालांकि हकीकत यही है कि किसी भी चुनाव की तरह इस बार भी तकरीबन सभी राजनीतिक दलों में स्थापित नेताओं के भाई-भतीजों व बाल-बच्चों की बहार छायी हुई है लेकिन गौर से देखा जाये तो इस बार दिलचस्पी का केन्द्र सोनिया, लालू, पासवान व मांझी के बच्चे ही हैं जिनके सामने खुद को साबित व स्थापित करते हुए अपने वंश की विरासत में चार चांद लगाने की चुनौती भी है। इसमें पासवान के सांसद पुत्र चिराग ने लोकसभा चुनाव में ही पिता की छत्रछाया में रहते हुए अपनी पार्टी को सही दिशा देकर खुद को साबित व लोजपा को दोबारा स्थापित करने में कामयाबी हासिल कर ली है। वह चिराग का ही दबाव था जिसे स्वीकार करते हुए पासवान ने अपनी मृतप्राय हो चुकी पार्टी को राजग के साथ जोड़ा और नतीजन मोदी लहर पर सवार होकर सूबे की छह लोकसभा सीटों पर अप्रत्याशित जीत दर्ज कराने में कामयाबी हासिल की। लेकिन वह दौर हवा के रूख को भांपने का था जिसमें चिराग पूरी तरह सफल रहे। लेकिन इस बार चुनौती है आर पार की लड़ाई में सूबे की महज सोलह फीसदी सीटों पर लड़ते हुए सिरमौर बनने की। जाहिर है कि इस चुनौती को सफलतापूर्वक पार करने में अगर चिराग कामयाब हो गये तो ना सिर्फ लोजपा की बागडोर पूरी तरह उनके हाथों में आ जाएगी बल्कि पिता की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाते हुए खुद को साबित व स्थापित करने में भी वे निर्णायक सफलता हासिल कर लेंगे। इसी प्रकार राहुल गांधी ने इस बार भी पार्टी के अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी उठाने से परहेज बरतते हुए जिस तरह से बिहार के चुनावी रण की कमान अपने हाथों में ली है उससे एक बात तो साफ है कि जब तक अपने दम पर वे कोई बड़ा जमीनी मोर्चा फतह नहीं कर लेते तब तक वे पार्टी को नेतृत्व देने के लिये आगे नहीं आना चाह रहे हैं। ये काफी हद तक ऐसा ही है जैसे लालू ने अपने तेजस्वी को जमीनी मोर्चा फतह करने के लिये अग्रिम मोर्चे पर तैनात कर दिया है। अगर फतह हुई तो ना सिर्फ निर्विरोध तौर पर राजद उन्हें सहर्ष अपना मुखिया स्वीकार कर लेगी बल्कि सूबे में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की सरकार बनने की सूरत में उपमुख्यमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी भी तय ही है। इसके अलावा लोगों की नजरें मांझी के बेटे संतोष सुमन पर भी टिकी हुई हैं जिन्हें बड़ी खामोशी के साथ इस बार सियासत में आगे बढ़ने का मौका मुहैया कराया गया है। जाहिर तौर पर मांझी ने अपना पूरा जीवन लगाकर अपनी जो राजनीतिक विरासत खड़ी की है उसे उम्र के चैथेपन में वे अपने उत्तराधिकारी के हवाले करना चाह ही रहे हैं। लेकिन मसला है कि पहले उनके बेटे को जनता की स्वीकार्यता मिले और उसी आधार पर पार्टी में उसके कद को विस्तार दिया जाये। यानि समग्रता में देखें तो इस बार दांव पर सिर्फ सूबे की सत्ता ही नहीं है, विरासत की सियासत को संभालने की दक्षता, सक्षमता व स्वीकार्यता साबित करने की चुनौती भी है जिसमें सफलता या असफलता का नतीजा निश्चित तौर पर बेहद दूरगामी व निर्णायक साबित होनेवाला है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

‘भीड़ के सामने दांव पर इंसानियत’

नवकांत ठाकुर
‘भीड़ तमाशा करे या भीड़ तमाशायी हो, दांव पर हर हाल में इंसानियत ही होती है।’ वाकई भीड़ का मनोविज्ञान अलग ही होता है। कायदे से तो इंसानों की भीड़ के जुटान में इंसानियत की भावना का उफान दिखना चाहिये। लेकिन आम तौर पर ऐसा होता नहीं है। इंसान जब भीड़ का हिस्सा बन जाये तो अक्सर उसके भीतर का इंसान गायब हो जाता है। उस पर हावी हो जाता है हैवान जिसके वशीभूत होकर वह जो ना कर गुजरे वह कम। अगर ऐसा नहीं होता तो दादरी के बिसराड़ा गांव में महज एक अफवाह को सुनकर इकट्ठा हुई भीड़ अधेड़ पिता व उसके युवा पुत्र को इस धराधाम से रूखसत करने पर हर्गिज उतारू नहीं होती। गनीमत रही कि जिस्म का हर पुर्जा तुड़वा लेने के बाद भी पुत्र के जिस्मानी पिंजड़े ने प्राण-पखेरू को आजाद नहीं होने दिया। लेकिन पिता का जीवन भीड़ की बलि चढ़ गया। अब ऐसी भीड़ को इंसानों का जुटान कहें भी तो कैसे? शर्मनाक यह है कि जो लोग भीड़ का हिस्सा नहीं थे वे भी अब इस पूरे मामले को जाति, मजहब व खान-पान सरीखे मसलों से जोड़कर अपनी अंदरूनी पाशविकता का मुजाहिरा करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। सतही तौर पर तो किसी को कोई सही लग सकता है और दूसरे को कोई और। लेकिन गहराई में झांकें तो भीड़ का तांडव समाप्त होने के बाद के पूरे घटनाक्रम में कोई ऐसा नहीं है जिसे दूध का धुला या पाक-साफ कहा जा सके। पीडि़त परिवार के लिये कुछ लोग हमदर्द बनकर खड़े हो गये हैं तो कुछ की हमदर्दी भीड़ के साथ जुड़ गयी है। दूसरी ओर जिस पुलिस प्रशासन पर भरोसा करके हमारा समाज चैन की नींद सोना चाहता है उसकी सोच-समझ का तो कहना ही क्या। उसकी पहली कोशिश तो पीडि़त पक्ष के भीतर व्याप्त हुई असुरक्षा की भावना को दूर करने की होनी चाहिये थी लेकिन उसने सबसे पहले यह मालूम करना निहायत आवश्यक समझा कि जिस अफवाह को सच मानकर भीड़ ने हैवानियत का तांडव किया उसके पीछे की सच्चाई क्या है। लिहाजा पुलिस ने पहला काम किया पीडि़त के खाने की जांच कराने का। वह तो गनीमत रही कि जिस भोजन को ग्रहण करने के इल्जाम में पीडि़त पक्ष को भीड़ का कोपभाजन बनना पड़ा वह बात जांच में सिरे से गलत पायी गयी। वर्ना अगर अफवाह सच साबित हो जाती तो पता नहीं पीडि़त पक्ष को ही अपराधी साबित करनेवालों का सैलाब भी आ सकता था। खैर, मसला यह है कि क्या किसी को केवल इस बात के लिये हलाक किया जा सकता है कि वह ऐसी चीज क्यों खा रहा है जो उसके मजहब में तो हलाल है लेकिन भीड़ का मजहब उसे हराम मान रहा है? क्या समाज में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का राज कायम होगा और गरीब की गाय कोई भी हांक ले जाये? फिर क्या जरूरत है कानून की या संविधान की। सरकार की या प्रशासन की। ऐसे में तो जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी दावेदारी। जहां जिस समुदाय की तादाद अधिक होगी वह किसी अन्य मजहब को माननेवालों पर भी अपनी सोच थोपने के लिये स्वतंत्र होगा। देश के किसी हिस्से में दुधारू मवेशी को काट कर खाना गुनाह माना जाएगा तो किसी अन्य हिस्से में मैला खानेवाले पशु को मारकर खानेवालों की खैर नहीं होगी। कहीं शाकाहारियों की भीड़ तांडव मचाएगी तो कहीं मांसाहारियों के दबाव में कंठी-माला का विसर्जन करना मजबूरी बन जाएगी। आखिर यह समाज किस दिशा में जा रहा है इसकी कभी तो फिक्र करनी ही होगी। क्या हम किसी को पीने-खाने, पहनने-ओढ़ने और अपने मजहब के मुताबिक आचरण करने की आजादी भी नहीं दे सकते। सवाल बहुत हैं लेकिन जवाब नदारद है। जवाब तो तब मिले जब कोई अपनी जवाबदेही लेना गवारा करे। यहां तो हर कोई एक-दूसरे को आरोपों व इल्जामों में लपेट कर खुद को पाक-साफ साबित करने में जुटा हुआ है। पुलिस की मानें तो अचानक उठी अफवाह के कारण शुरू हुई हैवानियत के लिये तो समूचा समाज जिम्मेवार है। प्रदेश सरकार की मानें तो पूरा किया धरा केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा का है जो समाज का माहौल बिगाड़कर अपनी राजनीति चमकाने में जुटी हुई है। भाजपा की मानें तो कानून व्यवस्था प्रदेश की सरकार के हाथों में है लिहाजा इस पूरे मामले की सीधी जिम्मेवारी उसकी ही है। इसके अलावा कांग्रेस व एएपी से लेकर बसपा व एमआईएम सरीखी तमाम तीसरी पार्टियां भाजपा व सपा को बराबर का दोषी मान रही हैं। उस पर तुर्रा ये कि पीडि़त पक्ष की मानें तो हमलावर जिस मजहब के थे उसी कौम के लोगों ने बचाने का भी काम किया, फिर किसे दोषी कहें और किसे बेगुनाह। यानि, हर किसी का एक बयान है और हर किसी की एक प्रतिक्रिया है। सबका अपना-अपना नजरिया है जिसमें केवल वही पाक-साफ व बेगुनाह है। लेकिन हकीकत यही है कि इस हैवानियत के हम्माम में सभी एक समान नंगे हैं और इंसानियत की हत्या में बराबर के भागीदार हैं। हर किसी को अपनी चिंता है। कोई अपना वोटवैंक बचाने में जुटा है तो कोई नयी जमीन तलाशने में। कोई अपनी नौकरी बचाने में जुटा है तो कोई अपना चेहरा। इस पूरी आपाधापी में जब कोई अपनी गलती मानना तो दूर बल्कि महसूस करना भी गवारा नहीं कर रहा हो तो ऐसे में खुद को कैसे तसल्ली दी जाये कि अब आगे से ऐसा नहीं होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

‘मित्रता की मिठास में अविश्वास का जहर’

नवकांत ठाकुर
यूं तो हर रिश्ते की बुनियाद विश्वास पर ही टिकी होती है लेकिन मित्रता के मामले में विश्वास की भूमिका कुछ अधिक ही होती है। खून के रिश्तों में कितनी ही दुश्मनी क्यों ना हो जाये लेकिन रक्तसंबंधों में बदलाव नहीं हो सकता। जिसके साथ जो संबंध है वह हमेशा रहेगा ही। भले रिश्ते में मिठास रहे या खटास। लेकिन मित्रता का रिश्ता सिर्फ विश्वास पर ही टिका होता है। विश्वास जितना मजबूत होगा मित्रता भी उतनी ही अटूट होगी। विश्वास की बुनियाद हिलते ही यह रिश्ता सिरे से समाप्त हो जाता है। इन दिनों विश्वास का यही संकट दिख रहा है भारत और नेपाल की मित्रता में। कहने को तो दोनों अलग देश हैं लेकिन बेटी-रोटी का है। भारत से लगती नेपाल की 1700 किलोमीटर लंबी सरहद के दोनों ओर के बाशिंदों को आज तक शायद ही यह महसूस हुआ हो कि इस पार या उस पार में कोई अंतर है। वैसे भी नेपाल को दुनिया के साथ को जोड़ने की कड़ी भी भारत ही है। नेपाल को नमक-तेल से लेकर तमाम जरूरी सामानों की उपलब्धता भारत से ही होती है। भारत में सरकार किसी भी दल या गठबंधन की क्यों ना हो लेकिन नेपाल व नेपालियों को हमेशा हर मामले में अपने अटूट हिस्से सरीखा ही सम्मान व स्थान दिया गया। लेकिन लगता है कि हमारी इस मित्रता पर किसी की बुरी नजर पड़ गयी है। तभी तो नेपाल के संविधान निर्माताओं ने वहां कुछ ऐसी व्यवस्थाएं लागू करने की पहल कर दी है जिसके नतीजे में हर उस नेपाली के हक व अख्तियार में कटौती हो गयी है जिसने भारत के साथ रोटी-बेटी का राब्ता कायम किया हुआ है। हालांकि भारत ने आज तक ना तो कभी नेपाल की संप्रभुता या अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश की है और ना ही भारत की नीतियां ऐसा करने की इजाजत देती हैं। बल्कि भारत तो हमेशा ही नेपाल की एकता, अखंडता व संप्रभुता के रक्षक के तौर पर खड़ा रहा है। लेकिन मसला है कि जब भारत से बहू ब्याह कर लाने पर उसे अगर सात साल तक नागरिकता देने से भी नेपाल का नया संविधान इनकार कर रहा हो तो उसे बेहतरीन व्यवस्था बताकर उसका स्वागत कैसे किया जा सकता है। तभी तो भारत ने नेपाल की इस नयी पहल का सिर्फ संज्ञान लेते हुए इस पर कोई भी प्रतिक्रिया देने से परहेज बरत लिया है। लेकिन भारत की यह चुप्पी भी नेपाल को सहन नहीं हो रही। वह इसे नकारात्मक समझ रहा है। अब उसे कौन समझाये कि उसके अंदरूनी मामलों को अच्छा या बुरा कहनेवाले हम होते ही कौन हैं। अगर उसने इस पर सलाह मांगी होती तो शायद परिस्थितियां ऐसी नहीं होती कि पूरे तराई इलाके में संविधान को जलाया जा रहा होता या तमाम मैदानी बाशिंदे आंदोलन पर उतारू होते। लेकिन नेपाल के नये संविधान के निर्माण में भारत की भूमिका सिर्फ इतनी ही है कि उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था व एक लिखित संविधान लागू करने के लिये इस तरफ से हमेशा प्रोत्साहित किया जाता रहा है। खैर, नेपाल के नेताओं को पता नहीं मित्रता की मिठास का जायका बदलने के लिये चीन का कौन सा स्वाद रास आ गया है कि वे इन दिनों अपने दोनों बड़े पड़ोसियों के साथ बराबर का संतुलन साधने का राग आलापने लगे हैं। जाहिर तौर पर यह चीन की ही खुराफात है कि उसने नेपाल में यह भ्रम फैला दिया है कि नये संविधान का विरोध करने के लिये तराई के मधेसियों को भारत ही भड़का रहा है और मधेसी आंदोलन के कारण ठप्प पड़ी ट्रकों की आवाजाही वास्तव में भारत द्वारा की गयी आर्थिक नाकेबंदी का नतीजा है। भारत के प्रति फैलाये गये भ्रम का ही नतीजा है कि नेपाल में 42 भारतीय टीवी चैनलों का प्रसारण प्रतिबंधित कर दिया गया है और सिनेमाघरों में हिन्दी फिल्म दिखाने पर भी रोक लगायी जा रही है। इसके पीछे वजह बतायी जा रही है भारत की उस कथित नीति को जिससे नेपाल की एकता, अखंडता व संप्रभुता को खतरा उत्पन्न हो रहा है। अब इस बेसिर-पैर की गलतफहमी पर क्या कहा जा सकता है। लेकिन मसला है कि इस मामले में चुप भी नहीं बैठा जा सकता क्योंकि भारत व नेपाल के बीच गलतफहमी का बीज बोकर चीन अपनी जड़ें जमाने में जुट गया है। जाहिर है कि यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। ना सिर्फ भारत के लिये बल्कि इससे कहीं अधिक नेपाल के लिये जिसकी सत्ता का संचालन कर रहे नेताओं को चीन की चालबाजियां  या तो समझ नहीं आ रहीं या वे जानबूझकर नासमझी का ढ़ोंग कर रहे हैं। तभी तो वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा को खुले तौर पर प्रधानमंत्री से यह अपील करनी पड़ी है कि वे नेपाल के मसले की अनदेखी ना करें और दोनों देशों के रिश्तों की प्रगाढ़ता में कमी आने से पहले ही नेपाल में व्याप्त भ्रम, गफलत व गलतफहमी को दूर करने की ठोस पहल करें। हालांकि नेपाल की नियति आज उसे जिस मोड़ पर ले आयी है उसके लिये पूरी तरह उसकी अपनी नीतियां ही जिम्मेवार हैं लेकिन कोई दुश्मन अगर हमारे सगे भाई को भड़का रहा हो और उसे गलत राह पर ले जा रहा हो तो अपने मासूम भाई को उसके हाल पर छोड़कर सिर्फ ‘तेल देखो और तेल की धार देखो’ की नीति पर अमल किये जाने को कैसे उचित कहा जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’