गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

‘भूमि परा कर गहत अकासा’ की स्थिति में बसपा


कहते हैं कि जिसके पास खोने के लिये कुछ नहीं होता उसके सामने पाने के लिये सारा जहान होता है। यही स्थिति है बसपा सुप्रीमो मायावती की। आखिर बचा ही क्या है उनके पास खोने के लिए? लोकसभा में पिछली बार ही बसपा का पूरी तरह सफाया हो गया था। इस बार सूबे की विधानसभा में भी हाथी की सवारी करके महज 19 विधायक ही जीत दर्ज कराने में कामयाब हो पाए हैं। सच पूछा जाए तो वर्ष 2007 के चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के दम पर 206 सीटें जीत कर सूबे में अपनी सरकार बनाने वाली बसपा का बेड़ा तो 2012 के विधानसभा चुनाव में ही गर्क हो गया जब उसे महज 80 सीटों पर ही जीत नसीब हुई और 126 सीटें उसके हाथों से फिसल गईं। लेकिन वहां से संभलने के बजाय बसपा का हाथी चुनावी दलदल में नीचे की ओर ही धंसता चला गया और इस बार के विधानसभा चुनाव में तो उसे सिर्फ 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। यानि अब बसपा के पास गंवाने के लिये कुछ नहीं बचा है। कुछ नहीं बचने का मतलब वाकई पल्ले में कुछ नहीं होना ही है क्योंकि अपने मौजूदा विधायकों की तादाद के दम पर बसपा राज्यसभा की एक भी सीट नहीं जीत सकती। लेकिन संसद या विधानसभा में सीटों की तादाद की बात अलग कर दें तो जमीन पर बसपा की स्थिति उतनी प्रतिकूल नहीं है। बीते लोकसभा चुनाव में बसपा ने भले ही एक भी सीट ना जीती हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर चार फीसदी से अधिक और यूपी में भी बीस फीसदी से अधिक वोट हासिल करके जनाधार के मामले में वह देश की तीसरी सबसे ताकतवर पार्टी के तौर पर सामने आई। इसी प्रकार यूपी विधानसभा के लिये पिछले साल हुए चुनाव में भी बसपा के खाते में सवा बाईस फीसदी वोट आए। यानि इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद बसपा का परंपरागत वोटबैंक लगातार उसके साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ है लिहाजा पार्टी को शून्य या समाप्त मान लेना कतई उचित नहीं होगा। ऐसे में बसपा के पास दो विकल्प हैं। या तो वह महा-गठजोड़ में शामिल होकर अपनी वापसी के लिये सुरक्षित राह अपनाए जिसमें सीमित तादाद में सीटों पर लड़ने के बावजूद उसके पास सम्मानजनक संख्या में सीटें जीतने की संभावना बन सकती है। लेकिन इस विकल्प पर अमल करने के नतीजे में उसे केन्द्र की राजनीति में अग्रिम मोर्चे पर आने का लोभ-मोह छोड़ना होगा और कांग्रेस का हाथ मजबूत करने में सहभागी बनना होगा। लेकिन दूसरा विकल्प यह है कि बसपा ‘तूफानों से आंख मिलाए, सैलाबों पर वार करे, मल्लाहों का चक्कर छोड़े, तैर कर दरिया पार करे।’ फिलहाल बसपा ने दूसरे विकल्प को आजमाने की ही राह पकड़ी है ताकि अपने बाजुओं की ताकत को तौलने और जमीनी स्तर पर बह रही हवाओं की दशा-दिशा का ठोस आकलन करने के बाद ही लोकसभा चुनाव के लिये निर्णायक रणनीति बनाई जाए। इसी वजह से पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसने कांग्रेस से किनारा करके अपनी अलग राह पकड़ी है। खास तौर से उसे संभावना टटोलनी है मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां उसने तीसरी ताकत के तौर पर उभरने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अब तमाम संभावनाएं इस बात पर टिकी हैं कि जमीनी स्तर पर भाजपा की मजबूती यथावत बरकरार है अथवा मतदाता विकल्प की तलाश में हैं। अगर विकल्प की तलाश के प्रति मतदाताओं का रूझान सामने आया तो कांग्रेस और भाजपा के साथ समानांतर दूरी कायम करके चलना ही बसपा के लिये मुनासिब होगा। वैसे भी मतदाताओं द्वारा विकल्प की तलाश किया जाना तीसरी ताकतों के लिये बेहद शुभ संकेत होगा क्योंकि इससे लोकसभा चुनाव में खंडित जनादेश आने की संभावना प्रबल हो जाएगी। हालांकि बसपा इकलौती पार्टी नहीं है जो खंडित जनादेश का सपना देख रही है और केन्द्र में मजबूर सरकार बनने की दुआ कर रही है। बल्कि एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों से लेकर टीडीपी तक की ख्वाहिश यही है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेसनीत संप्रग और भाजपानीत राजग में से जो भी आगे निकले उसका सफर अधिकतम डेढ़-सौ से दौ-सौ सीटों के बीच ही ठहर जाए। ऐसी सूरत में तीसरी ताकतों को आगे आने का सुनहरा मौका मिलेगा और उसमें भी जिसकी जितनी संख्या भारी होगी उसकी उतनी ही प्रबल दावेदारी होगी सत्ता की मलाई में अधिकतम हिस्सेदारी की। इसी सोच के तहत कांग्रेस और भाजपा से अलग हटकर कई धाराएं अपनी दिशा तलाश रही हैं जिसमें मायावती से लेकर ममता बनर्जी और शरद पवार का नाम मुख्य रूप से शामिल है। चुंकि मायावती के पास फिलहाल खोने के लिये कुछ भी नहीं बचा है लिहाजा अगर वह ‘भूमि परा कर गहत अकासा’ यानि जमीन से उठकर पूरे आसमान को पकड़ने का प्रयास कर रही है तो इसमें कुछ भी गलत या अस्वाभाविक नहीं है। वैसे भी मौजूदा राजनीतिक हालातों में बसपा के पास दोबारा सोशल इंजीनियरिंग की उस रणनीति को आजमाने का मौका है जिसके दम पर उसने पिछले दशक में यूपी में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। अगर यह रणनीति कामयाब रही तो तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने का बसपा के पास इस बार बेहतरीन मौका है जिसे सिर्फ अपने अस्तित्व पर आए तात्कालिक खतरे से डर कर गंवाना किसी भी लिहाज से कतई उचित नहीं होगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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