गुरुवार, 13 सितंबर 2018

‘कनविन्स के बजाय कन्फ्यूज करने का काॅन्फिडेन्स’

वकालत के पेशे में अक्सर यह देखा जाता है कि किसी भी मुकदमे की पैरवी करते वक्त वकीलों की कोशिश रहती है कि तथ्यों, दलीलों, साक्ष्यों, सबूतों व अपनी बातों से जज को कनविन्स कर लिया जाये। लेकिन अगर साक्ष्य व सबूत पर्याप्त ना हों और मुकदमा कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा हो तो ऐसे में वकील पुरजोर कोशिश करता है कि पूरे मामले को लेकर जज को इस कदर कन्फ्यूज कर दिया जाये कि वह उलझ कर रह जाए और सही फैसले तक पहुंच ही ना सके। इन दिनों भाजपा भी इसी रणनीति पर अमल करती नजर आ रही है। आगामी चुनावों के मद्देनजर उसने जनता जनार्दन को कन्फ्यूज करने की ऐसी रणनीति पर अमल आरंभ कर दिया है जिससे यह समझना बेहद मुश्किल है कि आखिर उसकी नीति क्या है और नीयत क्या है। हालांकि दावे से यह कहना बेहद मुश्किल है कि वाकई जनता को कन्फ्यूज किया जा रहा है अथवा पार्टी ही कन्फ्यूजन की स्थिति में है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि एक तरफ शपथ तो राष्ट्रवाद के डंडे में विकास का झंडा लगाकर ‘सबका साथ सबका विकास’ की ली जा रही हो और दूसरी ओर विकास से जुड़े मसलों पर चुप्पी साध ली जाए। राष्ट्रवाद को भी इस अंदाज में आगे बढ़ाया जाए जिससे समाज में सांप्रदायिक विभाजन की नींव मजबूत होती हुई दिखाई पड़े। राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ताना-बाना बुनने की कोशिश के तहत ही तो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानि एनआरसी के मसले को राष्ट्रीय स्तर पर तूल देते हुए एक तरफ खुले शब्दों में ऐलान किया जाता है कि भाजपा की सरकार एक भी रोहिंग्या अथवा बांग्लादेशी को भारत में घुसपैठ करने की छूट नहीं देगी लेकिन लगे हाथों यह बताने से भी परहेज नहीं बरता जाता है कि दुनिया के किसी भी देश से आने वाले हिन्दू, इसाई, बौद्ध, जैन, सिख व पारसी (गैर-मुस्लिम) समाज के लोगों को शरणार्थी के तौर पर स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं किया जाएगा। जाहिर है कि इस तरह की बात करके समाज को हिन्दू और मुसलमान के बीच की खाई में गिराने का ही प्रयास किया जा रहा है। वर्ना घुसपैठियों को संप्रदाय के चश्मे से देखने-दिखाने की जरूरत ही क्या है? देश की समस्या यह नहीं है कि किस संप्रदाय के लोग हमारे देश में अवैध घुसपैठिये हैं अथवा किस धर्म को माननेवाले शरणार्थी हैं। देश की मौजूदा समस्या है डाॅलर के मुकाबले रूपये की गिरती सेहत, पेट्रोलियम पदार्थों के आसमान छूते दाम और वोटबैंक की राजनीति के लिये अपनाई गई तुष्टिकरण की राह के कारण आंदोलित सवर्ण समाज का तीखा आक्रोश व असंतोष। लेकिन केन्द्र से लेकर देश के 19 राज्यों में प्रत्यक्ष और जम्मू-कश्मीर सरीखे सूबों में परोक्ष तौर पर शासन कर रही भाजपा इन जमीनी मसलों को चिमटे से भी छूने की जहमत नहीं उठा रही है। अलबत्ता पूरा जोर इस बात पर है कि एनआरसी के मसले को किसी भी तरह से मुख्यधारा की चर्चा के केन्द्र में ला दिया जाए। जाहिर है कि सांप्रदायिक मसलों को चर्चा में लाकर असली मसलों से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश के तहत ही ऐसा किया जा रहा है। इसी प्रकार कहने को तो भाजपा अपनी सोच सकारात्मक व विकास परक बताती है और तमाम मंचों से यही अपील करती है कि राजनीतिक बहस को विकास व सुशासन पर ही केन्द्रित रखा जाये लेकिन व्यवहार में इस पर अमल करने को लेकर पार्टी कहीं से भी आश्वस्त नहीं दिखती है। वर्ना विपक्ष के महागठबंधन को लेकर ऐसी बेचैनी का आलम नहीं दिखता कि भाजपा की मातृसंस्था यानि आरएसएस के मुखिया को वैचारिक व सैद्धांतिक विरोधियों की तुलना कुत्ते से करने के लिये मजबूर होना पड़े। यानि संघ से लेकर भाजपा संगठन और मोदी सरकार तक में बेचैनी का माहौल भी है और सिद्धांत व व्यवहार में संतुलन की तलाश भी हो रही है। लेकिन सवाल है कि जब नीति और नीयत सिर्फ सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने तक ही सीमित हो जाये तब सिद्धांतों की याद दिलाना बेमानी और मजाकिया ही होगा। अगर सत्ता केन्द्रित नीति ना होती तो जनता से जुड़ाव इतना कमजोर कैसे हो सकता था कि जन-मन को मथ रहे मसलों को चिमटे से छूने की भी जरूरत ना समझी जाए। व्यवहार में अगर कुछ कर पाना संभव ना भी हो तो सैद्धांतिक बातें करके लोगों को सांत्वना दी ही जा सकती है। गुड़ ना दे सको तो गुड़ जैसी बातें ही कहो। लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर विभिन्न स्तरों की बैठकों के बारे में दी जा रही जानकारियों के मुताबिक ना तो रोजगार के मसले पर कहीं कोई चर्चा हो रही है और ना ही डीजल-पेट्रोल की महंगाई को थामने पर विचार करने की जहमत उठाई जा रही है। अलबत्ता रणनीति बन रही है चुनाव जीतने की और इसके लिये लक्ष्य तय किया गया है 51 फीसदी वोटों पर कब्जे का। इसके लिये तुष्टिकरण पिछड़ों का भी किया जा रहा है और दलितों व आदिवासियों का भी। बहुसंख्यकों व गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिये शरणार्थियों का मसला भी चमकाया जा रहा है। ऐसे में अगर सवर्णों, मुसलमानों और कुछ अन्य जातियों को चिढ़ाना-खिझाना भी पड़े तो कोई दिक्कत नहीं। लेकिन सवाल है कि जब सिद्धांत और व्यवहार में असंतुलन व दिखावे की स्थिति प्रबल रहेगी तो संगठन व सरकार से जनता का जुड़ाव क्यों, कैसे व कब तक कायम रह पाएगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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