शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

‘जो अनैतिक है वह असंवैधानिक क्यों नहीं?’

तमाम जटिलताओं से अलग हटकर अब तक कानून और संविधान को समझने का एक तरीका यह भी था कि तटस्थता, निष्पक्षता और निरपेक्षता के साथ अपने दिल पर हाथ रख खुद से पूछा जाये कि क्या सही है और क्या गलत। दिल से जो आवाज आएगी वही न्यायसम्मत होगा और जो न्यायसम्मत होगा वह निश्चित ही कानून व संविधानसम्मत भी होगा। लेकिन बीते कुछ दिनों में सर्वोच्च न्यायालय के जो फैसले आए हैं उसने दिल की आवाज को गलत बताने का काम किया है। बात चाहे धारा 377 में बदलाव की करें या आधार विधेयक को मनी बिल के तौर पर पारित कराने की प्रक्रिया को संविधान के साथ धोखा बताये जाने की अथवा एडल्ट्री यानि व्यभिचार को अपराध करार देने वाली धारा 497 को असंवैधानिक करार देकर खारिज करने की। बल्कि पदोन्नति में आरक्षण व्यवस्था को लागू करने का रास्ता साफ किए जाने की बात ही क्यों ना हो। ऐसे तमाम मामलों में जो फैसले आए हैं उससे समाज का काफी बड़ा वर्ग कतई सहमत या संतुष्ट नहीं दिख रहा है। समझना मुश्किल है अगर आरक्षण व्यवस्था के दायरे का विस्तार करते हुए इसे पदोन्नति में भी लागू किया जाएगा तो उस अवधारणा का क्या होगा जिसके तहत कहा जाता रहा है कि शोषित, पीड़ित व दमित वर्ग को मुख्यधारा में आगे आने का मौका देने के लिये इस व्यवस्था को लागू किया था। समाज में हाशिये पर खड़े वर्ग को आगे लाने के लिये पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के नियमों, अपेक्षाओं व अहर्ताओं में ढ़ील देने की बात तो समझ में आती है। लेकिन नौकरी पा जाने वालों को नियमानुसार या तय समय के बाद स्वाभाविक तौर पर मिलनेवाली पदोन्नति के मानदंडों में भी ढ़ील दिये जाने के पीछे आखिर क्या सोच हो सकती है यह समाज के काफी बड़े वर्ग की समझ से परे है। समझ से परे यह भी है कि आधार पर फैसला देने वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ ने अलग से डिसेंट लिखते हुए यह कैसे कह दिया कि आधार विधेयक को लोकसभा में धन विधेयक के रूप में पारित करना संविधान के साथ धोखे के समान है लिहाजा यह निरस्त किये जाने के लायक है। यह तो सरासर लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार, योग्यता और निष्पक्षता पर उंगली उठाने वाली बात हुई क्योंकि यह निर्णय करने का अधिकार पूरी तरह लोकसभा अध्यक्ष का ही होता है कि कौन सा विधेयक मनी-बिल के तौर पर प्रस्तुत किया जाएगा। जब लोकसभा अध्यक्ष ने आधार विधेयक को मनी बिल के तौर पर सदन में प्रस्तुत किये जाने का फैसला दे दिया तो उसके खिलाफ कुछ भी कहने का अधिकार किसी को नहीं हो सकता है। भले ही वह किसी भी पद या कद का व्यक्ति क्यों ना हो। लेकिन सर्वोच्च सम्मान की चाहत रखने वाले मी-लाॅर्ड अन्य संवैधानिक पदों की गरिमा का समुचित सम्मान क्यों नहीं करते यह वाकई समझ से परे है। समझ से परे तो यह भी है कि धारा 377 में बदलाव करते हुए समलिंगियों को यौन संबंध स्थापित करने की औपचारिक रूप से इजाजत दिये जाने के बाद अब पति-पत्नी को कहीं भी और किसी के साथ भी स्वच्छंद तरीके से शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत देने के पीछे आखिर क्या मानसिकता हो सकती है। धारा 497 को असंवैधानिक बता कर खारिज कर दिये जाने के बाद अब आखिर क्या मतलब रह जाएगा विवाह व्यवस्था का? इस फैसले के बाद कानूनी, संवैधानिक या विधिक तौर पर व्यभिचार की आखिर क्या परिभाषा होगी? बेशक खुलते-बदलते वक्त की बेलगाम बयार के अनुकूल खड़े दिखने के लिये स्थापित सिद्धांतों में बदलाव करते हुए इस तरह के फैसले को एकबारगी सही भी माना जा सकता है लेकिन जब व्यवहार व परंपरा के प्रतिकूल सिद्धांत गढ़े जाएंगे तो उसे आदर्श व अनुकरणीय कैसे माना जाएगा। इन फैसलों को पूरी तरह अमल में लाये जाने के बाद समाज की कैसी तस्वीर सामने आएगी इस पर विचार करना भी अगर जरूरी नहीं समझा गया है तो निश्चित ही भावी दुष्परिणामों के लिये किसी अन्य को दोष देना कतई सही नहीं होगा। अब नयी व्यवस्था के तहत जब यौन शुचिता का कोई मायने-मतलब ही नहीं रहा गया है तो इसके परिणाम स्वरूप पैदा होने वाली पीढ़ियां किन संस्कारों में ढ़लेंगी और कैसा भारत गढ़ेंगी इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। पश्चिम के खुले समाज में भी जब सर्वशक्तिमान अमेरिकी राष्ट्रपतियों की भी हिम्मत नहीं होती कि वे अपने विवाहेत्तर संबंधों को स्वीकार कर सकें तो इसका सीधा अर्थ यही है कि पश्चिमी समाज भी यौन शुचिता की अपेक्षा करता है। लेकिन संस्कार, मर्यादा व परंपरा की संस्कृति को आत्मसात करने वाले भारतीय समाज को एक झटके में यौन अराजकता की बेलगाम राहों पर धकेल देना और अपने परंपराओं, मूल्यों, संस्कारों और मर्यादाओं को पुरातन सोच का प्रतीक बताकर उससे पल्ला झाड़ लेना वाकई समाज के काफी बड़े वर्ग की समझ में फिलहाल तो कतई नहीं आ सकता। वर्जनाओं को तोड़ने की होड़ अब अगर परिवार व समाज को छिन्न-भिन्न करते हुए भारतीयता के मूल्यों को तार-तार करने की ओर बढ़ चले तो कोई आश्चर्य, विस्मय या अचंभे की बात नहीं होगी। अपेक्षित था कि मी-लाॅर्ड इस तथ्य की अनदेखी नहीं करते कि अपनी परंपराओं, मर्यादाओं, संस्कारों और सनातन संस्कृति के दम पर ही हम गर्व से समूचे विश्व को यह बताते हैं- यूनानो-मिश्र-रोमां सब मिट गए जहां से, बाकी मगर है अब तक नामो-निशां हमारा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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