शुक्रवार, 16 जून 2017

‘पहले आप, पहले आप’ का निहितार्थ

‘सब्र से चल रहा शह मात का खेल’


चुनाव आयोग द्वारा अगले महीने होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करने की अधिसूचना जारी कर दिए जाने के साथ ही औपचारिक तौर पर नामांकन प्रक्रिया का आगाज हो गया है। नामांकन दाखिल करने की अंतिम तारीख 28 जून है। एक जुलाई तक नाम वापस वापस लिए जा सकेंगे। 17 जुलाई को वोटिंग होगी और 20 जुलाई को मतगणना होगी। इस पूरी चुनावी प्रक्रिया में देश के कुल 4896 निर्वाचित प्रतिनिधि अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। यानि इतना तो तय है कि 20 जुलाई को नए राष्ट्रपति का नाम सामने आ जाएगा। लेकिन लाख टके का सवाल अब भी बना हुआ है कि आखिर वह कौन होगा जिसे देश का प्रथम नागरिक बनने का सौभाग्य हासिल होगा। अभी तक ना तो सत्ता पक्ष ने अपने उम्मीदवार का चेहरा आगे किया है और ना ही विपक्ष ने। दोनों ओर से चूहे बिल्ली का खेल ही चल रहा है। दोनों की कोशिश है कि आगे बढ़ कर किसी का नाम सामने ना किया जाए बल्कि विरोधी पक्ष की ओर से पेश किए जाने वाले उम्मीदवार का नाम सामने आने की प्रतीक्षा की जाए। शह-मात के इस खेल में सत्ता पक्ष ने भी विभिन्न दलों से बातचीत करके बहुमत के आंकड़े का जुगाड़ करने के लिए तीन सदस्यीय कमेटी गठित कर दी है और विपक्ष ने भी सर्वमान्य चेहरे की तलाश के लिए दस सदस्यीय कमेटी बना दी है। दोनों ओर से कमेटी-कमेटी का खेल शुरू हो गया है। वास्तव में देखा जाए तो राष्ट्रपति के पद पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जीत दिलाने लायक पर्याप्त वोट ना तो सत्ता पक्ष के पास उपलब्ध है और ना ही विपक्ष के पास। बल्कि भाजपा व कांग्रेस से समानांतर दूरी बनाकर चलनेवाले दलों की तीसरी ताकत के पास ही वह निर्णायक चाबी है जो किसी भी पक्ष के उम्मीदवार के लिए राष्ट्रपति भवन का ताला खोल सकता है। यही वजह है कि सरकार की कोशिश विपक्षी खेमे में सेंध लगाने की है जबकि कांग्रेसनीत विपक्ष का प्रयास है कि गैर-भाजपाई दलों को अपने साथ जोड़कर बहुमत के आंकड़े का जुगाड़ किया जाए। साथ ही विरोधी खेमे में सेंध लगाने को लेकर दोनों ही पक्ष पूरी तरह आशान्वित भी हैं। इतिहास गवाह है कि पिछले दो बार के राष्ट्रपति चुनाव में भाजपानीत राजग की एकता पहले ही तार-तार हो चुकी है और दोनों ही बार शिवसेना ने गठबंधन धर्म को दरकिनार कर कांग्रेस की ओर से पेश किए गए उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने में कोई संकोच नहीं किया। वह भी तब जबकि भाजपा के साथ उसके रिश्ते इतने खराब नहीं थे कि उसे विधानसभा व स्थानीय निकाय का चुनाव अपने दम पर लड़ने के लिए मजबूर होना पड़े। लिहाजा इस दफा वह भाजपा के उम्मीदवार को समर्थन देने के लिए आगे आएगी या नहीं इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। यानि भाजपा के समक्ष इस चुनाव को लेकर दोहरी चुनौती है। अव्वल तो उसे राजग की एकता को बरकरार रखना होगा और दूसरे विरोधी खेमे में सेंध लगाकर बहुमत के आंकड़े का जुगाड़ करना होगा। दूसरी ओर कांग्रेसनीत विपक्ष की राह भी कतई आसान नहीं दिख रही है। कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या तो धुर भाजपा विरोधी दलों को किसी एक नाम पर सहमत करने की है जिसके आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहे। दूसरी चुनौती उस चेहरे के लिए बहुमत का जुगाड़ करने की भी है। इसके लिए तीसरे पाले में खड़े उन दलों को इसे अपने साथ जोड़ना होगा जो ना तो राजग का हिस्सा हैं और ना ही संप्रग का। इसमें कांग्रेस को किस हद तक सफलता मिल पाएगी इसके बारे में कुछ भी दावा नहीं किया जा सकता है क्योंकि तमाम गैर-भाजपाई दलों को एक मंच पर लाना काफी हद तक तराजू में मेंढ़क तौलने सरीखा नामुमकिन की हद तक मुश्किल काम है। राष्ट्रपति पद के लिए जो नाम सपा को पसंद आए वही बसपा को भी पसंद हो और वामपंथी व तृणमूल भी उस पर सहमति दे दें इसकी उम्मीद काफी कम है। फिर आम आदमी पार्टी, जदयू व राजद से लेकर राकांपा, टीआरएस व द्रमुक सरीखे धुर भाजपा विरोधी दलों को भी उसी नाम को समर्थन देने के लिए सहमत करना होगा और इस बात की उम्मीद भी पालनी होगी कि उस नाम पर राजग में भगदड़ मच जाए ताकि सत्ता पक्ष में सेंध लगाने की कोशिशें कामयाब हो सकें। जाहिर है कि ऐसा कोई सर्वस्वीकार्य नाम तलाशना काफी हद तक असंभव ही है। इसी प्रकार भाजपा के समक्ष भी यही चुनौती है कि किसी ऐसे चेहरे को उम्मीदवार बनाया जाए जिसे उन सभी 33 दलों की स्वीकार्यता हासिल हो जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही 2019 का अगला लोकसभा चुनाव लड़ने पर अपनी सहमति दी हुई है। लेकिन ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं दिख रहा क्योंकि एक तरफ शत्रुघ्न सिन्हा ने लालकृष्ण आडवाणी का नाम उछाल दिया है तो दूसरी तरफ राजग का काफी बड़ा खेमा गैर-संघी गुण-सूत्र वाले सर्वमान्य उम्मीदवार की मांग कर रहा है और शिवसेना ने तो संघ सुप्रीमो मोहन भागवत से लेकर एमएस स्वामीनाथन तक का नाम उछालकर अपनी खुराफाती नीयत का संकेत अभी से दे दिया है। यानि चेहरे का चकल्लस इधर भी है और उधर भी। सेंधमारी की ख्वाहिश इधर भी है और उधर भी। लिहाजा बेहतर यही है कि एक दूसरे के सब्र का जमकर इम्तिहान लिया जाए क्योंकि एक की गलती दूसरे की जीत निश्चित ही सुनिश्चित कर देगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #navkantthakur

सोमवार, 12 जून 2017

‘हजारों बंदिशें ऐसी कि हर बंदिश पे दम निकले’

‘हजारों बंदिशें ऐसी कि हर बंदिश पे दम निकले’

स्वतंत्र भारत का स्वतंत्र नागरिक होने का सैद्धांतिक मतलब तो यही है कि हम कहीं भी, कभी भी, कुछ भी कहने या करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं बशर्ते इससे किसी दूसरे की स्वतंत्रता का हनन ना होता हो। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो आजादी उस जिम्मेवारी का ही दूसरा नाम है जिसके तहत दूसरों की खुशियों, इच्छाओं व अपेक्षाओं का जितना अधिक ध्यान रखा जाएगा उसी अनुपात में हमें भी इसका आनंद मिलता रहेगा। लेकिन मसला है कि इन दिनों हर किसी को एक दूसरे से कुछ ज्यादा ही परेशानी होने लगी है। हर बात पर परेशानी और कई दफा तो बिना बात के ही परेशानी। मसलन कौन क्या खा रहा है, इससे परेशानी। कौन कैसे रह रहा है, इससे परेशानी। कौन क्या बोल रहा है, इससे परेशानी। कौन क्या पहन रहा है, इससे परेशानी। कौन किस विचार या सिद्धांत को मान रहा है, इससे परेशानी। कौन कब, कैसे व किसकी पूजा-इबादत कर रहा है, इससे परेशानी। यहां तक कि कौन परेशान है, इससे परेशानी और कौन परेशान नहीं है, इससे भी परेशानी। यानि इन दिनों परेशानियों का कोई ओर-छोर ही नहीं दिख रहा है। इन तमाम परेशानियों ने समूचे देश को बुरी तरह परेशान कर रखा है। कोई किसी को किसी भी बात की रत्ती भर भी आजादी देने के पक्ष में नहीं दिख रहा है। चाहे आवाम हो या निजाम, सबकी ख्वाहिश ही नहीं बल्कि कोशिश भी यही है कि उसके मन-मुताबिक ही समूचा संसार संचालित हो। नतीजन तमाम तरह की बंदिशें इस हद तक थोपी जा रही हैं कि आज अगर चचा गालिब जिंदा होते तो निश्चित तौर पर ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले’ के बजाय यही कह रहे होते कि ‘हजारों बंदिशें ऐसी कि हर बंदिश पे दम निकले।’ आखिर कहते भी क्यों नहीं? जब बंदिश आयद करने की हद यहां तक पहुंच जाए कि गाय के दूध से रोजा इफ्तार करने की ताकीद करते हुए मांस खानेवाले की बोटी नोंच लेने की धमकी दी जाने लगे, अजान की आवाज से नींद में खलल पड़ने की दुहाई दी जाने लगे, तीसरे मुल्क में हो रहे भारत-पाक मैच को टीवी पर देखने से रोकने की कोशिश होने लगे और आजम खां सरीखे वरिष्ठ नेता महिलाओं को घर में कैद होकर रहने की सलाह देने लगें तो इन बंदिशों से छटपटाहट होना स्वाभाविक ही है। आलम यह है कि समूचे विश्व में बुर्के पर पर प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया चल रही है जबकि हमारे देश में अगर जायरा वसीम ‘दंगल’ सरीखी प्रेरणादायक फिल्म में एक मासूम बच्ची की भूमिका निभाती है तो उसे जान से मारने की धमकी मिलने लगती है। यहां तक कि अगर फातिमा शेख, दीपिका पादुकोण या प्रियंका चोपड़ा सरीखी महिलाएं अपने मनमुताबिक परिधान धारण करती हैं तो सोशल मीडिया पर तूफान आ जाता है। महाराष्ट्र में एक युवा अपनी प्रेयसी के कहने पर बीच सड़क पर घुटनों के बल बैठकर प्यार का इजहार करता है तो उसका इस हद तक विरोध होता है कि उसे अपना शहर छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ऐसे में सवाल है कि इन बंदिशों के बीच आजादी के मायने की तलाश कैसे की जाए। कैसे कहें कि हम आजाद मुल्क के आजाद बाशिंदे हैं जबकि अपनी मर्जी से किसी पार्टी को वोट देने के नतीजे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोगों को घर में घुसकर मारा-पीटा जाता हो। अपनी मर्जी से कोई बालिग जोड़ा अगर किसी बंद कमरे में एक-दूसरे के साथ कुछ वक्त बिताना चाहे तो उसे इसकी आजादी नहीं मिल पाती। जहां नाबालिगों की शादी कर देना आम बात हो लेकिन उसी समाज में बालिगों को अपनी मर्जी से शादी करने या साथ रहने की इजाजत हासिल ना हो। वहां आजादी का क्या मतलब है इस पर विचार तो करना ही पड़ेगा। विचार तो इस बात पर भी करना पड़ेगा कि कोई कैसे किसी को इस बात के लिए रोक-टोक सकता है कि वह क्या खाए और क्या पिए? कहीं शराब पर प्रतिबंध लगाकर महिला वोटरों को रिझाने की कोशिश हो रही है तो कहीं मांसाहारी खाने को प्रतिबंधित करने का प्रयास करके बहुसंख्यक मतदाताओं की सहानुभूति बटोरी जा रही है। कहीं दुर्गापूजा के बाद प्रतिमा का विसर्जन करने के लिए अदालत से आदेश पारित कराना पड़ रहा है तो कहीं मस्जिद से लाउडस्पीकर उतारने की मांग जोर पकड़ रही है। कोई संस्कृत को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने पर अड़ा है तो किसी को प्रादेशिक भाषा पर हिन्दी का बढ़ता प्रभाव बर्दाश्त नहीं हो रहा है। स्थिति इतनी विकट हो गई है कि गंगा जमुनी सामन्जस्य के प्रति समाज का सरोकार लगातार समाप्त होता जा रहा है और एक ऐसी व्यवस्था को पनपाने का प्रयास हो रहा है जिसमें ताकतवर को यह हक हासिल हो कि वह कमजोर को अपने मनमुताबिक तरीके से जीवन-यापन करने के लिए मजबूर कर सके। बंदिशों की समस्या तब और विकराल हो जाती है जब खास सिद्धांत या विचार को माननेवालों की सत्ता भी अपनी ओर से बंदिशों में इजाफा करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। लेकिन भारत का स्वरूप और स्वभाव कभी ऐसा नहीं रहा है कि यहां के तमाम नागरिक किसी एक मत, पंथ, मजहब, सिद्धांत या विचार को स्वीकार कर लें लिहाजा विविधता में एकता की व्यवस्था को जितना दबाने की कोशिश होगी वह उतनी ही प्रखरता और मुखरता से उजागर होकर अवश्य सामने आएगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर #navkantthakur