‘गधे ही गधे हैं, जहां पर भी देखो’
सही कहा गया है कि जहां ना पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि। वर्ना दिवंगत हास्य कवि ओमप्रकाश आदित्य अपनी युवावस्था में ही इस सत्य का साक्षात्कार कतई नहीं कर सकते थे कि ‘इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं, जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं, गधे हंस रहे, आदमी रो रहा है, हिंदोस्तां में ये क्या हो रहा है, जवानी का आलम गधों के लिये है, ये दिल्ली ये पालम गधों के लिये है, धोड़ों को मिलती नहीं घास देखो, गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो, जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है, जो माइक पे चीखे वो असली गधा है, यहां आदमी की कहां कब बनी है, ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है।’ आदित्य साहब की इस कविता को कल तक लोग व्यंग्य-विनोद के तौर पर मजे लेकर सुना करते थे। लेकिन अब तस्वीर बदल गयी है। गधों को लेकर जिस कदर गंभीरता का माहौल बन रहा है उसी अनुपात में इस कविता पर भी गंभीर चिंतन की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। गधों के प्रति गंभीरता का आलम यह है कि प्रधानमंत्री स्वयं ही सीना ठोंककर यह बता रहे हैं कि देश सेवा की प्रेरणा उन्हें गधों से ही मिली है। गधों को देख-देखकर ही वे कठिन परिश्रम करने में सक्षम हो पाए हैं। गधे की तरह देश की जिम्मेवारियों का बोझ उठाने का मौका मिलने को वे अपना सौभाग्य मानते हैं और पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक की जिम्मेवारी उठाने के लिये लगातार प्रयत्नशील दिखाई पड़ते हैं। अब भले ही दिग्विजय सिंह लाख यह कहें कि मोदी बिल्कुल गधे की तरह काम कर रहे हैं, अथवा ‘रेनकोट’ को गाली बताने वाली कांग्रेस भी औपचारिक तौर पर यह समझाए कि गधा शब्द किसी गाली का पर्याय नहीं है। लेकिन सदी के महानायक से गुजरात के गधों का प्रचार नहीं करने की अपील करके अखिलेश ने जिस गधा-गाथा के गायन-वाचन की शुरूआत कर दी है उसकी मारकता का दायरा लगातार बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। इस गधा-गाथा की गूंज गुजरात में भी सुनाई देने लगी है जहां पाटीदार आंदोलन के दम पर भाजपा की जड़ खोदने में जुटे हार्दिक पटेल ने प्रदेश के पाटीदारों का नेतृत्व करनेवाले 44 विधायकों को खुले तौर पर गधा करार दे दिया है। यानि गधा-गाथा के सियासी पारायण का श्रीगणेश अभी से गुजरात में भी हो गया है जहां इस साल के अंत में विधानसभा का चुनाव होना है। निश्चित तौर पर कांग्रेस द्वारा ऐसे दल के साथ गठबंधन किया जाना गुजरात के चुनाव में बड़ा मुद्दा बननेवाला है जिसने गुजरातियों को गधा बताया है। खैर, गुजरात के चुनाव में गधा-गाथा का कितना रंग जमेगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन उत्तर प्रदेश में तो इसका ऐसा चकाचक रंग दिख रहा है कि इसने जनहित के बाकी तमाम ज्वलंत मुद्दों को काफी पीछे छोड़ दिया है। आलम यह है कि तमाम सियासी पार्टियों की पूर्वनिर्धारित चुनावी रणनीति पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है और यह चुनाव सिर्फ इस बात पर केन्द्रित हो गया है कि रोजाना थोक के भाव में उछाले जा रहे बेमानी मुद्दों को अपने साथ जोड़कर किस प्रकार जनता का सहयोग व सहानुभूति अर्जित किया जाये। इसमें किसी भी पार्टी की ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। सब पिले पड़े हैं एक दूसरे के पीछे। लेकिन बारीकी से निगाह डाली जाये तो विरोधियों को इस बेमानी बतकुच्चन की राह पर लाने का सेहरा तो मोदी-शाह की जोड़ी को ही जाता है। वर्ना सपा-कांग्रेस ने तो विकास के एजेंडे को ही आगे रखकर चुनाव अभियान की शुरूआत की थी। बसपा ने भी मायावती के पिछले कार्यकाल की याद दिलाते हुए सुदृढ़ कानून व्यवस्था देने का वादा किया था और यह भरोसा दिलाने का प्रयास किया था कि अगली बार सरकार बनाने का मौका मिलने पर वे मूर्ति-स्मारक बनवाने की पिछली गलतियां हर्गिज नहीं दोहराएंगी। लेकिन अगर इस एजेंडे पर ही चुनाव केन्द्रित रहता तो भाजपा के लिये अपनी जगह बनाना बेहद मुश्किल था। पूरी लड़ाई बुआ-भतीजा के बीच ही सिमट कर रह जाती। भाजपा को तो कोई टके के भाव भी नहीं पूछता। लिहाजा अपनी जगह बनाने के लिये आवश्यक था कि विरोधियों को उन मसलों से डिगाया जाये जिसका संतुलन साधकर वे सत्ता में वापसी की कोशिशें कर रहे हैं। यही वजह रही कि शाह और मोदी की जोड़ी ने विरोधियों के मुद्दों को केन्द्र बनाकर ही उन्हें घेरा। जिस विकास को मुद्दा बनाया गया था उसकी असमानता को उजागर करके उसका खोखलापन अनावरित किया गया। विकास की धारा का सिर्फ एक वर्ग विशेष के दरवाजे पर जाकर अटक जाने को तूल देते ही वह हो गया जिसकी भाजपा को जरूरत थी। विकास की बातें पीछे छूट गयीं और केन्द्र में आ गया श्मशान और कब्रिस्तान का मुद्दा, सरकारी नियुक्ति में वर्ग विशेष को मिल रही तरजीह का मामला और सर्वसमाज की बेकदरी का मसला। जाहिर है कि जिस विकास की तस्वीर दिखाकर सत्ता में वापसी की संभावनाएं टटोली जा रही हों उसका गुब्बारा इस कदर फूटेगा तो कोई भी अपना आपा खो सकता है। तभी तो बौखलाहट में अखिलेश ने ऐसी बात कह दी कि पूरी चुनावी चर्चा के केन्द्र में गधे आ गए हैं। लेकिन गधा-गाथा के पारायण में अपनी समस्याओं का निवारण तलाशने वालों को यह नहीं भूलना चाहिये कि गधा सिर्फ बेड़ा पार नहीं करता बल्कि दुलत्ती मारकर पार-घाट भी पहुंचा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur
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