सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

‘गधे ही गधे हैं, जहां पर भी देखो’

‘गधे ही गधे हैं, जहां पर भी देखो’


सही कहा गया है कि जहां ना पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि। वर्ना दिवंगत हास्य कवि ओमप्रकाश आदित्य अपनी युवावस्था में ही इस सत्य का साक्षात्कार कतई नहीं कर सकते थे कि ‘इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं, जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं, गधे हंस रहे, आदमी रो रहा है, हिंदोस्तां में ये क्या हो रहा है, जवानी का आलम गधों के लिये है, ये दिल्ली ये पालम गधों के लिये है, धोड़ों को मिलती नहीं घास देखो, गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो, जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है, जो माइक पे चीखे वो असली गधा है, यहां आदमी की कहां कब बनी है, ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है।’ आदित्य साहब की इस कविता को कल तक लोग व्यंग्य-विनोद के तौर पर मजे लेकर सुना करते थे। लेकिन अब तस्वीर बदल गयी है। गधों को लेकर जिस कदर गंभीरता का माहौल बन रहा है उसी अनुपात में इस कविता पर भी गंभीर चिंतन की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। गधों के प्रति गंभीरता का आलम यह है कि प्रधानमंत्री स्वयं ही सीना ठोंककर यह बता रहे हैं कि देश सेवा की प्रेरणा उन्हें गधों से ही मिली है। गधों को देख-देखकर ही वे कठिन परिश्रम करने में सक्षम हो पाए हैं। गधे की तरह देश की जिम्मेवारियों का बोझ उठाने का मौका मिलने को वे अपना सौभाग्य मानते हैं और पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक की जिम्मेवारी उठाने के लिये लगातार प्रयत्नशील दिखाई पड़ते हैं। अब भले ही दिग्विजय सिंह लाख यह कहें कि मोदी बिल्कुल गधे की तरह काम कर रहे हैं, अथवा ‘रेनकोट’ को गाली बताने वाली कांग्रेस भी औपचारिक तौर पर यह समझाए कि गधा शब्द किसी गाली का पर्याय नहीं है। लेकिन सदी के महानायक से गुजरात के गधों का प्रचार नहीं करने की अपील करके अखिलेश ने जिस गधा-गाथा के गायन-वाचन की शुरूआत कर दी है उसकी मारकता का दायरा लगातार बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। इस गधा-गाथा की गूंज गुजरात में भी सुनाई देने लगी है जहां पाटीदार आंदोलन के दम पर भाजपा की जड़ खोदने में जुटे हार्दिक पटेल ने प्रदेश के पाटीदारों का नेतृत्व करनेवाले 44 विधायकों को खुले तौर पर गधा करार दे दिया है। यानि गधा-गाथा के सियासी पारायण का श्रीगणेश अभी से गुजरात में भी हो गया है जहां इस साल के अंत में विधानसभा का चुनाव होना है। निश्चित तौर पर कांग्रेस द्वारा ऐसे दल के साथ गठबंधन किया जाना गुजरात के चुनाव में बड़ा मुद्दा बननेवाला है जिसने गुजरातियों को गधा बताया है। खैर, गुजरात के चुनाव में गधा-गाथा का कितना रंग जमेगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन उत्तर प्रदेश में तो इसका ऐसा चकाचक रंग दिख रहा है कि इसने जनहित के बाकी तमाम ज्वलंत मुद्दों को काफी पीछे छोड़ दिया है। आलम यह है कि तमाम सियासी पार्टियों की पूर्वनिर्धारित चुनावी रणनीति पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है और यह चुनाव सिर्फ इस बात पर केन्द्रित हो गया है कि रोजाना थोक के भाव में उछाले जा रहे बेमानी मुद्दों को अपने साथ जोड़कर किस प्रकार जनता का सहयोग व सहानुभूति अर्जित किया जाये। इसमें किसी भी पार्टी की ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। सब पिले पड़े हैं एक दूसरे के पीछे। लेकिन बारीकी से निगाह डाली जाये तो विरोधियों को इस बेमानी बतकुच्चन की राह पर लाने का सेहरा तो मोदी-शाह की जोड़ी को ही जाता है। वर्ना सपा-कांग्रेस ने तो विकास के एजेंडे को ही आगे रखकर चुनाव अभियान की शुरूआत की थी। बसपा ने भी मायावती के पिछले कार्यकाल की याद दिलाते हुए सुदृढ़ कानून व्यवस्था देने का वादा किया था और यह भरोसा दिलाने का प्रयास किया था कि अगली बार सरकार बनाने का मौका मिलने पर वे मूर्ति-स्मारक बनवाने की पिछली गलतियां हर्गिज नहीं दोहराएंगी। लेकिन अगर इस एजेंडे पर ही चुनाव केन्द्रित रहता तो भाजपा के लिये अपनी जगह बनाना बेहद मुश्किल था। पूरी लड़ाई बुआ-भतीजा के बीच ही सिमट कर रह जाती। भाजपा को तो कोई टके के भाव भी नहीं पूछता। लिहाजा अपनी जगह बनाने के लिये आवश्यक था कि विरोधियों को उन मसलों से डिगाया जाये जिसका संतुलन साधकर वे सत्ता में वापसी की कोशिशें कर रहे हैं। यही वजह रही कि शाह और मोदी की जोड़ी ने विरोधियों के मुद्दों को केन्द्र बनाकर ही उन्हें घेरा। जिस विकास को मुद्दा बनाया गया था उसकी असमानता को उजागर करके उसका खोखलापन अनावरित किया गया। विकास की धारा का सिर्फ एक वर्ग विशेष के दरवाजे पर जाकर अटक जाने को तूल देते ही वह हो गया जिसकी भाजपा को जरूरत थी। विकास की बातें पीछे छूट गयीं और केन्द्र में आ गया श्मशान और कब्रिस्तान का मुद्दा, सरकारी नियुक्ति में वर्ग विशेष को मिल रही तरजीह का मामला और सर्वसमाज की बेकदरी का मसला। जाहिर है कि जिस विकास की तस्वीर दिखाकर सत्ता में वापसी की संभावनाएं टटोली जा रही हों उसका गुब्बारा इस कदर फूटेगा तो कोई भी अपना आपा खो सकता है। तभी तो बौखलाहट में अखिलेश ने ऐसी बात कह दी कि पूरी चुनावी चर्चा के केन्द्र में गधे आ गए हैं। लेकिन गधा-गाथा के पारायण में अपनी समस्याओं का निवारण तलाशने वालों को यह नहीं भूलना चाहिये कि गधा सिर्फ बेड़ा पार नहीं करता बल्कि दुलत्ती मारकर पार-घाट भी पहुंचा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

‘खता किसी और की, सजा किसी और को’

‘खता किसी और की, सजा किसी और को’

पुरानी कहावत है कि ‘खेत खाय गधा और मार खाए जुलाहा।’ यह बात सियासत में जितनी सटीकता से लागू होती है उतनी अन्य क्षेत्रों में लागू नहीं होती। यानि सियासत में सिर्फ अपनी ही गलतियों का खामियाजा नहीं भुगतना पड़ता। कई बार ऐसे मामले भी सिरदर्दी का सबब बन जाते हैं  जिस खता को अंजाम देने के बारे में कभी सोचा भी ना गया हो। यही हुआ था बिहार विधानसभा के चुनाव में। कहां तो भाजपा ने ही आनुपातिक तौर पर सबसे अधिक दलित, पिछड़े व आदिवासी समाज के नेताओं को प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और मंत्री बनने का मौका दिया। देश में आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने के लिये कमंडल से पहले मंडल की लड़ाई में पुरजोर हिस्सेदारी की और ‘एकात्म मानव दर्शन’ व ‘अंत्योदय’ सरीखे सिद्धांतों को सियासत का आधार बनाया। लेकिन आरक्षण की स्थापित अवधारणा पर पुनर्विचार की जरूरत बताकर आरएसएस प्रमुख ने ऐसी गलती कर दी जिसका भाजपा को इतना जबर्दस्त खामियाजा भुगतना पड़ा कि उसे याद करके भाजपाई रणनीतिकार आज भी सिहर उठते हैं। बिहार चुनाव के ऐन पहले संघ प्रमुख की जुबान से निकली उस बात को विरोधी महागठबंधन ने इस कदर जमकर भुनाया कि भाजपा का पूरी तरह भट्ठा ही बैठ गया। जबकि हकीकत तो यह है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कराने की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभानेवाली भाजपा की केन्द्र या प्रदेशों की किसी सरकार ने आरक्षण व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करने के बारे में कभी सोचना भी गवारा नहीं किया है। लेकिन बात चुंकि पार्टी की मातृ-संस्था कहे जानेवाले संघ के मुखिया ने कही थी तो इसे इस रूप में प्रचारित किया गया मानो भाजपा की सरकार बनते ही आरक्षण व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाएगा। जाहिर है कि संघ की उस गलती का भाजपा को खामियाजा तो भुगतना ही था। लेकिन मजाल है कि एक बार की गलती से संघियों ने कोई सीख ली हो। तभी तो मौजूदा पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले भी संघ परिवार के शीर्ष विचारकों में शुमार होनेवाले मनमोहन वैद्य ने उन्हीं बातों को दोहरा दिया जिसे बयां करके संघ प्रमुख बिहार चुनाव में पहले ही भाजपा का बंटाधार कर चुके हैं। हालांकि वैद्य के बयान की मारक क्षमता को देखते हुए ना सिर्फ संघ की ओर से औपचारिक तौर पर इसका खंडन किया गया बल्कि भाजपा ने भी उनके बयान से तत्काल ही दूरी बना ली और जल्दी ही वैद्य को भी सफाई देने के लिये सामने आना पड़ा। लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने वैद्य के इन विचारों को संघ-भाजपा की अंदरूनी सोच साबित करने में रात-दिन एक कर दिया। अब इसका असर भी दिखने लगा है क्योंकि यूपी में जिस बसपा को सभी ने समाप्त मानना शुरू कर दिया था उसने अगर सत्ता के संघर्ष को त्रिकोणीय स्वरूप दे दिया है तो निश्चित तौर पर इसमें वैद्य के विचारों की भूमिका को कतई सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है। हालांकि भाजपा को दूसरों की गलती का खामियाजा सिर्फ यूपी में ही नहीं भुगतना पड़ रहा है बल्कि इससे कहीं अधिक मार उसे पंजाब और उत्तराखंड में झेलनी पड़ रही है जहां उसने ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ा हुआ है जिनकी करनी का फल उसे ही भुगतना पड़ रहा है। पंजाब की बात करें तो वहां की सत्ता में भाजपा की भूमिका तो सिर्फ छोटे सहयोगी की ही थी। लेकिन अकालियों की करतूतों के कारण ऐसी भद पिटी है कि इस दफा राजग को तीसरे स्थान पर रहना पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। जाहिर है कि इसकी सबसे अधिक बदनामी केन्द्र की मोदी सरकार के अलावा भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को ही झेलनी पड़ेगी। कोई यह तो कहेगा नहीं कि अकालियों की सरकार गिर गयी। हर कोई इसे इसी रूप में प्रचारित करेगा कि भाजपा की पकड़ से पंजाब भी निकल गया। इसी प्रकार उत्तराखंड में आज अगर भाजपा को कांग्रेस की कथित ‘वन मैन आर्मी’ से कड़ी टक्कर झेलनी पड़ी है तो इसकी इकलौती वजह है कांग्रेस के उन सूरमाओं को संगठन में शामिल करना जिन्होंने लंबे अर्से तक कांग्रेस में रहकर ऐसे-ऐसे कारनामों को अंजाम दिया कि सूबे की जनता उन्हें कतई माफ करने के मूड में नहीं दिख रही है। खास तौर से जिस केदारनाथ आपदा के मामले को लेकर भाजपा ने प्रदेश की रावत सरकार का घेराव करने की रणनीति अपनाई थी उसके असली कर्ता-धर्ता तो वे माने जाते हैं जो उस समय प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और अब पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो गये हैं। हालांकि भाजपा ने उन्हें टिकट देने से तो परहेज बरत लिया लेकिन उनके बेटे को टिकट से वंचित करना संभव नहीं हो सका। इसके अलावा कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने जाने के बाद साढ़े चार साल तक सत्ता की मलाई का लुत्फ उठानेवाले एक दर्जन से भी अधिक विधायक इस दफा भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में दिखाई पड़ रहे हैं। इसीका नतीजा है कि वहां भाजपा से उन सवालों का भी जवाब मांगा जा रहा है जिस गुनाह से उसका दूर का भी वास्ता नहीं है। खैर, इस तरह के मामलों को समग्रता में देखने से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि एक बार के लिये दुश्मन की गलतियों का फायदा उठाने में भूल करके भी जीत उम्मीद की जा सकती है लेकिन हिमायतियों की गलतियों का खमियाजा भुगतने से बच पाना तो नामुमकिन ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

‘पराई चुपड़ी पर टिकी ललचाई निगाहें’

‘पराई चुपड़ी पर टिकी ललचाई निगाहें’

बेशक बाबा फरीद कह गये हों कि ‘रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चुपड़ी ना ललचावे जी।’ लेकिन कोई माने तब ना। आज कल चिराग लेकर ढ़ूढ़ने से भी ऐसा कोई नहीं मिलता जो अपनी चुपड़ी से संतुष्ट हो। ऐसे में रूखी-सूखी से संतुष्ट हो जानेवाले को कौन तलाशे, क्यों तलाशे? आलम यह है कि सबकी निगाहें दूसरों की थाली पर ही टिकी हैं। जिनकी थाली में पहले से ही चुपड़ी पड़ी है वह भी दूसरों को रूखी-सूखी हजम नहीं होने देना चाहते और जिनके हिस्से में रूखी-सूखी आई है वे दूसरों की चुपड़ी में मिट्टी डालने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी थाली से अधिक चिंता लोगों को पराई थाली की सता रही है। अपना खाना खराब हो तो हो, मगर दूसरे का जायका पहले बिगाड़ने में सभी जुटे हुए हैं। इसी का नतीजा है कि सबकी अपनी थाली लगातार बिगड़ती जा रही है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि अपनी थाली बचाने के बजाय दूसरे की थाली का समीकरण समझने और उसके मुताबिक अपने मुनाफे का गुणा-भाग करने में ही सभी मशगूल दिख रहे हैं। इस उठापटक और खुराफाती खुरपेंच ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को बेहद दिलचस्प मोड़ पर ला दिया है। इन पांच चुनावी राज्यों में से दो में कांग्रेस, दो में राजग और एक में सपा की सरकार है। लिहाजा असली मुकाबला भले ही इन दलों के बीच ही दिख रहा हो लेकिन इन तीनों में ही अपनी थाली बचाने से ज्यादा दूसरे का जायका बिगाड़ने की ऐसी होड़ मची है कि अब तीसरी थाली पर ललचाई नजरें गड़ाने के अलावा इसके पास दूसरा कोई विकल्प ही बचा है। मिसाल के तौर पर यूपी की ही बात करें तो अपने परंपरागत वोटबैंक की चिंता में कोई दुबला नहीं हो रहा। सबको चिंता सता रही है उन वोटों की जो उन्हें किसी सूरत में हासिल नहीं हो सकती। तीसरी थाली के उन पकवानों की महक ने सबको मदहोश किया हुआ है और सबको उम्मीद है कि अगर तीसरी थाली थोड़ी सी वजनदार निकल आये तो उनका खाना खराब होने से बच जायेगा। भाजपा का पूरा समीकरण अल्पसंख्यक वोटों के बंटवारे और बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण पर टिका है जबकि सायकिल की हैंडिल पकड़ने का हाथ को मौका दिए जाने के पीछे अल्पसंख्यकों को एकजुट करने के अलावा सवर्ण वोटबैंक में सेंध लगाने की सोच ही छिपी हुई है। लेकिन एक तरफ भाजपा की रणनीति में ऐसा पेंच फंसा है कि ना तो किसी एक पक्ष में अल्पसंख्यकों की एकजुटता उसे अपने लिये फायदेमंद दिख रही है और ना ही ऐसा हुए बगैर बहुसंख्यकों का प्रतिक्रियात्मक ध्रुवीकरण होना संभव हो पा रहा है। लिहाजा उसकी थाली का जायका अब बसपा के समीकरण पर आधारित हो गया है। अगर बसपा ने अल्पसंख्यकों में ठीक-ठाक सेंध लगा ली तो ठीक वर्ना अगले पांच साल फिर हारे को हरिनाम का ही सहारा रहेगा। दूसरी ओर सपा भी सिर्फ अपने परंपरागत वोटबैंक के सहारे चुनावी नैया पार कर पाती तो हाथ का सहारा ही क्यों लेती? उसे बेहतर पता है कि रात में राहें रौशन करने के लिये सिर्फ चांद के भरोसे नहीं रहा जा सकता। लेकिन अपनी रौशनी उसे तभी राहें दिखा सकती हैं जब भाजपा के टाॅर्च की रौशनी को आंखों पर पड़ने से रोका जाये। वर्ना आंखें चुंधिया गईं तो दिन में भी दिखना मुश्किल हो सकता है। लिहाजा उसका जायका तभी सुधर सकता है जब भाजपा की थाली में बसपा का हाथी, सूंढ़ से धूल डालने में कामयाब हो सके। यानि सबका समीकरण दूसरों का खेल बिगड़ने पर ही आधारित दिख रहा है। लेकिन अपने दम पर दूसरे का खेल बिगाड़कर अपना खेल बनाने की हैसियत में कोई नहीं है। सबको तीसरे पक्ष से मजबूत हस्तक्षेप की दरकार है। यही हाल पंजाब और गोवा का भी है जहां तीसरी ताकत की निर्णायक भूमिका पर सभी ललचाई निगाहें गड़ाए हुए हैं। इन दोनों ही सूबों में आप उसी भूमिका में है जो यूपी में बसपा की है। यानि आप का प्रदर्शन ठीक-ठाक रहे तो ही अकाली-भाजपा की आस को आधार मिल पाएगा। हालांकि दोनों सूबों में मतदान समाप्त हो चुका है लेकिन अभी सीना ठोंककर कोई यह दावा नहीं कर सकता है कि वह अपने दम पर बहुमत की बाधा को पार करने वाला है अथवा उसने विरोधी पक्ष को किस स्तर पर पटखनी देने में कामयाबी पाई है। इसकी वजह भी साफ है कि अपनी थाली को सजाने-संवारने के बजाय सभी दूसरों का जायका बिगाड़ने में ही जुटे थे ऐसे में तीसरे की थाली से अपनी बिगड़ी की भरपाई करने के अलावा किसी के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। हालांकि मणिपुर और उत्तराखंड में सतही तौर पर स्थिति थोड़ी अलग अवश्य दिख रही है लेकिन गहराई से परखने पर वहां भी तीसरी थाली के प्रदर्शन से ही विजेता का चयन हो पाने की तस्वीर दिख रही है। बेशक यह तीसरी थाली अलग से नहीं सजी है बल्कि दो थालियों में हुई बंदरबांट के नतीजे में ही तीसरे का सृजन हुआ है। लेकिन अब यह तीसरी थाली मुख्य दोनों थालियों की जीत-हार तय करने की स्थिति में आ गई है। खैर, किसी और की चुपड़ी पर बाकियों की ललचाई निगाहें कितनी ही मजबूती से क्यों ना गड़ी हों लेकिन इस संभावना को कतई खारिज नहीं किया जा सकता है एक-दूसरे की थाली में मिट्टी डालने वालों को आखिर में तीसरी थाली ही गच्चा दे जाए। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 
 @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur