‘भावी परिणामों पर टिकीं असीमित संभावनाएं’
चुनावी राजनीति के तहत होनेवाले सियासी खेल में संभावनाओं का अकाल कभी नहीं होता है। हर चुनाव के बाद नई तस्वीर उभरती है और नया सियासी समीकरण बनता है। स्वाभाविक है कि नए संतुलन की तलाश में सियासी समीकरण का चक्र इस बार भी घूमेगा। तभी तो आगामी ग्यारह मार्च को पांच राज्यों के चुनावों का नतीजा सामने आने के बाद ना सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति में बड़े बदलावों की उम्मीद जताई जा रही है बल्कि केन्द्र की मोदी सरकार के केबिनेट में भी व्यापक फेरबदल की सुगबुगाहट साफ महसूस की जा रही है। हालांकि इन बदलावों के लिये अपेक्षित नतीजे की भी दरकार है। तभी तो अभी कोई अपने पत्ते नहीं खोलना चाहता। खोले भी क्यों? बंद मुट्ठी लाख की, खुल गयी तो खाक की। फिलहाल हर तरफ से यथास्थिति बरकरार रखने का ही प्रयास किया जा रहा है। लेकिन ताड़नेवाले भी कयामत की नजर रखते हैं। लाख छिपाने के बावजूद छिप नहीं पा रहा कि एक तरफ दिल्ली की राजनीति में एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाने के बावजूद पंजाब का गुणा-भाग दुरूस्त करने के लिये कांग्रेस और एएपी के बीच अघोषित युद्ध विराम हो गया है जबकि दूसरी ओर महाराष्ट्र में शिवसेना भी बीएमसी के मेयर पद पर दावेदारी के मामले को लेकर जारी विचार-विमर्श प्रक्रिया को यथासंभव लंबा खींचने में जुटी है। इसके अलावा मोदी केबिनेट में संभावित बदलावों को लेकर भी राजधानी के सियासी गलियारे में तमाम अटकलों का बाजार गर्म है और कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर चुनाव परिणाम अपेक्षा के अनुकूल रहे तो शीर्ष केबिनेट मंत्रियों की जिम्मेवारियों में बड़े बदलाव की तस्वीर शीघ्र ही दिखाई पड़ सकती है। वास्तव में इन तमाम कयासों व अटकलों को चुनाव परिणाम के बाद की स्थितियों से जोड़ कर देखा जा रहा है और माना जा रहा है कि इन परिणामों के मुताबिक सत्ता का समीकरण नयी करवट ले सकता है। मसलन पंजाब के मामले में भले ही भाजपा-अकाली गठबंधन के नेताओं ने भी यह मान लिया है कि वहां बादल सरकार की वापसी नहीं होने जा रही है लेकिन इस बात का दावा करने की स्थिति में भी कोई नहीं है कि सूबे में किसी एक पार्टी को ही पूर्ण बहुमत हासिल हो जाएगा। ऐसे में अगर त्रिशंकु विधानसभा की तस्वीर बनी तो धर्मनिरपेक्षता की अलख जगाते हुए कांग्रेस और एएपी के बीच भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिये समझौता हो सकता है और इसका प्रभाव निश्चित तौर पर दिल्ली महानगरपालिका के आगामी चुनावों पर भी पड़ेगा। हालांकि कांग्रेस और एएपी को सत्ता में साझेदारी करने का मौका गोवा में भी मिल सकता है बशर्ते वहां भाजपा को बहुमत ना मिल सके। जाहिर है कि इन दोनों दलों को अगर किसी भी सूबे में भाजपा के खिलाफ एक मंच पर आने का मौका मिला तो इस गठजोड़ का विस्तार गुजरात में भी होना तय ही है जहां इस साल के आखिरी दिनों में विधानसभा का चुनाव होना है। इसके अलावा अगर पांच राज्यों के इस चुनाव में कांग्रेस को किन्हीं दो-तीन सूबों में उल्लेखनीय कामयाबी मिल गयी तो इसे मोदी सरकार की खिसकती जमीन का ही परिचायक माना जाएगा और ऐसे में भाजपा से बुरी तरह खार खाई हुई शिवसेना को भी कांग्रेस से हाथ मिलाने का आत्मविश्वास हासिल हो सकता है। वैसे भी राहुल गांधी के नेतृत्व को नकार कर राकांपा अध्यक्ष शरद पवार ने साफ जता दिया है कि कांग्रेस के साथ उनका पुराना याराना दोबारा कायम नहीं पाएगा। इसी प्रकार शिवसेना ने भी भाजपा से अलग होने की पटकथा लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लिहाजा भाजपा विरोध के वैचारिक धरातल पर इनके बीच आपसी समझौता होने की संभावना को कतई खारिज नहीं किया जा सकता है। लेकिन शर्त यह है कि कांग्रेस को यह साबित करना होगा कि वह राष्ट्रीय राजनीति में दोबारा वापसी करने की राह पर आगे बढ़ रही है। जाहिर है कि महाराष्ट्र का संभावित समीकरण यूपी के नतीजों का ही इंतजार कर रहा है जहां अगर कांग्रेस के साथ सपा का बेड़ा पार हो गया तो शिवसेना भी कांग्रेस के साथ जुड़ने में हर्गिज देरी नहीं करेगी। इसके अलावा इन चुनाव परिणामों के बाद मोदी सरकार के केबिनेट का स्वरूप भी बदल सकता है। खास तौर से गोवा वापसी के लिये अपनी हार्दिक तड़प दिखा चुके मनोहर पर्रिकर को दोबारा मुख्यमंत्री बनाकर वापस भेजे जाने और रक्षा मंत्रालय की जिम्मेवारी एक बार फिर अरूण जेटली के कांधों पर आने की अटकलें काफी जोर-शोर से लगायी जा रही हैं। ऐसे में वित्त विभाग का कामकाज पियूष गोयल को सौंपे जाने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा रहा है। साथ ही दूर की कौड़ी के तौर पर गाहे-बगाहे यह बात भी उछल रही है कि यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का मौका मिलने पर राजनाथ सिंह को प्रदेश की राजनीति में वापस भेजने का मौका गंवाना भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को शायद ही मंजूर हो। यानि इतना तो साफ है कि इन चुनावों का जितना प्रभाव प्रदेशिक राजनीति पर पड़ेगा उससे रत्ती भर भी कम केन्द्र की राजनीति प्रभावित नहीं होगी। लेकिन ये तमाम समीकरण फिलहाल कयासों और अटकलों पर ही आधारित हैं क्योंकि हर संभावित बदलाव के साथ यही जुड़ा हुआ है कि अगर यह होगा तो वह होगा। लिहाजा जो भी होगा वह चुनाव परिणाम की तस्वीर से ही तय होगा। वर्ना सियासत में होने को तो कुछ भी हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur
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