अनेकता में एकता की जो अवधारणा है उसमें विवधता के बावजूद खूबसूरती में तभी इजाफा होता है जब एकता के धागे में तमाम तरह के फूल परस्पर मजबूती से गुंथे-जुड़े हों। वर्ना बिखरे हुए फूलों की पंखुड़ियां तो न्यौछावर करने के काम ही आती हैं। हालांकि माला बनने के क्रम में भी फूलों की स्वतंत्र सत्ता बरकरार ही रहती है लेकिन अलग-अलग रंग, रूप व गंध का होने के बावजूद जिन फूलों ने सहमति व विश्वास के धागे में बंधना स्वीकार कर लिया हो उनकी ही माला के तौर पर पूछ होती है। राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर भी तमाम जातियों व उपजातियों में बंटे होने के बावजूद जिन वर्गों ने परस्पर एकता की डोर को जितनी मजबूती से थामना स्वीकार किया उनकी उतनी ही अधिक कद्र होती है। लेकिन जो आत्ममुग्धता के दायरे से निकल कर दूसरे को अपनाने और किसी अन्य के साथ जुड़ने के लिये आगे नहीं आते उन्हें कोई नहीं पूछता। वे हाशिये पर रहते हुए दूसरों की खुशी व तरक्की को देखकर आहें ही भरते रह जाते हैं। ऐसा ही हो रहा है इन दिनों उन अगड़ी जातियों के साथ जो इस सप्ताह संसद में ओबीसी और अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कल्याण के लिये बनाए गए कानूनों को देख कर जल-भुन व कुढ़ रहे हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर जलन के धुएं का फैलाव देख कर व विवशता भरी गुहार सुनकर एकबारगी किसी का भी दिल पसीज सकता है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखा जाये तो अपनी इस दशा व मौजूदा हालातों के लिये ये किसी और को कतई जिम्मेवार नहीं ठहरा सकते। आज अगर पिछड़ों और दलितों के हितों की रक्षा के लिये तमाम राजनीतिक दल एक साथ आगे आए हैं और हर कोई इन्हें लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है तो इसकी कई वजहों में से एक बड़ा कारण इनकी वह एकता है जो सभी राजनीतिक दलों को ललचाता भी है और डराता भी है। बेशक दलित, आदिवासी और पिछड़े ही नहीं बल्कि मुसलमान भी अंदरूनी तौर पर तमाम उपजातियों व फिरकों में बंटे हुए हों लेकिन बात जब जाति के स्वाभिमान की आती है तो ये सभी एकजुट हो जाते हैं। ऐसी एकजुटता अगड़ों यानि कथित सवर्णों में कहीं नहीं दिखती। आदिवासी समाज जब सड़क पर उतरता है तब वह संथाल, गोंड, मुंडा, माहली, बोडो, मीणा, खासी, सहरिया, गरासिया, उरांव, बिरहोर या मावची वगैरह के रूप में अलग-पृथक नहीं दिखता बल्कि समग्रता में आदिवासी शक्ति दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार विभिन्न अनुसूचित जातियों के बीच आपस में सामाजिक स्तर पर तमाम दूरियों के बावजूद हक व अधिकारों पर अतिक्रमण की नौबत आने पर 16.6 फीसदी दलित आबादी एकजुट नजर आती है। लेकिन अगड़ों की बात करें तो इनके बीच शायद ही कभी ऐसी एकजुटता दिखती हो। सभी अगड़ी जातियों के एकजुट होने की बात तो बहुत दूर की है अलबत्ता ये आपस में भी एक-दूसरे के साथ मिल जुलकर आगे आने के लिये सहमत नहीं होते। खुद को अगड़ों का अगुवा कहनेवाले ब्राह्मणों की ही बात करें तो इनमें कोई गौड़ है तो कोई द्रविड़। गौड़ में भी कान्यकुब्ज, शाकलद्वीपीय, मैथिल, सरयूपाणी, सारस्वत, चितपावन, झिझौतिया, गालव, अनाविल व महियाल सरीखे दर्जनों प्रकार के ब्राह्मण हैं। इतना ही नहीं बल्कि आगे इनमें भी कई भेद, विभेद, मतभेद और विच्छेद हैं। मैथिल ब्राह्मण की बात करें तो इनमें कोई श्रोत्रिय है तो कोई भलमानुस, कोई जयवार तो कोई करमहे, सुगरगणे वगैरह। अंतिम संस्कार करानेवाले महाब्राह्मण वैसे ही समाज से अलग-विलग रहते हैं। लेकिन बाकियों में भी कोई किसी को अपने बराबर का नहीं मानता। सब एक-दूसरे से ऊपर ही हैं और बेहतर में भी बेहतरीन हैं। आत्ममुग्धता की यही स्थिति राजपूतों की भी है और कायस्थों व भूमिहारों में भी। नतीजन कुल 23.4 फीसदी आबादी के बावजूद आरक्षण के लाभ से अलग-थलग पड़ी अगड़ी जातियों के हितों की रक्षा की बात कहीं नहीं सुनी जाती। नतीजन इस वर्ग के बीच असंतोष, तकलीफ और काफी हद तक जलन व आक्रोश का भाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। फिलहाल इनके दुख की वजह है कि संसद से ओबीसी और एससी-एसटी को तो अधिकतम सम्मान और अधिकार मिल रहा है, लेकिन इन्हें कोई टके का भाव भी नहीं दे रहा। ना सत्ता पक्ष और ना ही विपक्ष। ओबीसी आयोग बनाने के लिए भी संसद में आम सहमति बन जाती है और एससी-एसटी उत्पीड़न निरोधक कानून को कठोर करने के मामले में भी संसद में सर्वसम्मति का माहौल बन जाता है। लेकिन अगड़ों के लिये अलग से कुछ करना किसी को जरूरी महसूस नहीं होता। ऐसे में सवाल है कि आखिर अगड़ों को ऐसी नौबत क्यों झेलनी पड़ रही है? हालांकि कहने को कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यही है कि इस नौबत की जड़ें अतीत में उतनी गहराई तक नहीं धंसी हैं जितनी वर्तमान के साथ जुड़ी हुई हैं। जिन परिस्थितियों के कारण दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिये विशेष संवैधानिक व्यवस्था की गई थी वे व्यावहारिक स्तर पर भले ही कुछ हद तक बदली हों लेकिन सैद्धांतिक, वैचारिक, मानसिक व सामाजिक स्तर पर यथावत बरकरार हैं। लिहाजा जब तक अगड़ों में श्रेष्ठता व विशिष्ठता का अहंकार, आपसी भेद-विभेद व मतभेद और बाकियों के प्रति दुर्भावना का भाव बरकरार रहेगा तब तक इनके लिये हाशिये से ऊपर उठना और सियासी स्तर पर कद्र व विशेष पूछ हासिल कर पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही बना रहेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर
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