शनिवार, 22 सितंबर 2018

‘श्रेय की सियासत में दफन होती सिद्धू की सिद्धि’

स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि- ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।’ वाकई इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फों में बड़ा नाम दर्ज कराने के लिये मन का बड़ा होना भी उतना ही आवश्यक है जितना कर्मों का बड़ा होना। लेकिन बड़ा काम करने के बाद छोटे मन का प्रदर्शन करते हुए श्रेय हासिल करने की होड़ में शामिल होने का नतीजा क्या होता है यह पंजाब सरकार के कांग्रेसी मंत्री व पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। बीते दिनों उन्होंने काम तो बहुत बड़ा किया था। उन्होंने इमरान खान को पाकिस्तान का वजीर-ए-आजम चुने जाने पर बधाई देने के बहाने परोक्ष तौर पर दोनों मुल्कों के बीच की उस डोर को नए सिरे से जोड़ने की पहल की जिसे जोड़ने के अलावा दोनों मुल्कों के पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है। उन्हें यह मौका दिया केन्द्र की मोदी सरकार ने और उन्होंने भी अपनी पार्टी के नेताओं की नाराजगी की परवाह किए बगैर इस बड़े काम को पूरा करने की दिशा में पूरे आत्मविश्वास के साथ पहल की। दरअसल पाकिस्तान के 22वें प्रधानमंत्री के तौर पर अपने शपथ ग्रहण का साक्षी बनने के लिये इमरान ने तीन भारतीय क्रिकेटर दोस्तों को बुलाया जिनमे कपिल देव और सुनील गावस्कर के अलावा सिद्धू का नाम शामिल था। गावस्कर ने तो विनम्रता से अपनी विवशता दर्शाते हुए बता दिया कि व्यावसायिक व्यस्तताओं के कारण वे शपथ ग्रहण का साक्षी नहीं बन पाएंगे। लेकिन सरकार से अनुमति मिलने पर ही पाकिस्तान जाने की बात सिद्धू ने भी कही और कपिल ने भी। इसके बाद सिद्धू के जाने और कपिल के नहीं जा पाने से यह साफ हो गया कि सरकार ने बेहद सधे व सटीक तरीके से कूटनीतिक कदम आगे बढ़ाया है। वैसे भी अगर सरकार चाहती तो सिद्धू की यात्रा को आसानी से रोक सकती थी। लेकिन विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने सिद्धू को तोते की तरह रटाकर व समझा-बुझाकर इन नसीहतों के साथ पाकिस्तान भेजा कि अव्वल तो वे वहां अति-उत्साह नहीं दिखाएंगे और दूसरे ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे देश व देशवासियों की भावना आहत हो। साथ ही उन्हें सुषमा ने हमेशा यह बाद अपने दिमाग में रखने की हिदायत दी कि उन्हें लौटकर भारत ही आना है क्योंकि यही उनका अपना देश है। वैसे भी सिद्धू को इस्लामाबाद भेजने के लिये चुनना बेहतरीन कूटनीतिक पहल थी क्योंकि वे ना सिर्फ विपक्षी खेमे के धारदार व आक्रामक नेता हैं बल्कि उनकी वाक्पटुता की पाकिस्तानी निजाम से लेकर वहां की आवाम भी कायल है। सिद्धू ने भी वहां जाकर शांति का झरोखा खोलने के अभियान में सिद्धि हासिल करके यह दर्शा दिया कि उन पर भरोसा किया जाना बिल्कुल सही था। हालांकि शपथ ग्रहण के कार्यक्रम में पाकिस्तानी कब्जेवाले कश्मीर के राष्ट्रपति मसूद खान की बगल वाली कुर्सी पर सिद्धू बैठने और पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा के गले लगने को लेकर कांग्रेसनीत विपक्ष से लेकर भाजपानीत सत्तापक्ष तक ने उनकी काफी आलोचना की लेकिन तटस्थता व निष्पक्षता से देखा जाये तो वे पूरी गर्मजोशी के साथ वहां गए और गरिमापूर्ण ढ़ंग से वापस भी आए। वहां जाकर उन्होंने वही बातें कीं जिसकी शांति व अमन की आशा में पाकिस्तान दौरे पर गए किसी भी सच्चे भारतीय से अपेक्षा की जा सकती है। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी की उसी नीति को आगे बढ़ाया कि दोस्त बदले सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते। उनकी यात्रा का हासिल यह रहा कि अव्वल तो पाकिस्तान की ओर से बातचीत की पेशकश हुई और दूसरे दुनिया को दिखाने के लिये पाकिस्तान ने घोषणा की कि गुरूनानक देख के 500वें प्रकाश पर्व के मौके पर उस करतारपुर बाॅर्डर को भारतीय श्रद्धालुओं के लिये खोल दिया जाएगा जिसे बंटवारे और आजादी के बाद से ही उसने बंद किया हुआ है। हालांकि भारत सरकार ने कूटनीतिक तौर पर पाकिस्तान को औकात में लाने के लिये उसकी किसी बात को तवज्जो नहीं देने की ही नीति अपनाई हुई है और प्रयास हो रहा है कि उसे इतना झुकाने के बाद ही इस तरफ से उसकी किसी पहल का समुचित जवाब दिया जब वह सिर्फ बोली में बात करे और गोली की जुबान से तौबा कर ले। लेकिन करतारपुर काॅरीडोर खुलने संभावना को भुनाने के लिये सिद्धू ने जो हरकत की है वह वाकई बेहद दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है। पूरे किये-धरे का राजनीतिक लाभ लेने और भारत की ओर से पाक पर बनाए गए दबाव के साथ खिलवाड़ करने के क्रम में सिद्धू ने कैसी बचकानी हरकत की है उसे से इसी से समझा जा सकता है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री व कांग्रेस के राज्यसभा सांसद एमएस गिल ने सुषमा स्वराज से मुलाकात का समय मांगा जबकि मिलने के लिये गिल के पीछे-पीछे सिद्धू भी पहुंच गए। साथ ही सिद्धू अपने साथ एक फोटोग्राफर को भी ले गये थे ताकि बाद में दुनिया को बता सकें कि उनके कहने पर ही भारत सरकार पाक के साथ संबंध सुधारने और करतारपुर साहेब का दरवाजा खुलवाने की पहल कर रही है। सिद्धू को समझना चाहिये कि विदेश नीति का मसला दलगत राजनीति से बहुत ऊपर होता है और यह दो देशों के बीच हितों के संतुलन पर टिका होता है जिसमें भारतीय नागरिक होने के नाते उनका फर्ज बिना किसी लोभ-लाभ के सिर्फ भारत का हित सुरक्षित करना है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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