शनिवार, 1 सितंबर 2018

‘तेल के खेल की तह से निकलता निदान’

महंगाई का मसला हमारे देश में सियासी तौर पर हमेशा से ही इतना संवेदनशील रहा है कि कभी प्याज की बढ़ी कीमतों के कारण सरकार बदल गई तो कभी अनाज या दलहन के अभाव ने सत्ताधारियों की साख चैपट कर दी। इस बार आग लगी है पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में। आलम यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद डीजल-पेट्रोल की कीमतें सुरसा की तरह अपना विस्तार करती दिख रही हैं। नतीजन इस मसले पर सरकार को घेरने के लिये राजनीति भी हो रही है और आम लोग भी त्राहिमाम् करते दिख रहे है। हालांकि डीजल-पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाकर और इस पर से करों का बोझ कम करके लोगों को फौरी राहत अवश्य दी जा सकती है। लेकिन चुंकि यह समस्या देश की अंदरूनी नीतियों के कारण खड़ी नहीं हुई है लिहाजा घरेलू जुगाड़ से इस समस्या के समाधान का प्रयास दूरगामी तौर पर कतई कारगर साबित नहीं हो सकता। सच तो यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों की समस्या विश्व व्यवस्था की ओर से भारत पर थोपी व लादी गई है जिसके सामने घुटने टेकने का मतलब होगा विकास व तरक्की की गति से समझौता करना। हालांकि कच्चे तेल की आपूर्ति करनेवाले देशों के संगठन ओपेक के समक्ष भारत लगातार गुहार-मनुहार करता रहा है कि वे अपने रवैये में सुधार लाएं और मुनाफे के लिये मनमानी नीतियों पर अमल ना करें। लेकिन ओपेक देशों द्वारा मुनाफे के लिये कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती का सिलसिला लगातार जारी है। दरअसल दुनिया के बड़े तेल उत्पादक देश आपूर्ति पर नियंत्रण बना कर मनमुताबिक कीमतें तय करने के मकसद से ही वर्ष 1960 में ओपेक का मंच बनाकर एकजुट हुए थे। लेकिन 1998 में कच्चे तेल की कीमतें सर्वकालिक न्यूनतम स्तर यानि 10 डाॅलर प्रति बैरल पर आ गईं तब वर्ष 2000 में ओपेक ने तय किया कि कच्चे तेल की कीमत 22 डॉलर से नीचे जाने पर उत्पादन में कटौती की जाएगी और 28 डॉलर प्रति बैरल की कीमत पर आने के बाद ही उत्पादन बढ़ाया जाएगा। हालांकि बाद के सालों में कच्चे तेल की कीमतें न्यूनतम स्तर पर ही रहीं और आपूर्ति की तुलना में निरंकुश उत्पादन की होड़ लगी रही। नतीजन तमाम तेल उत्पादक देशों का घाटा बढ़ने लगा और आखिरकार ओपेक के अलावा अन्य तेल उत्पादक देशों ने भी ओपेक प्लस के नाम से एक मंच बना कर वर्ष 2017 से उत्पादन में 18 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती करने संबंधी एक समझौता कर लिया। नतीजन कच्चे तेल की कीमतें 27 डॉलर से बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गईं। इस बीच हाल के कुछ महीनों में वेनेजुएला, लीबिया और अंगोला ने तेल आपूर्ति में लगभग 28 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की है। साथ ही वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था के जमींदोज होने और ईरान पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगा दिये जाने के बाद तेल के खेल में चारों तरफ आग ही आग की स्थिति दिख रही है। हालांकि भारत द्वारा दूरगामी तौर पर मांग में कमी करने की चेतावनी और ऊर्जा आवश्यकताओं के लिये अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाने का संकेत दिये जाने के बाद बीते दिनों ओपेक ने कच्चे तेल का उत्पादन एक लाख बैरल प्रतिदिन बढ़ाने का निर्णय अवश्य किया है। लेकिन इससे ना तो समस्या का स्थाई समाधान संभव है और ना ही भविष्य के प्रति निश्चिंत हुआ जा सकता है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नाले के गैस से चूल्हा जलाने की कहानी सुनाना वास्तव में ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में तकनीक की आवश्यकता की ओर इशारा है और इस ओर प्रधानमंत्री की नजरें गड़ी होने का सीधा मतलब है कि अब भारत की पहली प्राथमिकता ऊर्जा के लिये विदेशों पर निर्भरता की विवशता से निजात पाना है। बीते सप्ताह बायोफ्यूल से विमान उड़ाकर बॉम्बार्डियर क्यू-400 द्वारा 20 सवारियों के साथ देहरादून से राजधानी दिल्ली के बीच के स्वर्णिम सफर के सपने को साकार किया जाना भी उसी सिलसिले की कड़ी है। दरअसल अब बेहद आवश्यक हो गया है कि हम वैकल्कि ऊर्जा श्रोतों पर गंभीरता से ध्यान दें और पेट्रोलियम पर अपनी निर्भरता को यथासंभव कम करें। इसके लिये इसी साल नैशनल पॉलिसी फॉर बायोफ्यूल भी तैयार की गई है जिसके मुताबिक अगले चार सालों में एथेनॉल के उत्पाद को तीन गुना तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा बायोफ्यूल, बायोगैस व सौर ऊर्जा पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है और घरेलू संसाधनों से ऊर्जा जरूरतें पूरी करने की कोशिश की जा रही है। वैकल्पिक अक्षय ऊर्जा को लेकर भारत की जो नीति है उसके तहत वर्ष 2025 तक प्रतिदिन के तेल की खपत में 10 लाख बैरल की भारी कमी आएगी। इसके लिये इलेक्ट्रोनिक व गैर-पेट्रोलियम चालित वाहनों को टोल टैक्स से छूट देने की योजना भी बन रही है और नीति आयोग सरकार को यह सलाह भी दे रहा है कि ऐसे वाहनों की खरीद पर डेढ़ लाख तक की सब्सिडी भी मुहैया कराई जाए ताकि आम लोगों को वैकल्कि ईंधन का इस्तेमाल बढ़ाने के लिये प्रेरित किया जा सके। जाहिर है कि वैकल्पिक ईंधन का काफी बड़ा श्रोत खेतों में उपजेगा जिससे निश्चित ही भारत के किसानों को सीधा लाभ होगा और प्रदूषण के स्तर में भी कमी आएगी। साथ ही तेल का आयात करने में खर्च होनेवाली विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी और ऊर्जा में आत्मनिर्भरता से सशक्त भारत की तस्वीर उभर कर सामने आएगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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