सोमवार, 18 जुलाई 2016

‘मेहनत किसी और की मुनाफा किसी और का’

‘मेहनत किसी और की मुनाफा किसी और का’


सैद्धांतिक तौर पर भले ही यह न्यायोचित ना हो लेकिन व्यावहारिक तौर पर अक्सर ऐसा ही होता है कि मेहनत करे कोई और मुनाफा कूटे कोई और। जीवन का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां मेहनत करनेवाले को मजदूरी के अलावा मुनाफा भी नसीब होता हो। वर्ना आर्थिक तौर पर यह होता है कि खून-पसीना एक करके फसल उगानेवाले किसान को लागत की वसूली के भी लाले पड़े रहते हैं जबकि बाजार के बिचैलियों की तिजोरी में हमेशा मुनाफे की बहार ही दिखती है। सामाजिक तौर पर भी मां का दूध व बाप का खून पीकर जवान होनेवाले फलदार पौधे को कंद-मूल सहित स्वजातीय गैर-गोत्रीय को दान कर दिये जाने की ही परंपरा है। धार्मिक परंपरा में भी यजमान की पूरे साल की कमाई का मोटा हिस्सा कर्मकांड, धार्मिक आयोजनों व दान-दक्षिणा के नाम पर पंडे-पुरोहितों की ही भेंट चढ़ जाता है। यहां तक कि राजनीति में भी अक्सर यही देखा जाता है कि मेहनत किसी और की रहती है जबकि मुनाफा किसी अन्य के हिस्से में चला जाता है। यह सिर्फ अंदरूनी तौर पर सियासी संगठनों के भीतर ही नहीं होता बल्कि बहुदलीय चुनावी प्रतिस्पर्धा में भी अक्सर ऐसा ही होता है। तभी तो उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में बहनजी की सरकार को जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा करने का काम तो सपा के अलावा भाजपा व कांग्रेस ने भी पूरी शिद्दत के साथ किया था लेकिन जब चुनावी नतीजा आया तो सत्ता के मुनाफे की मलाई में ना तो हाथ डल सका और ना ही फूल। पूरे मुनाफे से लकदक हो गयी वह सायकिल जिसके तमाम कल-पुर्जों के बीच अब तक पूरा तालमेल नहीं बन पाने के कारण बकौल अखिलेश यादव कभी यह पांच सूबेदारों की सरकार कही जाती है तो कभी साढ़े तीन मुख्यमंत्रियों की। इस बार भी यूपी की राजनीति में औरों की मेहनत का मुनाफा किसी और के खाते में जाने के आसार ही प्रबल दिख रहे हैं। हालांकि मेहनत तो सभी जी-जान से कर रहे हैं और चैथे पायदान पर खड़ी बतायी जा रही कांग्रेस ने भी जिस तरह से चुनावी समर में जोरदार शंखनाद किया है उसके मद्देनजर वह भी अपनी संभावनाएं कतई समाप्त नहीं मान रही है। लेकिन अब तक सामने आए समीकरणों की पड़ताल करने से जो तस्वीर उभर रही है उसमें ना सिर्फ कांग्रेस की मेहनत का फायदा भी सपा को ही मिलने की संभावना दिख रही है बल्कि बसपा व भाजपा के बीच भी एक-दूसरे की फसल पर कब्जा जमाने की लड़ाई ही छिड़ी नजर आ रही है। वास्तव में देखा जाये तो भले ही अब तक बहुकोणीय मुकाबले में सपा की सायकिल सबसे तेज गति से आगे बढ़ती दिख रही हो लेकिन भाजपा के कमल की सुगंध भी काफी तेजी से फैलती दिख रही थी और बसपा का हाथी भी अटकते-भटकते व लड़खड़ाते हुए अपनी लय में आने की कोशिशों में जुटा नजर आ रहा था। यानि तस्वीर ऐसी बन रही थी कि बसपा व भाजपा की जी-तोड़ मेहनत का एकमुश्त मुनाफा इन दोनों में से किसी एक के खाते में आनेवाला था जो सपा को सीधी टक्कर देकर आगे निकल सकता था। लेकिन अब कांग्रेस ने जो कूटनीति आजमाई है उससे समाजवादी खेमे में अगर आशाओं का नया संचार होता दिख रहा है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में देखा जाये शीला दीक्षित का चेहरा और राज बब्बर की ऊर्जा को आगे करके कांग्रेस ने उन सपा विरोधी वोटों में बड़ी सेंध लगाने के लिये कमर कस ली है जिसे पूरी तरह अपने पक्ष में एकजुट करने के लिये बसपा व भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ है। अब अगर विकास व सुशासन के एजेंडे पर भी चुनाव होता है तो अखिलेश का विकल्प तलाशनेवालों की जमात मायावती के अलावा शीला सरीखे ऐसे सख्त व सफल प्रशासक के बीच अवश्य विभाजित होगी जिन्होंने पंद्रह साल के शासनकाल में दिल्ली का कायापलट करके रख दिया। इसी प्रकार अगर चुनाव में जातीय लहर हावी हुई तो सूबे के जिस ब्राह्मण मतदाताओं के समर्थन से पहले बहनजी ने सोशल इंजीनियरिंग की क्रांति की थी और बाद में सपा भी दो-तिहाई बहुमत के आंकड़े के करीब तक पहुंची थी उस वोटबैंक को अगर दशकों बाद अपने समाज का मुख्यमंत्री चुनने का विकल्प मिल रहा है तो स्वाभाविक तौर पर उसकी संवेदना व सद्भावना कांग्रेस से ही जुड़ेगी और ऐसे में ब्राह्मण मतदाताओं की काफी बड़ी जमात अगर कांग्रेस की झोली में अपना वोट डाल दे तो इसे कतई अस्वाभाविक नहीं माना जाएगा। साथ ही सूबे के उन अल्पसंख्यकों को भी गुलामनबी आजाद, राज बब्बर व इमरान मसूद की तिकड़ी कांग्रेस के पक्ष में लाने की पूरी क्षमता रखती है जो सपा से बिदकने के बाद विकल्प की तलाश में हैं। यानि समग्रता में देखें तो सतही तौर पर कांग्रेस की पूरी मेहनत अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल करने और अपने वजूद को जमीनी स्तर पर मजबूत करने की दिशा में नजर आ रही हो लेकिन इसकी उसे कितनी मजदूरी मिल पाएगी इसके बारे में अभी से ठोस अंदाजा लगा पाना तो बेहद मुश्किल है। लेकिन सत्ताविरोधी वोटों को छिन्न-भिन्न करते हुए इसके काफी बड़े हिस्से पर अपना कब्जा जमाने के लिये की जा रही कांग्रेस की पूरी कसरत का असली मुनाफा सीधे तौर पर सपा को मिलने की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

मंत्रिमंडल विस्तार ने दिया विवादों को आधार

मंत्रिमंडल विस्तार ने दिया विवादों को आधार

शायद विवाद नरेन्द्र मोदी की नियति के साथ जुड़ा हुआ है। सच कहें तो विवादों ने ही मोदी को मोदी बनाया है। उनके साथ जुड़े विवाद ना हुए होते तो मोदी भी वह मोदी नहीं बन पाते जो वे आज दिख रहे हैं। वैसे भी जिसका सोना-जागना, खाना-पीना और कहीं आना-जाना भी विवादों का सबब बन जाता हो उसकी सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार कैसे विवादों से अछूता रह सकता था। तभी तो विवादों की परछाईं ने इस दफा भी मोदी सरकार का साथ नहीं छोड़ा है। विवाद संगठन में भी दिख रहा है, सरकार में भी और सहयोगियों के बीच भी। सहयोगियों की बात करें तो इस मंत्रिमंडल विस्तार के साथ जुड़ी हुई शिवसेना की तमाम उम्मीदें सिरे से ध्वस्त हो गयीं। उसे पूछा तक नहीं गया। यहां तक कि उसे विस्तार की योजना के बारे में बताना भी मुनासिब नहीं समझा गया। जाहिर है कि अक्खड़ व बेलौस सियासी मिजाजवाली शिवसेना को मोदी सरकार का यह व्यवहार नागवार गुजरना ही था। तभी तो शिवसेना ने ना सिर्फ मंत्रिमंडल विस्तार के आयोजन में शिरकत करने से परहेज बरत लिया बल्कि उसने औपचारिक तौर पर यह धमकी देने से भी गुरेज नहीं किया है कि भाजपा के इस व्यवहार का बदला अवश्य लिया जाएगा और मुम्बई नगर निगम व महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनावों में उसकी जमकर खबर ली जाएगी। खैर, शिवसेना अकेली ऐसी सहयोगी नहीं है जिसके साथ ऐसा व्यवहार हुआ है बल्कि मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में पूछा तो उस अपना दल से भी नहीं गया जिसके कोटे से अनुप्रिया पटेल को सरकार में शामिल कर लिया गया है। जाहिर है कि सरकार का यह व्यवहार अपना दल से जुड़े नेताओं को तो नागवार गुजरना ही था। वह भी तब जबकि पार्टी विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने के कारण काफी पहले ही औपचारिक तौर पर अनुप्रिया को अपना दल से बाहर निकाला जा चुका है। ऐसे में अगर अपना दल की भावनाओं के प्रति बेपरवाही दिखाते हुए अनुप्रिया को सरकार में शामिल करने का फैसला हुआ है तो स्वाभाविक तौर पर इस पहलकदमी से विवाद तो होना ही है। खैर, विवादों की श्रृंखला अगर गठबंधन के सदस्यों तक ही सीमित रहती तो गनीमत थी, लेकिन इस दफा तो मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार ने भाजपा संगठन व सरकार से जुड़े लोगों की भावनाओं को भी बुरी तरह आहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हालांकि मंत्रिमंडल विस्तार का विशेषाधिकार प्रधानमंत्री के हाथों में ही सिमटे होने के कारण उनके फैसलों पर सीधे तौर पर उंगली उठाने की पहल तो नहीं हुई है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि संगठन व सरकार में किसी को कोई तकलीफ या परेशानी नहीं हो रही है। मामला सिर्फ यह है कि दर्द की इंतहा तो दिख रही है लेकिन कराह को होठों तक आने या आंखों से छलकने की इजाजत नहीं दी जा रही है। वर्ना पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए अपने प्रभारवाले राज्यों में मनमाने तरीके से टिकट बांटने, संगठन के बजाय अपने हितों को ही पहली प्राथमिकता देने, दिल्ली में पार्टी की हार सुनिश्चित करने, मुख्यमंत्री पद की दावेदारी छोड़ने के एवज में राज्यसभा का टिकट मांगने, संगठन में गुटबाजी को बढ़ावा देने और पार्टी लाइन से अलग हटकर सस्ता प्रचार पाने के लिये अक्सर सियासी ड्रामेबाजी करने के आरोपी को अप्रत्याशित तरीके से मंत्री पद से नवाजे जाने के बाद पार्टी के उन तमाम वरिष्ठ व कनिष्ठ नेताओं की भावनाएं आहत होना स्वाभाविक ही है जिन्होंने पार्टी के लिये अपना सर्वस्व समर्पित करने में कभी कोताही नहीं बरती हो। तभी तो ऐसे विवादास्पद नेता को मंत्री बनाये जाने को जायज ठहराने की दलील पार्टी के किसी नेता की जुबान से नहीं निकल रही है। साथ ही इस बार के विस्तार में उन दो नामों को खास तौर से शामिल किये जाने को लेकर भी पार्टी के शीर्ष रणनीतिकारों की चैकड़ी के एक सदस्य को भारी तकलीफ पहुंचना स्वाभाविक है जो उन्हें फूटी आंख नहीं भाते हैं और उन दोनों के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी ने इस विस्तार के बहाने अपने उस वरिष्ठ केबिनेट सहयोगी की भावनाओं को आहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है जिसे अब तक खून के आंसू रूलाने की कोशिश करनेवाले सुब्रमण्यम स्वामी को कभी औपचारिक तौर चेतावनी देना भी जरूरी नहीं समझा गया। लिहाजा इस मंत्रिमंडल विस्तार से उस विवादित मान्यता को मजबूती मिलना स्वाभाविक ही है जिसके तहत कहा जाता है कि स्वामी द्वारा जो कुछ भी किया जा रहा है वह अंदरखाने मोदी व अमित शाह की शह पर ही हो रहा है। इसी प्रकार विवाद इस बात भी पनपा है कि आखिर जिन मंत्रियों का कामकाज औसत से भी निचले दर्जे का रहा है उनका दूसरे विभागों में तबादला करने के बजाय उनकी जगह नयी नियुक्ति क्यों नहीं की गयी। साथ ही 75 वर्ष की आयु को आधार बनाकर मध्यप्रदेश सरकार की चलती हुई बस से उतारे गये बाबूलाल गौर व सरताज सिंह ने भी कलराज मिश्रा व नजमा हेप्तुल्लाह सरीखे बुजुर्गों को मंत्रिमंडल से नहीं हटाये जाने को निराशाजनक बताकर नये विवाद को जन्म दे दिया है। बहरहाल, बेशक हर नये विवाद ने मोदी की छवि को निखारने व चमकाने का ही काम किया हो लेकिन विवादों की दोधारी तलवार के साथ खिलवाड़ की आदत दूरगामी तौर पर नकारात्मक नतीजों का सबब भी बन सकती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

'होगा वही जो मंजूरे मुलायम होगा....... इति सिद्धम'

‘सौ सुनार की एक लुहार की’   


यूपी की राजनीति पर गौर करें तो महज एक पखवाड़े के भीतर ही तमाम स्थापित समीकरणों में जो नाटकीय परिवर्तन दिख रहा है वह वाकई बेहद दिलचस्प है। सूबे की सियासत ने इस तेजी से करवट ली है कि ना सिर्फ भाजपा को अपनी राह बदलने के लिये मजबूर होना पड़ा है बल्कि कांग्रेस को भी तुरूप के उस अंतिम इक्के को दांव पर लगाने के लिये मजबूर होना पड़ा है जिसकी विफलता के बाद पार्टी के पास कुछ नहीं बचेगा। इसके अलावा सत्तारूढ़ सपा की बात करें तो इस खेमे में भी कल तक जिनकी तूती बोलती थी वे आज लाख कोशिशों के बावजूद भी अपनी हताशा, निराशा व बौखलाहट नहीं छिपा पा रहे हैं। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो सूबे का पूरा सियासी समीकरण ही शीर्षासन की अवस्था में आ गया है। क्या सपा, क्या भाजपा, क्या बसपा और क्या कांग्रेस। हर खेमा हतप्रभ है, हर तरफ कसमसाहट है। लेकिन इस सबका जो सूत्रधार है वह शांत है, खामोश है। वह तो यह स्वीकार करने के लिये भी तैयार नहीं है कि उसने एक झटके में वह कर दिखाया है जो पिछले साढ़े चार साल से नहीं हो सका। यानि साढ़े चार साल से चल रही सियासी सुनारों की अनवरत ठुकठुकी पर लुहारी हथौड़े की ऐसी चोट पड़ी है जिसने बड़ी जतन व मेहनत से गढ़े गये तमाम समीकरणों को एक झटके में ही पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर के रख दिया है। तमाम स्थापित समीकरणों की शक्ल ही बदल गयी है, पहचानने लायक भी कुछ नहीं बचा है। साढ़े चार साल की अनवरत मेहनत से यह मान्यता स्थापित की गयी थी कि सूबे की सरकार का पूरा नियंत्रण शिवपाल यादव और आजम खान के हाथों में है जबकि अखिलेश यादव महज मुखौटे की भूमिका में हैं और मुलायम सिंह यादव नेपथ्य में जा चुके हैं। लेकिन यह पूरा समीकरण एक झटके में इस कदर उलट-पुलट हो गया है कि शिवपाल को मंच पर अगली पांत में बैठने के लिये भी मनाना पड़ रहा है जबकि आजम कब अपना आपा खोकर आंय-बांय बोलने लग जाएं इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। अब तो नमाजियों पर भी भड़क जाते हैं। उन्हें इफ्तारी का कायदा सिखाने लगते हैं। दूसरी ओर अखिलेश को भी अब मुखौटा नहीं कहा जा सकता है बल्कि अब वे संगठन व सरकार के ऐसे सशक्त संचालनकर्ता बन कर सामने आये हैं जो कमियों व खामियों को कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता, भले ही वे गलतियां उनके पिता को विश्वास में लेकर ही क्यों ना अंजाम दी गयी हों। साथ ही मुलायम एक बार फिर सपा के सिरमौर की छवि को मजबूत करते हुए ऐसे महानायक के तौर पर सामने आ गये हैं जिनकी मर्जी के बिना संगठन व सरकार में कोई पत्ता भी नहीं खड़क सकता। अब ना तो अखिलेश पर जंगलराज व गुंडाराज को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जा सकता है और ना ही सूबे की सरकार पर यादव परिवार के हावी होने की दुहाई दी जा सकती है। यानि एक झटके में ही संगठन व सरकार की छवि का ऐसा काया कल्प हो गया है जिसकी कल तक सपने में भी कोई कल्पना नहीं कर सकता था। यह सब किया है मुलायम के उस लुहारी दांव ने जिसकी कोई काट ही नहीं है। और इसके लिये नेताजी ने ना तो पाताल तोड़ा और ना ही आसमान नोंचा। उन्होंने किया सिर्फ यह कि अंसारी बंधुओं के संगठन में सम्मिलन का प्रस्ताव खारिज कर दिया, अमर सिंह को दिल के साथ ही दल में भी जगह देते हुए संसद के उच्च सदन में दाखिल करा दिया और बलराम सिंह यादव की महज पांच दिनों के भीतर ही सरकार में वापसी करा दी। इन तीन फैसलों ने पूरे परिवेश को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। सपा में अमर की आमद के साथ ही आजम का अस्तित्व खुदमुख्तार से बदलकर पैरोकार का भी नहीं बचा। अंसारी की अगवानी कर रहे शिवपाल की संगठन व सरकार की सर्वेसर्वा की स्वीकार्यता समाप्त हो गयी जबकि इससे अखिलेश को मुखौटे की छवि से उबरकर सत्य व शुचिता को सर्वोपरि माननेवाले सशक्त नेतृत्वकर्ता के तौर पर उभरने में कामयाबी मिल गयी। साथ ही गुंडाराज को बढ़ावा देने का आरोप भी धुल गया और परिवार के दबाव में फैसले लेने की बात भी सिरे से समाप्त हो गयी। लगे हाथों बलराम की पद-प्रतिष्ठा बहाली से यह भी प्रमाणित हो गया कि संगठन व सरकार में किसी की मनमानी नहीं चल सकती, अखिलेश की भी नहीं। अलबत्ता होगा वही जो मंजूरे मुलायम होगा। इति सिद्धम। अब इस बदले माहौल में बदलना तो सबको पड़ेगा। तभी तो कल तक प्रशांत किशोर की मांग के बावजूद प्रियंका को यूपी में आगे करने की बात सुनना भी गवारा नहीं करनेवाले गांधी परिवार को अब अपनी तूणीर के इस आखिरी वाण को भी आजमाने के लिये मजबूर होना पड़ा है और भाजपा को छठी के दूध की तरह समान नागरिक संहिता व अयोध्या सरीखे उन भूले-बिसरे मसलों को भी आगे करने पर विवश होना पड़ा है जिसे हालिया दिनों तक राष्ट्रीय कार्यकारिणी में औपचारिकता के नाते भी याद नहीं किया जा रहा था। खैर, तीन फटाफट फैसलों के एक दांव से ही सिरदर्दी का सबब बने तमाम समीकरणों को सिरे से ध्वस्त कर देनेवाले मुलायम को यह तो स्वीकार करना ही होगा कि उन्होंने दुरूस्त काम करने में कुछ देरी अवश्य कर दी है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur