शनिवार, 18 अगस्त 2018

‘आसमान भी रो पड़ा अटल के अवसान पर’

आखिरकार चले ही गए अटलजी। लंबे समय से जीवन और मृत्यु के बीच पेंडुलम की तरह झूलते हुए वे खुद इस बात को महसूस नहीं कर पा रहे थे कि वे हैं भी या नहीं। कल्पना की जा सकती है किसी व्यक्ति की ऐसी स्थिति को जिसे इस कदर विस्मृति हो गयी हो कि यह भी याद ना रहे कि वह कौन है, कहां है और क्यों है। कब खाया, क्या खाया और खाया भी या नहीं। यहां तक कि शरीर में कोई संवेदना ही ना बचे, दुख-सुख से परे हो जाये। जिसका जीवन महज चिकित्सकीय प्रयासों व कृत्रिम जीवन रक्षक यंत्रों के सहारे सांसों के आवागमन का एक सिलसिला भर बन कर रह जाये उसका क्या रहना और क्या चले जाना। सच तो यह है कि सिर्फ चिकित्सकीय तौर पर अटलजी हमारे बीच से चले गये हैं वर्ना जा तो वे काफी पहले ही चुके थे। उनके जाने की शुरूआत तो तभी हो गयी थी जब उन्होंने स्वेच्छा से सक्रिय राजनीति और सार्वजनिक जीवन से खुद को अलग-विलग कर लिया था। खुद ही मना कर दिया था संसद की सदस्यता लेने से। लेकिन यह अटलजी का ही जीवट था जो तकरीबन एक दशक तक मौत के साथ उनका अनवरत संघर्ष जारी रहा। इस बीच कई ऐसे मौके आए जब लगा कि वे नहीं बच पाएंगे। मगर हर बार वे मौत को मात देते रहे। परन्तु इस धरा धाम पर मृत्यु ही अकाट्य सत्य है। जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसी सनातन व्यवस्था को अंगीकार करते हुए अटलजी ने भी अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। यह भरोसा दिलाते हुए कि- ‘मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौट कर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?’ हालांकि उनका रहना भी ना रहने जैसा हो गया था लेकिन कम से कम एक भरोसा था उनके होने का। लेकिन अब वह भरोसा भी समाप्त हो गया। अटलजी का जाना वाकई ऐसा है जैसे सिर से अभिभावक का साया उठ जाना। वे हर भारतवासी के अपने अटल थे जिन्होंने अपने वचन व कर्म से हर किसी को कहीं ना कहीं छुआ भी और उसमें बदलाव भी किया। आज जितनी भी विकास की परियोजनाएं संचालित हो रही हैं उनकी नींव में अटलजी के हाथों से डाला गया एक ना एक पत्थर अवश्य मौजूद है। उन्होंने विपक्ष में रहते हुए तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार के आग्रह पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में ऐसे जटिल समय में भारत का पक्ष रखने की जिम्मेवारी सफलता से निभाई जब पाकिस्तान ने उस मंच पर कश्मीर के मुद्दे को उठाने का दुस्साहस किया था। बाद में सत्ता की बागडोर संभालने पर परमाणु बम का विस्फोट कर दुनिया में भारत को एक नयी पहचान और प्रतिष्ठा दिलाने वाले, अपने कार्यकाल में भारत को एक बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत बनाने वाले, उत्तर-दक्षिण से लेकर पूरब-पश्चिम तक राष्ट्रीय राजमार्गों, ग्रामीण सड़कों का जाल बिछाने की शुरूआत करनेवाले, शिक्षा का अधिकार दिलानेवाले, बाढ़-सुखाड़ का पूर्ण समाधान करने के लिये नदियों को जोड़ने और मोबाइल क्रांति से लोगों को जोड़ने वाले, विचारधारा पर अडिग किन्तु विरोधियों का भी सम्मान करने वाले, संयुक्त राष्ट्र तक में हिन्दी और हिन्दुस्तान का डंका बजानेवाले अटल जी का चले जाना वाकई अपूरणीय क्षति है। यानि कोई ऐसा आयाम या इंसान नहीं है जिसे अटलजी के जाने से फर्क ना पड़ा हो। फर्क उस भाजपा को पड़ा है, जिसका ना सिर्फ उन्होंने बीज बोया बल्कि उसे दो सांसदों से आगे बढ़ाते हुए ऐसा स्वरूप दिया कि कांग्रेस के विरोध वाली तीन गैरकांग्रेसी सरकार का नेतृत्व उन्होंने खुद भी किया और आज पूरे बहुमत के साथ भाजपा केन्द्र से लेकर तकरीबन बीस राज्यों में सत्तारूढ़ है। फर्क उस भारत को पड़ा है, जिसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये उन्होंने अपने जीवन का क्षण-क्षण और देह का कण-कण समर्पित कर दिया। फर्क देशवासियों को पड़ा है, जिसके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की दिशा में ऐसी पदचाप बनाई जिस पर चलते हुए भाजपा की तमाम सरकारें जनकल्याण के ध्येय के साथ आगे बढ़ रही हैं। फर्क लोकतांत्रिक मूल्यों को पड़ा है, जिसकी राह पकड़ कर उन्होंने 24 दलों को अपने साथ जोड़कर पूरे कार्यकाल की सरकार चलाई। फर्क उन मूल्यों को पड़ा है, जिसका पूरी श्रद्धा के साथ अनुपालन करते हुए उन्होंने यह कहते हुए महज एक वोट की कमी के कारण अपनी सरकार गिर जाने दी कि वे जोड़-तोड़ और जुगाड़ से प्राप्त होनेवाली सत्ता को चिमटे से छूना भी गवारा नहीं कर सकते। फर्क उस विपक्ष को पड़ा है, जिसके लिये अटलजी के कार्यालय व निवास के ही नहीं बल्कि दिल के दरवाजे भी हमेशा खुले रहते थे। फर्क धर्मनिरपेक्षता के उस सिद्धांत को पड़ा है, जिस पर गुजरात में आघात होने पर उन्होंने रूंधे गले और भारी मन से कहा था कि अब वे विश्व को अपना चेहरा कैसे दिखा पाएंगे। फर्क उस मां सरस्वती को पड़ा है, जिसकी साधना उन्होंने आपातकाल के दौरान जेल में भी जारी रखी और कविता की पूरी किताब सलाखों के पीछे रह कर लिख डाली। लेकिन वास्तव में अगर किसी को फर्क नहीं पड़ा है तो वे अकेले व इकलौते अटलजी खुद ही हैं। ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया की तर्ज पर वाकई उन्हें व्यक्तिगत तौर पर अपने जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा है। बल्कि देखा जाये तो उनका जाना वास्तव में उनकी मुक्ति ही है। अब वे मुक्त हो गए हैं अपनी तमाम शारीरिक व्याधियों व पीड़ाओं से। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

‘गुंथे फूल सबके मन भाए, बिखरे हुए करें हाय-हाय’

अनेकता में एकता की जो अवधारणा है उसमें विवधता के बावजूद खूबसूरती में तभी इजाफा होता है जब एकता के धागे में तमाम तरह के फूल परस्पर मजबूती से गुंथे-जुड़े हों। वर्ना बिखरे हुए फूलों की पंखुड़ियां तो न्यौछावर करने के काम ही आती हैं। हालांकि माला बनने के क्रम में भी फूलों की स्वतंत्र सत्ता बरकरार ही रहती है लेकिन अलग-अलग रंग, रूप व गंध का होने के बावजूद जिन फूलों ने सहमति व विश्वास के धागे में बंधना स्वीकार कर लिया हो उनकी ही माला के तौर पर पूछ होती है। राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर भी तमाम जातियों व उपजातियों में बंटे होने के बावजूद जिन वर्गों ने परस्पर एकता की डोर को जितनी मजबूती से थामना स्वीकार किया उनकी उतनी ही अधिक कद्र होती है। लेकिन जो आत्ममुग्धता के दायरे से निकल कर दूसरे को अपनाने और किसी अन्य के साथ जुड़ने के लिये आगे नहीं आते उन्हें कोई नहीं पूछता। वे हाशिये पर रहते हुए दूसरों की खुशी व तरक्की को देखकर आहें ही भरते रह जाते हैं। ऐसा ही हो रहा है इन दिनों उन अगड़ी जातियों के साथ जो इस सप्ताह संसद में ओबीसी और अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कल्याण के लिये बनाए गए कानूनों को देख कर जल-भुन व कुढ़ रहे हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर जलन के धुएं का फैलाव देख कर व विवशता भरी गुहार सुनकर एकबारगी किसी का भी दिल पसीज सकता है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखा जाये तो अपनी इस दशा व मौजूदा हालातों के लिये ये किसी और को कतई जिम्मेवार नहीं ठहरा सकते। आज अगर पिछड़ों और दलितों के हितों की रक्षा के लिये तमाम राजनीतिक दल एक साथ आगे आए हैं और हर कोई इन्हें लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है तो इसकी कई वजहों में से एक बड़ा कारण इनकी वह एकता है जो सभी राजनीतिक दलों को ललचाता भी है और डराता भी है। बेशक दलित, आदिवासी और पिछड़े ही नहीं बल्कि मुसलमान भी अंदरूनी तौर पर तमाम उपजातियों व फिरकों में बंटे हुए हों लेकिन बात जब जाति के स्वाभिमान की आती है तो ये सभी एकजुट हो जाते हैं। ऐसी एकजुटता अगड़ों यानि कथित सवर्णों में कहीं नहीं दिखती। आदिवासी समाज जब सड़क पर उतरता है तब वह संथाल, गोंड, मुंडा, माहली, बोडो, मीणा, खासी, सहरिया, गरासिया, उरांव, बिरहोर या मावची वगैरह के रूप में अलग-पृथक नहीं दिखता बल्कि समग्रता में आदिवासी शक्ति दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार विभिन्न अनुसूचित जातियों के बीच आपस में सामाजिक स्तर पर तमाम दूरियों के बावजूद हक व अधिकारों पर अतिक्रमण की नौबत आने पर 16.6 फीसदी दलित आबादी एकजुट नजर आती है। लेकिन अगड़ों की बात करें तो इनके बीच शायद ही कभी ऐसी एकजुटता दिखती हो। सभी अगड़ी जातियों के एकजुट होने की बात तो बहुत दूर की है अलबत्ता ये आपस में भी एक-दूसरे के साथ मिल जुलकर आगे आने के लिये सहमत नहीं होते। खुद को अगड़ों का अगुवा कहनेवाले ब्राह्मणों की ही बात करें तो इनमें कोई गौड़ है तो कोई द्रविड़। गौड़ में भी कान्यकुब्ज, शाकलद्वीपीय, मैथिल, सरयूपाणी, सारस्वत, चितपावन, झिझौतिया, गालव, अनाविल व महियाल सरीखे दर्जनों प्रकार के ब्राह्मण हैं। इतना ही नहीं बल्कि आगे इनमें भी कई भेद, विभेद, मतभेद और विच्छेद हैं। मैथिल ब्राह्मण की बात करें तो इनमें कोई श्रोत्रिय है तो कोई भलमानुस, कोई जयवार तो कोई करमहे, सुगरगणे वगैरह। अंतिम संस्कार करानेवाले महाब्राह्मण वैसे ही समाज से अलग-विलग रहते हैं। लेकिन बाकियों में भी कोई किसी को अपने बराबर का नहीं मानता। सब एक-दूसरे से ऊपर ही हैं और बेहतर में भी बेहतरीन हैं। आत्ममुग्धता की यही स्थिति राजपूतों की भी है और कायस्थों व भूमिहारों में भी। नतीजन कुल 23.4 फीसदी आबादी के बावजूद आरक्षण के लाभ से अलग-थलग पड़ी अगड़ी जातियों के हितों की रक्षा की बात कहीं नहीं सुनी जाती। नतीजन इस वर्ग के बीच असंतोष, तकलीफ और काफी हद तक जलन व आक्रोश का भाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। फिलहाल इनके दुख की वजह है कि संसद से ओबीसी और एससी-एसटी को तो अधिकतम सम्मान और अधिकार मिल रहा है, लेकिन इन्हें कोई टके का भाव भी नहीं दे रहा। ना सत्ता पक्ष और ना ही विपक्ष। ओबीसी आयोग बनाने के लिए भी संसद में आम सहमति बन जाती है और एससी-एसटी उत्पीड़न निरोधक कानून को कठोर करने के मामले में भी संसद में सर्वसम्मति का माहौल बन जाता है। लेकिन अगड़ों के लिये अलग से कुछ करना किसी को जरूरी महसूस नहीं होता। ऐसे में सवाल है कि आखिर अगड़ों को ऐसी नौबत क्यों झेलनी पड़ रही है? हालांकि कहने को कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यही है कि इस नौबत की जड़ें अतीत में उतनी गहराई तक नहीं धंसी हैं जितनी वर्तमान के साथ जुड़ी हुई हैं। जिन परिस्थितियों के कारण दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिये विशेष संवैधानिक व्यवस्था की गई थी वे व्यावहारिक स्तर पर भले ही कुछ हद तक बदली हों लेकिन सैद्धांतिक, वैचारिक, मानसिक व सामाजिक स्तर पर यथावत बरकरार हैं। लिहाजा जब तक अगड़ों में श्रेष्ठता व विशिष्ठता का अहंकार, आपसी भेद-विभेद व मतभेद और बाकियों के प्रति दुर्भावना का भाव बरकरार रहेगा तब तक इनके लिये हाशिये से ऊपर उठना और सियासी स्तर पर कद्र व विशेष पूछ हासिल कर पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही बना रहेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

जोरदार प्रहार के लिये दमदार मुद्दे की दरकार

केन्द्र की मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिये विपक्ष की बेचैनी किसी से छिपी ने नहीं है। इसके लिये समूचा विपक्ष कुछ भी कर गुजरने के लिये सैद्धांतिक तौर पर पूरी तरह तैयार हो चुका है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी वापस ले ली है तो प्रदेश स्तर पर यूपी में सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के बावजूद सपा ने महागठबंधन के लिये कुर्बानी देते हुए अपनी तुलना में बसपा को अधिक सीटें देने की स्वीकृति का संकेत दे दिया है। बिहार में राजद ने सभी गैर-भाजपाई ताकतों को महागठबंधन में सम्मानजनक तरीके से समाहित करने के लिये तमाम खिड़की-दरवाजे खोल दिये हैं तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल होने का प्रस्ताव लेकर ममता बनर्जी दिल्ली में कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार सदस्यों से एकांत में बातचीत कर चुकी हैं। सुदूर दक्षिण में द्रमुक के साथ कांग्रेस के तालमेल की रूपरेखा पहले ही तैयार हो चुकी है जबकि जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस भी महागठजोड़ का हिस्सा बनने के लिये पहले से तैयार है। कर्नाटक में जद-एस की नाराजगी को दूर करते हुए कांग्रेस ने उसे किसी भी मसले पर सीधा केन्द्रीय नेतृत्व से संवाद कायम करने की मंजूरी दे दी है और आंध्र प्रदेश व तेलंगाना से लेकर महाराष्ट्र तक में भाजपानीत राजग के खिलाफ दिख रहे तमाम दलों को एकजुट होकर चुनाव लड़ने के लिये मनाया-समझाया जा रहा है। यानि बीते लोकसभा चुनाव में विपक्षी वोटों के बिखराव के कारण महज 32 फीसदी वोट पाकर ही संसद में अपने दम पर पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल कर लेने वाली भाजपा की चैतरफा घेरेबंदी करके यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है कि भाजपा को नकारने के लिये पड़नेवाला एक भी वोट विपक्ष के बिखराव के कारण बर्बाद ना हो सके। इस तरह 2019 के आम चुनाव की रणभूमि के लिये व्यूह रचना की निर्णायक रूपरेखा तैयार कर ली गयी है। लेकिन सवाल है कि महारथियों के व्यूह को धारदार व मारक हथियारों से लैस किये बिना सत्ता पक्ष पर जोरदार प्रहार करके उसे परास्त करने की योजना को कैसे सफल किया जा सकता है। इस लिहाज से देखा जाये तो सरकार पर जोरदार प्रहार करने के लिये दमदार मुद्दों के हथियार का चयन करने के मकसद से हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के नतीजे से कोई उत्साहजनक वातावरण नहीं बन पा रहा है। हालांकि समान विचारधारा वाले तमाम दलों को अपने साथ मजबूती से जोड़ने के लिये कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद का लाॅलीपाॅप अपने दरवाजे के बाहर अवश्य लटका दिया है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ा गैर-भाजपाई दल होने के नाते महागठबंधन की धुरी की भूमिका तो कांग्रेस को ही निभानी होगी। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार की बात करें तो कांग्रेस के अलावा बाकी सभी पार्टियों की पहुंच क्षेत्रीय व सूबाई स्तर तक ही सिमटी हुई है। लिहाजा चुंकि राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाकर भाजपा के खिलाफ मजबूत घेराबंदी तैयार करने की जिम्मेवारी कांग्रेस के ही कांधों पर है तो फिर ऐसे मुद्दों के हथियारों का चयन भी उसे ही करना होगा जिसका राष्ट्रव्यापी प्रयोग कर पाना संभव हो। हालांकि इस जिम्मेवारी को निभाते हुए कार्यसमिति की दूसरी बैठक में कांग्रेस ने जिन मुद्दों का चयन किया है उनमें असम के नागरिकता रजिस्टर से 40 लाख लोगों का नाम नदारद होना, फ्रांस से राफेल जहाजों की खरीद में हुआ भ्रष्टाचार, बैंकों में हुई धोखाधड़ी और बढ़ती बेरोजगारी का मसला मुख्य रूप से शामिल है। लेकिन इनमें से एक की भी मारकता ऐसी नहीं दिख रही है जो भाजपा की विश्वसनीयता व स्वीकार्यता के कवच में छेद कर उसके मर्मस्थल को भेदने में सक्षम हो। बल्कि खतरा तो यह है कि कांग्रेस द्वारा चयनित मुद्दों के तमाम हथियार कहीं भाजपा के कवच से टकराकर उल्टा बुमरैंग करके विपक्ष को ही आहत व घायल ना कर दें। मसलन असम के नागरिकता रजिस्टर का मसला भाजपा ने ही विपक्ष को थमाया है लिहाजा विपक्ष जितना इस मुद्दे को तूल देगा उतना ही इससे भाजपा को राष्ट्रीय स्तर फायदा मिलेगा क्योंकि इससे कट्टर राष्ट्रवादी सोच जुड़ी हुई है जिसका प्रसार भाजपा के लिये बेहद फायदेमंद साबित हो सकता है। इसी प्रकार बैंकों में धोखाधड़ी के आंकड़े भी कांग्रेस के ही खिलाफ हैं क्योंकि पूरा एनपीए घोटाला उसके ही कार्यकाल में हुआ। राफेल के मामले में भी गोपनीयता करार वर्ष 2008 में तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी ने किया था जिसके लागू रहते हुए इस पर उठनेवाले तमाम सवालों से भाजपा के पक्ष में जनसंवेदना का निर्माण हो सकता है। रहा सवाल रोजगार का तो इसको लेकर सत्तापक्ष या विपक्ष कुछ भी कहे लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि यह सनातन समस्या है जिसका राजनीतिक स्तर पर पूर्ण निदान नहीं हो पाने की बात सर्वविदित है। यानि समग्रता में देखा जाये तो कांग्रेस ने जिन मुद्दों का चयन किया है उनकी जड़ें या तो उसके ही कार्यकाल की नाकामियों से जुड़ी हैं अथवा मोदी सरकार ने ही उपहार के तौर पर ये मुद्दे उसे सुलभ कराए हैं। ऐसे में यह विश्वास करना तो बेहद मुश्किल है कि इन मुद्दों से मोदी सरकार की स्वीकार्यता या लोकप्रियता में रत्ती भर भी कमी आ पाएगी अलबत्ता यह देखना अवश्य दिलचस्प होगा कि अगर वाकई विपक्ष ने इन्हीं मुद्दों से सरकार पर प्रहार करने की पहल की तो इसके पलटवार का विपक्ष की सेहत पर क्या असर पड़ेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर

शनिवार, 4 अगस्त 2018

‘समीकरणों की सिद्धांतों से सियासी भिड़ंत’

सियासत की राहों से गुजर कर सत्ता की मंजिल तक पहुंचने के लिये सिद्धांतों की भी उतनी ही जरूरत पड़ती है जितनी समीकरणों की। सिर्फ सिद्धांत के दम पर अगर सियासत को आगे बढ़ाना संभव होता तो महज एक वोट की कमी के कारण लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को हार का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन वह लोग ही और थे जो सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए समीकरणों के सहारे हासिल होनेवाले सियासी लाभ को ठुकरा दिया करते थे। सामान्य तौर पर सियासत में सिद्धांतों और समीकरणों के बीच संतुलित तालमेल से ही आगे बढ़ने की राह निकलती हुई देखी गई है। व्यावहारिकता में ना तो सिर्फ सिद्धांतों से सियासत को आगे बढ़ाना संभव हो सकता है और ना ही सिर्फ समीकरणों के दम पर। बल्कि सियासत के लिये दोनों को एक दूसरे का पूरक कहना ही उचित होगा। लेकिन मसला है कि इन दिनों सिद्धांत और समीकरण आमने-सामने आ गए हैं। जो सिद्धांतों के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं उनका समीकरण गड़बड़ हो रहा है और जिनके हाथों में समीकरण की लाठी है उनकी राहों में सिद्धांतों का उजाला नदारद है। एक पक्ष सिद्धांत के लिये समीकरण की परवाह नहीं करना चाहता जबकि दूसरा पक्ष समीकरण साधने के लिये अपने सिद्धांतों की बलि देने से भी संकोच नहीं कर रहा है। हालांकि दोनों को अपनी राहें सत्ता की मंजिल की ओर ही जाती हुई दिख रही हैं लेकिन ऐसा तो संभव ही नहीं है कि दोनों को एक साथ बहुमत का आंकड़ा हासिल हो जाए। लिहाजा अंतिम फैसला तो जनता-जनार्दन को ही करना होगा कि सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले को अपना आशीर्वाद दिया जाए या समीकरण के सांझा चूल्हे पर सियासी रोटी सेंकने वालों को तरजीह दी जाए। लेकिन जनता का फैसला तो चुनाव के बाद ही आयेगा। फिलहाल तो तात्कालिक नफा-नुकसान के मुताबिक भविष्य का आकलन करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। इस लिहाजा से देखें तो सिद्धांतों को ताक पर रख कर समीकरणों के सहारे सियासी सफलता हासिल करने के प्रयासों को बीते कुछ सालों में जनता ने बुरी तरह नकारा ही है। जब उत्तर प्रदेश में दशकों से गैर-कांग्रेसवाद की राजनति करनेवाली सपा ने विधानसभा चुनाव में समीकरणों को साधने के लिये सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर कांग्रेस का हाथ थामने की पहल की तो जनता ने दोनों को सिरे से खारिज कर दिया। जब धुर सैद्धांतिक विरोधी पीडीपी को गले लगाकर भाजपा ने सिद्धांतों को ताक पर रखकर समीकरणों के सहारे जम्मू-कश्मीर की सत्ता हथियाने की पहल की तो एक के बाद एक होनेवाले उप-चुनावों में भगवा खेमे को सिलसिलेवार हार का सामना करना पड़ा। बिहार में नीतीश कुमान ने अपने द्वारा गढ़े गए सिद्धांतों से ही पलटी मारते हुए जब महा-गठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ दोबारा जुड़ने की पहल की तो उसके बाद से जमीनी स्तर पर उनकी पकड़ लगातार कमजोर ही होती जा रही है और अपनी सरकार होते हुए भी उप-चुनावों के मंझधार में राजग की लुटिया डूबती हुई दिख रही है। लेकिन जब धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के धागे से महा-गठजोड़ के समीकरण की गांठ बांधकर यूपी में विरोधियों ने भाजपा को चुनौती दी तो मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में भी कमल मुरझा गया। इन कुछ मिसालों के संकेतों को समग्रता में समझने की कोशिश करें तो सिद्धांतों के लिये समीकरण को ताक पर रखना उतना नुकसानदायक नहीं रहता है जितना समीकरण साधने के लिये सिद्धांतों से मुंह मोड़ना। तभी तो भाजपा ने समीकरण की परवाह किये बगैर सिद्धांतों की राह पर आगे बढ़ना ही मुनासिब समझा है जबकि कांग्रेस समीकरण के लिये अपने सिद्धांतों से समझौते का विकल्प आजमाना बेहतर समझ रही है। खास तौर से असम में तैयार किये जा रहे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानि एनआरसी के मामले में भाजपा ने राजग के समीकरणों की परवाह किये बगैर अपने पूर्वनिर्धारित सिद्धांतों की राह पर आगे बढ़ना ही बेहतर समझा है। वर्ना भाजपा को भी बेहतर पता है कि इस मसले को तूल दिये जाने से जदयू, लोजपा, रालोसपा व अन्नाद्रमुक सरीखे उसके वे सहयोगी खासे खफा हो सकते हैं जिन्होंने सियासी लाभ के लिये मौके की नजाकत के मुताबिक खुद को ढ़ालते हुए राजग में साझेदारी करना स्वीकार किया है और वक्त बदलते ही उन्हें पलटने में जरा भी देर नहीं लगेगी। यानि राजग में टूट व बिखराव की संभावना को समझते हुए भी भाजपा ने अवैध घुसपैठियों के खिलाफ संघर्ष के सिद्धांत पर कायम रहना बेहतर समझा है। दूसरी ओर एनआरसी के मसले पर कांग्रेस के रूख की बात करें तो विगत में उसका इतिहास भी अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर खदेड़े जाने के पक्ष में ही रहा है लेकिन सियासी समीकरणों को साधने और अल्पसंख्यक व भाजपा विरोधी वोटों का राष्ट्रीय स्तर पर ध्रुवीकरण करने के लिये महा-गठजोड़ कायम करने की आवश्यकता के मद्देनजर उसने फिलहाल अपने पुराने सिद्धांत से दूरी बना लेना ही बेहतर समझा है। हालांकि कांग्रेस अपने इस कदम को धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और सामंजस्य के सिद्धांतों के प्रति मजबूत निष्ठा के सिद्धांतों पर अपनी अडिगता के तौर पर अवश्य प्रस्तुत करेगी ताकि सिद्धांतों पर कायम रहने का भरम भी बना रहे और समीकरणों को साधने में भी सफलता मिल जाए। लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यह टकराव सीधे तौर पर सिद्धांतों और समीकरणों के बीच ही होगा। जिसमें अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला, जिस दिए में जान होगी वह जला रह जाएगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर