सोमवार, 6 नवंबर 2017

‘पकी-पकाई खिचड़ी का फैलता रायता’

‘पकी-पकाई खिचड़ी का फैलता रायता’


व्यावहारिक तौर पर भले ऐसा ही होता हो लेकिन सैद्धांतिक तौर पर यह समझना हमेशा मुश्किल रहा है कि खेत गदहे ने खाया तो मार जुलाहे को क्यों पड़ी। लेकिन अगर तेली का तेल जलने पर मशालची का दिल जलने की वजह समझ में आ जाए तो गदहे की करनी का फल जुलाहे को मिलने की बात आसानी से समझी जा सकती है। इन दोनों कहावतों में कारण और परिणाम के बीच परस्पर कोई तालमेल नहीं होने के बावजूद अंदरूनी तौर पर जुड़ी हुई उस कड़ी की ओर स्पष्ट इशारा किया गया है जिसके कारण एक की करनी का फल दूसरे को भुगतना पड़ता है। अगर मशालची की तेल में आसक्ति ना हो और गदहे से जुलाहे का हित ना जुड़ा ना हो तो ऐसी कहावतें ही ना बनें। ऐसा ही संबंध इन दिनों खिचड़ी और रायते के बीच दिख रहा है। हमेशा से यही बताया गया है कि खिचड़ी के चार यार, घी पापड़ दही अचार। साथ ही खिचड़ी के साथ चोखा-भरता का भी स्वाभाविक संयोग हो जाता है। लेकिन रायते का तो इससे कभी कोई रिश्ता ही नहीं रहा है। दूर-दूर तक खिचड़ी और रायते का कोई संबंध नहीं है। ना व्यावहारिक, ना सैद्धांतिक और ना ही स्वाभाविक। इसके बावजूद पक रही खिचड़ी का रायता फैलने की कहानी अक्सर सुनाई पड़ जाती है। यह पहले भी होता रहा है और अब भी हो रहा है। वर्ना खिचड़ी को औपचारिक तौर पर देश का राष्ट्रीय व्यंजन घोषित कराने के लिए पकाई जा रही खिचड़ी पर सियासत का रायता हर्गिज नहीं फैलाया जाता। हालांकि इस बात की तहकीकात विभिन्न स्तरों पर जोर-शोर से जारी है कि यह विचार कहां, क्यों और किसके दिमाग में उपजा कि राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय चिन्ह और राष्ट्रीय नदी की ही तर्ज पर भारत का एक औपचारिक राष्ट्रीय व्यंजन भी होना चाहिए। साथ ही यह बात भी अब तक साफ नहीं हो पाई है कि आवाम से लेकर निजाम तक ने अनौपचारिक तौर पर राष्ट्रीय व्यंजन के रूप में खिचड़ी के नाम का प्रस्ताव कैसे स्वीकार कर लिया। लेकिन यह बात समझना कतई मुश्किल नहीं है कि इसे इतनी व्यापक स्वीकृति कैसे मिल गई और इसके नाम का प्रस्ताव होने से समाज के कुछ चुनिंदा मुट्ठी भर लोग क्यों चिढ़े हुए हैं। दरअसल कुछ लोग अपनी चिढ़ के कारण ही पहचाने जाते हैं। अगर वे बाल की खाल ना निकालें तो कोई उन्हें पहचाने ही ना। तभी तो हमारे समाज में आज तक किसी भी मसले पर आम सहमति ना तो बन पाई है और ना बन पाने की उम्मीद की जा सकती है। हालांकि इस तरह की असहमतियों को ‘विविधता में एकता’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’, ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबसूरती’ और ‘सबका साथ सबका विकास’ सरीखे बड़े-बड़े गूढ़ार्थ वाले शब्दों के पर्दे में ढ़ांप दिया जाता है और व्यवस्था की गाड़ी बहुमत की पटरी पर लगातार आगे बढ़ती रहती है। लेकिन बहुमत से पकाई जा रही खिचड़ी पर सर्वसम्मति की छौंक लगाने का प्रयास ही विरोधी स्वरों के रायते को फैल कर अपना अस्तित्व दर्शाने पर विवश कर देता है। ऐसा ही इस बार खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन घोषित कराने की कोशिशों के मामले में भी हो रहा है। अगर इसे सर्वसम्मति की छौंक से महकाने का प्रयास नहीं किया जाता तो सनातन असहमति के वाहकों को विरोध का रायता फैलाने के लिए आगे नहीं आना पड़ता। चुंकि खिचड़ी के गुणगान में आवाम से लेकर निजाम तक ने अपनी बहुमत का भरपूर प्रयोग किया लिहाजा विरोधियों को भी आगे आकर अपनी बात रखने के लिए विवश होना पड़ा। किसी ने कहा कि रोजगार देना तो सरकार से संभव नहीं हो रहा इसलिये बेरोजगारों द्वारा मजबूरी में खाई जानेवाली खिचड़ी को महिमामंडित करके उन्हें भरमाने पर प्रयास किया जा रहा है। किसी का तर्क यह था कि खिचड़ी को ही राष्ट्रीय व्यंजन क्यों बनाया जाए, बिरयानी को क्यों नहीं। ऐसा तर्क देने वालों ने खिचड़ी और बिरयानी का भी सांप्रदायिक तौर पर विभाजन करने की पुरजोर कोशिश की। साथ ही कईयों ने गरीब के भोजन को चर्चा में लाए जाने को गरीबों का अपमान भी बताया। यानि खिचड़ी का नाम सामने आते ही रोजगार, गरीबी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मसले को धार देने की कोशिशें शुरू हो गई और राष्ट्रीय व्यंजन के मसले पर सियासत का रायता इस कदर फैलने लगा कि खिचड़ी का रंग भी सियासत के संग कदमताल करता दिखा। लेकिन सभी खाद्य पदार्थों को खुद में समाहित करने की क्षमता रखने के बावजूद अपने सर्वसुलभ स्वरूप को हर हाल में बरकरार रखने वाली खिचड़ी पर रायता फैलाकर उसे बेस्वाद व कसैला करने की कोशिशें परवान नहीं चढ़ पाईं और खिचड़ी ना सिर्फ पकी बल्कि इतनी और ऐसी पकी कि पूरी दुनिया के मुंह में पानी आ गया। खिचड़ी ने विश्व रिकार्ड भी बनाया और यह बता दिया कि वह क्यों सबकी मजबूरी भी है और चहेती भी। वाकई वह खिचड़ी ही है जिसके साथ तमाम देशवासियों का जुड़ाव भी है और लगाव भी। हर प्रांत, पंथ व प्रतिमानों में खिचड़ी की उपयोगिता की असली वजह सबको अपने में समाहित कर लेने की उसकी क्षमता ही है और हर नए मिलावट के साथ उसके स्वाद, सुगंध और स्वरूप में नजर आने वाली भिन्नता से उसके स्वरूप को विराटता ही मिलती है, उसके अस्तित्व को इससे कोई खतरा नहीं होता है। ऐसा ही है हमारा भारत और ऐसी ही है हमारी खिचड़ी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur