सियासत की राहों से गुजर कर सत्ता की मंजिल तक पहुंचने के लिये सिद्धांतों की भी उतनी ही जरूरत पड़ती है जितनी समीकरणों की। सिर्फ सिद्धांत के दम पर अगर सियासत को आगे बढ़ाना संभव होता तो महज एक वोट की कमी के कारण लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को हार का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन वह लोग ही और थे जो सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए समीकरणों के सहारे हासिल होनेवाले सियासी लाभ को ठुकरा दिया करते थे। सामान्य तौर पर सियासत में सिद्धांतों और समीकरणों के बीच संतुलित तालमेल से ही आगे बढ़ने की राह निकलती हुई देखी गई है। व्यावहारिकता में ना तो सिर्फ सिद्धांतों से सियासत को आगे बढ़ाना संभव हो सकता है और ना ही सिर्फ समीकरणों के दम पर। बल्कि सियासत के लिये दोनों को एक दूसरे का पूरक कहना ही उचित होगा। लेकिन मसला है कि इन दिनों सिद्धांत और समीकरण आमने-सामने आ गए हैं। जो सिद्धांतों के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं उनका समीकरण गड़बड़ हो रहा है और जिनके हाथों में समीकरण की लाठी है उनकी राहों में सिद्धांतों का उजाला नदारद है। एक पक्ष सिद्धांत के लिये समीकरण की परवाह नहीं करना चाहता जबकि दूसरा पक्ष समीकरण साधने के लिये अपने सिद्धांतों की बलि देने से भी संकोच नहीं कर रहा है। हालांकि दोनों को अपनी राहें सत्ता की मंजिल की ओर ही जाती हुई दिख रही हैं लेकिन ऐसा तो संभव ही नहीं है कि दोनों को एक साथ बहुमत का आंकड़ा हासिल हो जाए। लिहाजा अंतिम फैसला तो जनता-जनार्दन को ही करना होगा कि सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले को अपना आशीर्वाद दिया जाए या समीकरण के सांझा चूल्हे पर सियासी रोटी सेंकने वालों को तरजीह दी जाए। लेकिन जनता का फैसला तो चुनाव के बाद ही आयेगा। फिलहाल तो तात्कालिक नफा-नुकसान के मुताबिक भविष्य का आकलन करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। इस लिहाजा से देखें तो सिद्धांतों को ताक पर रख कर समीकरणों के सहारे सियासी सफलता हासिल करने के प्रयासों को बीते कुछ सालों में जनता ने बुरी तरह नकारा ही है। जब उत्तर प्रदेश में दशकों से गैर-कांग्रेसवाद की राजनति करनेवाली सपा ने विधानसभा चुनाव में समीकरणों को साधने के लिये सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर कांग्रेस का हाथ थामने की पहल की तो जनता ने दोनों को सिरे से खारिज कर दिया। जब धुर सैद्धांतिक विरोधी पीडीपी को गले लगाकर भाजपा ने सिद्धांतों को ताक पर रखकर समीकरणों के सहारे जम्मू-कश्मीर की सत्ता हथियाने की पहल की तो एक के बाद एक होनेवाले उप-चुनावों में भगवा खेमे को सिलसिलेवार हार का सामना करना पड़ा। बिहार में नीतीश कुमान ने अपने द्वारा गढ़े गए सिद्धांतों से ही पलटी मारते हुए जब महा-गठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ दोबारा जुड़ने की पहल की तो उसके बाद से जमीनी स्तर पर उनकी पकड़ लगातार कमजोर ही होती जा रही है और अपनी सरकार होते हुए भी उप-चुनावों के मंझधार में राजग की लुटिया डूबती हुई दिख रही है। लेकिन जब धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के धागे से महा-गठजोड़ के समीकरण की गांठ बांधकर यूपी में विरोधियों ने भाजपा को चुनौती दी तो मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में भी कमल मुरझा गया। इन कुछ मिसालों के संकेतों को समग्रता में समझने की कोशिश करें तो सिद्धांतों के लिये समीकरण को ताक पर रखना उतना नुकसानदायक नहीं रहता है जितना समीकरण साधने के लिये सिद्धांतों से मुंह मोड़ना। तभी तो भाजपा ने समीकरण की परवाह किये बगैर सिद्धांतों की राह पर आगे बढ़ना ही मुनासिब समझा है जबकि कांग्रेस समीकरण के लिये अपने सिद्धांतों से समझौते का विकल्प आजमाना बेहतर समझ रही है। खास तौर से असम में तैयार किये जा रहे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानि एनआरसी के मामले में भाजपा ने राजग के समीकरणों की परवाह किये बगैर अपने पूर्वनिर्धारित सिद्धांतों की राह पर आगे बढ़ना ही बेहतर समझा है। वर्ना भाजपा को भी बेहतर पता है कि इस मसले को तूल दिये जाने से जदयू, लोजपा, रालोसपा व अन्नाद्रमुक सरीखे उसके वे सहयोगी खासे खफा हो सकते हैं जिन्होंने सियासी लाभ के लिये मौके की नजाकत के मुताबिक खुद को ढ़ालते हुए राजग में साझेदारी करना स्वीकार किया है और वक्त बदलते ही उन्हें पलटने में जरा भी देर नहीं लगेगी। यानि राजग में टूट व बिखराव की संभावना को समझते हुए भी भाजपा ने अवैध घुसपैठियों के खिलाफ संघर्ष के सिद्धांत पर कायम रहना बेहतर समझा है। दूसरी ओर एनआरसी के मसले पर कांग्रेस के रूख की बात करें तो विगत में उसका इतिहास भी अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर खदेड़े जाने के पक्ष में ही रहा है लेकिन सियासी समीकरणों को साधने और अल्पसंख्यक व भाजपा विरोधी वोटों का राष्ट्रीय स्तर पर ध्रुवीकरण करने के लिये महा-गठजोड़ कायम करने की आवश्यकता के मद्देनजर उसने फिलहाल अपने पुराने सिद्धांत से दूरी बना लेना ही बेहतर समझा है। हालांकि कांग्रेस अपने इस कदम को धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और सामंजस्य के सिद्धांतों के प्रति मजबूत निष्ठा के सिद्धांतों पर अपनी अडिगता के तौर पर अवश्य प्रस्तुत करेगी ताकि सिद्धांतों पर कायम रहने का भरम भी बना रहे और समीकरणों को साधने में भी सफलता मिल जाए। लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यह टकराव सीधे तौर पर सिद्धांतों और समीकरणों के बीच ही होगा। जिसमें अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला, जिस दिए में जान होगी वह जला रह जाएगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें