संभावित खिचड़ी में रायते का जायका
खेल चल रहा है खुल्लम-खुल्ला। सब खेल रहे हैं। नेता खेल रहे हैं जनता के साथ और जनता खेल रही है नेताओं के साथ। मामला इस कदर गड्डमगड टाईप का हो गया है कि किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा कि कौन किसके साथ खेल-खेल रहा है। हर किसी को अपनी ही पौ-बारह होती दिखाई पड़ रही है। तभी तो सब जोश में हैं। जोश भी ऐसा कि इसमें होश के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। चैतरफा शंखनाद से आसमान गुंजायमान है। तुरही बज रही है, ढ़ोल-नगारे बज रहे हैं। उसकी धुन पर नेता भी मदमस्त हैं और जनता भी। हर तरफ रंग ही रंग है, उमंग ही उमंग है। ‘को बड़-छोट कहत अपराधू’ की स्थिति है। आखिर हो भी क्यों ना। जब एक ही दिन और एक ही इलाके में आयोजित वजीरे-आजम के जनता दर्शन से लेकर यूपी के लड़कों की पगडंडी मार्च तक ही नहीं बल्कि तने-तंबू की छांव में आयोजित बहनजी की चैपाल तक में जनसैलाब का ऐसा उफान दिखाई दे कि तुलनात्मक तौर पर किसी एक आयोजन को सफलतम और बाकियों को दोयम साबित करने में बड़े-बड़ों के पसीने छूटने लगें तो फिर कागजी समीकरणों का ध्वस्तीकरण होना स्वाभाविक ही है। तभी तो सूबे की मौजूदा स्थिति को तयशुदा व परंपरागत फार्मूले के खांचे में फिट करते हुए शब्दों के सांचे में ढ़ालकर किसी निर्णायक स्वरूप में प्रस्तुत कर पाना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना त्रिदेवों की तिकड़ी में से किसी एक को सर्वसम्मति से सर्वोत्तम बताना। ऐसे में सत्ता का वरण करने के लिये सात फेरों में हो रहे सप्तपदी चुनाव की अंतिम परिक्रमा संपन्न होने तक सबका जुनून सातवें आसमान पर होने को कैसे अस्वाभाविक कहा जा सकता है। उस पर तुर्रा यह कि महीना भी फागुन का है जिसमें सामान्य व हर तरह से ठीक-ठीक आदमी की मनोदशा बिल्कुल वैसी ही रहती है जैसी कार्तिक में कुत्ते, अगहन में भैंसे और चुनाव में नेताओं की होती है। यानि फागुन ने चढ़ा दिया है नीम को करेले पर। चुनाव के कारण नेता और फागुन के कारण मतदाता एक बराबर हो गए हैं। लिहाजा ना नेताओं की बात को लेकर जनता में ठोस खेमेबाजी या निर्णायक गोलबंदी हो रही है और ना ही किसी ठोस मुद्दे को लेकर नेताओं में आपसी उखाड़-पछाड़ का माहौल दिख रहा है। हर कोई अपना अलग ही सुर-ताल सुनाने में पिला है। जनता भी किसी एक की तान पर थिरकने के बजाय अपनी ढ़फली पर अपना राग आलाप रही है। हालांकि नेताओं का सुर-ताल जनता को भी आह्लादित कर रहा है और जनता के आलाप से नेता भी आशान्वित हो रहे हैं। सब मस्त हैं अपनी मस्ती में। फिजा में घुल रहे सियासी रंगों से जनता भी खुलकर खेल रही है। वह भगवा के साथ भी उतने ही प्यार से लिपट रही है जितना लाल, हरे व नीले से। इस चुनावी फागुन में जनता इस कदर होलियाई हुई है कि सियासी हुल्लड़-हुड़दंग में यह परखना बेहद मुश्किल हो रहा है कि वह किससे अंदरूनी तौर पर बिदक रही है और किसके साथ अंतरंगता के साथ चिपक रही है। नतीजन सबका दावा यही है कि इस दफा विरोधियों के अरमानों की होली जलेगी और जीत के रंग की होली तो उनकी ही मनेगी। दावा करें भी क्यों ना। वह भी तब जबकि ऐसे दावों की हवा निकालने का अचूक तर्क हर तरफ से पूरी तरह नदारद हो। तभी तो जो किसी जमात से जुड़े हैं वे तो अपने खेमे की जीत सुनिश्चित बता रहे हैं लेकिन तटस्थ व निष्पक्ष विचारों के सूरमाओं का आकलन है कि अंत में मामला खिचड़ी भी हो सकता है। खिचड़ी का यह शगूफा काफी तेजी से फैल भी रहा है। तभी तो साहेब ने भरी सभा में यह कह दिया कि जिनकी अपनी दाल नहीं गल पा रही वे चुनावी चूल्हे पर खिचड़ी पकाने में जुट गए हैं ताकि किसी और को अपनी दाल गलाने में कामयाबी ना मिल सके। वैसे भी समग्रता में देखा जाए तो हवा का रूख किसी एक के पक्ष में होने की संभावना को स्वीकार कर लेने से पूरा विश्लेषण ही रसहीन हो जाएगा। यही वजह है कि चैपाल की चर्चाओं में हवा दी जा रही है खिचड़ी की संभावना को। इस संभावना में बहुत रस भी है और चटपटा स्वाद भी। तभी तो खिचड़ी की संभावना जताने वाले अब यह भी बताने लगे हैं कि इस फागुन में किस पर किसका रंग चढ़ेगा। इस चर्चा का चकल्लस सिर्फ भगवा को लाल-हरे से दूर रख रहा है। वर्ना जितनी अटकलें नीले के भगवा से मिलने की लगाई जा रही हैं उतनी ही तिरंगे की छांव में सशक्त व सुनिश्चित भविष्य का निर्माण करने के लिए लाल-हरे के साथ नीले के जुड़ने की भी व्यक्त की जा रही हैं। लेकिन एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि अब तक जब भी किसी ने नीले को अपनाया है तो उसके हिस्से में कालिख ही आई है। जब भी कभी रंगों के घाल-मेल की परिस्थिति उत्पन्न हुई है तो इसमें वर्चस्व नीले का ही रहा है। लिहाजा खिचड़ी की सूरत में नीला रंग अपनाकर रंगा सियार बनने के अलावा शायद ही कोई दूसरा विकल्प दिखाई पड़े। खैर, किस पर किसका रंग चढ़ेगा, किसका रंग जमेगा या किसका रंग उतरेगा यह शनिवार को पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि अगर खिचड़ी की नौबत आई तो जमकर रायता भी फैलेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur
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