शनिवार, 18 अगस्त 2018

‘आसमान भी रो पड़ा अटल के अवसान पर’

आखिरकार चले ही गए अटलजी। लंबे समय से जीवन और मृत्यु के बीच पेंडुलम की तरह झूलते हुए वे खुद इस बात को महसूस नहीं कर पा रहे थे कि वे हैं भी या नहीं। कल्पना की जा सकती है किसी व्यक्ति की ऐसी स्थिति को जिसे इस कदर विस्मृति हो गयी हो कि यह भी याद ना रहे कि वह कौन है, कहां है और क्यों है। कब खाया, क्या खाया और खाया भी या नहीं। यहां तक कि शरीर में कोई संवेदना ही ना बचे, दुख-सुख से परे हो जाये। जिसका जीवन महज चिकित्सकीय प्रयासों व कृत्रिम जीवन रक्षक यंत्रों के सहारे सांसों के आवागमन का एक सिलसिला भर बन कर रह जाये उसका क्या रहना और क्या चले जाना। सच तो यह है कि सिर्फ चिकित्सकीय तौर पर अटलजी हमारे बीच से चले गये हैं वर्ना जा तो वे काफी पहले ही चुके थे। उनके जाने की शुरूआत तो तभी हो गयी थी जब उन्होंने स्वेच्छा से सक्रिय राजनीति और सार्वजनिक जीवन से खुद को अलग-विलग कर लिया था। खुद ही मना कर दिया था संसद की सदस्यता लेने से। लेकिन यह अटलजी का ही जीवट था जो तकरीबन एक दशक तक मौत के साथ उनका अनवरत संघर्ष जारी रहा। इस बीच कई ऐसे मौके आए जब लगा कि वे नहीं बच पाएंगे। मगर हर बार वे मौत को मात देते रहे। परन्तु इस धरा धाम पर मृत्यु ही अकाट्य सत्य है। जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसी सनातन व्यवस्था को अंगीकार करते हुए अटलजी ने भी अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। यह भरोसा दिलाते हुए कि- ‘मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौट कर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?’ हालांकि उनका रहना भी ना रहने जैसा हो गया था लेकिन कम से कम एक भरोसा था उनके होने का। लेकिन अब वह भरोसा भी समाप्त हो गया। अटलजी का जाना वाकई ऐसा है जैसे सिर से अभिभावक का साया उठ जाना। वे हर भारतवासी के अपने अटल थे जिन्होंने अपने वचन व कर्म से हर किसी को कहीं ना कहीं छुआ भी और उसमें बदलाव भी किया। आज जितनी भी विकास की परियोजनाएं संचालित हो रही हैं उनकी नींव में अटलजी के हाथों से डाला गया एक ना एक पत्थर अवश्य मौजूद है। उन्होंने विपक्ष में रहते हुए तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार के आग्रह पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में ऐसे जटिल समय में भारत का पक्ष रखने की जिम्मेवारी सफलता से निभाई जब पाकिस्तान ने उस मंच पर कश्मीर के मुद्दे को उठाने का दुस्साहस किया था। बाद में सत्ता की बागडोर संभालने पर परमाणु बम का विस्फोट कर दुनिया में भारत को एक नयी पहचान और प्रतिष्ठा दिलाने वाले, अपने कार्यकाल में भारत को एक बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत बनाने वाले, उत्तर-दक्षिण से लेकर पूरब-पश्चिम तक राष्ट्रीय राजमार्गों, ग्रामीण सड़कों का जाल बिछाने की शुरूआत करनेवाले, शिक्षा का अधिकार दिलानेवाले, बाढ़-सुखाड़ का पूर्ण समाधान करने के लिये नदियों को जोड़ने और मोबाइल क्रांति से लोगों को जोड़ने वाले, विचारधारा पर अडिग किन्तु विरोधियों का भी सम्मान करने वाले, संयुक्त राष्ट्र तक में हिन्दी और हिन्दुस्तान का डंका बजानेवाले अटल जी का चले जाना वाकई अपूरणीय क्षति है। यानि कोई ऐसा आयाम या इंसान नहीं है जिसे अटलजी के जाने से फर्क ना पड़ा हो। फर्क उस भाजपा को पड़ा है, जिसका ना सिर्फ उन्होंने बीज बोया बल्कि उसे दो सांसदों से आगे बढ़ाते हुए ऐसा स्वरूप दिया कि कांग्रेस के विरोध वाली तीन गैरकांग्रेसी सरकार का नेतृत्व उन्होंने खुद भी किया और आज पूरे बहुमत के साथ भाजपा केन्द्र से लेकर तकरीबन बीस राज्यों में सत्तारूढ़ है। फर्क उस भारत को पड़ा है, जिसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये उन्होंने अपने जीवन का क्षण-क्षण और देह का कण-कण समर्पित कर दिया। फर्क देशवासियों को पड़ा है, जिसके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की दिशा में ऐसी पदचाप बनाई जिस पर चलते हुए भाजपा की तमाम सरकारें जनकल्याण के ध्येय के साथ आगे बढ़ रही हैं। फर्क लोकतांत्रिक मूल्यों को पड़ा है, जिसकी राह पकड़ कर उन्होंने 24 दलों को अपने साथ जोड़कर पूरे कार्यकाल की सरकार चलाई। फर्क उन मूल्यों को पड़ा है, जिसका पूरी श्रद्धा के साथ अनुपालन करते हुए उन्होंने यह कहते हुए महज एक वोट की कमी के कारण अपनी सरकार गिर जाने दी कि वे जोड़-तोड़ और जुगाड़ से प्राप्त होनेवाली सत्ता को चिमटे से छूना भी गवारा नहीं कर सकते। फर्क उस विपक्ष को पड़ा है, जिसके लिये अटलजी के कार्यालय व निवास के ही नहीं बल्कि दिल के दरवाजे भी हमेशा खुले रहते थे। फर्क धर्मनिरपेक्षता के उस सिद्धांत को पड़ा है, जिस पर गुजरात में आघात होने पर उन्होंने रूंधे गले और भारी मन से कहा था कि अब वे विश्व को अपना चेहरा कैसे दिखा पाएंगे। फर्क उस मां सरस्वती को पड़ा है, जिसकी साधना उन्होंने आपातकाल के दौरान जेल में भी जारी रखी और कविता की पूरी किताब सलाखों के पीछे रह कर लिख डाली। लेकिन वास्तव में अगर किसी को फर्क नहीं पड़ा है तो वे अकेले व इकलौते अटलजी खुद ही हैं। ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया की तर्ज पर वाकई उन्हें व्यक्तिगत तौर पर अपने जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा है। बल्कि देखा जाये तो उनका जाना वास्तव में उनकी मुक्ति ही है। अब वे मुक्त हो गए हैं अपनी तमाम शारीरिक व्याधियों व पीड़ाओं से। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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