कहते हैं कि समूचा संसार लेन-देन पर ही टिका हुआ है। ग्रंथों में पुनर्जन्म और कर्म-फल का जो सिद्धांत बताया गया है वह भी व्यवहारिक तौर पर लेन-देन से ही जुड़ा हुआ है। लिहाजा बात चाहे व्यक्ति की हो या प्रकृति की। लेन-देन में संतुलन बनाए रखना आवश्यक भी है, अपेक्षित भी और अनिवार्य भी। लेकिन प्रकृति के इस सनातन सत्य को झुठलाने में जुटे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। वे सिर्फ लेना चाहते हैं, लेकिन बदले में कुछ देना उन्हें कतई गवारा नहीं होता। हालांकि यह इंसानी फितरत है कि जहां से उसे पाने की उम्मीद होती है वहां पूरी झोली खोलकर बैठ जाता है लेकिन जब देने की बारी आती है तो जेब में बटुआ इस बुरी तरह अटक जाता है कि निकाले नहीं निकलता। लेकिन फिर भी लोग कुछ पाने के लिये कुछ ना कुछ देते ही हैं। बेशक मन मसोसकर, पूरी तरह जांच परख कर और जमकर मोल-भाव करने के बाद ही सही। लेकिन केजरीवाल की रीत उल्टी है। उनकी नीति तो यही दिखाई पड़ती है कि अव्वल तो किसी को कुछ नहीं देना और जिससे कुछ पाना है उसे तो निश्चत ही कुछ भी नहीं देना। मिसाल के तौर पर केजरीवाल साहब अपनी आम आदमी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार करने के लिये बुरी तरह लालायित हैं। खास तौर से उत्तर प्रदेश पर उनकी पैनी नजरें गड़ी हुई हैं। हो भी क्यों ना। आखिर लोकसभा का चुनाव लड़ने वे भी तो पहुंचे ही थे वाराणसी। लेकिन उसमें मिली हार की टीस आज भी कहीं ना कहीं उनके दिल को कचोट रही होगी। तभी अब वे संभल कर काम कर रहे हैं। फिलहाल उनकी पार्टी की सक्रियता दिल्ली से सटे पश्चिमी यूपी के इलाकों में अधिक देखी जा रही है। इनकी दिली-ख्वाहिश है कि दिल्ली वालों की तरह इस इलाके के लोग भी इन्हें ही अपना नेता मानें और इनकी ही पार्टी के पक्ष में मतदान करें। लेकिन इसके बदले में वे यहां के लोगों को कुछ भी नहीं देना चाहते। यहां तक कि इन इलाकों के लोगों को पहले से ही दिल्ली में पढ़ाई और दवाई की जो सहूलियत मिली हुई उस पर भी इन्होंने अंकुश लगा दिया। बकायदा सरकारी आदेश जारी कर दिया गया कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में दिल्ली के मतदाताओं को ही इलाज में प्राथमिकता दी जाए और इसके अलावा किसी को भी मुफ्त जांच, दवा या भर्ती की सहूलियत ना दी जाए। चुंकि यह आदेश यूपी से सटे दिल्ली के कड़कड़डूमा इलाके में स्थित गुरू तेगबहादुर अस्पताल में भी लागू हुआ जिसकी सीधी मार पश्चिमी यूपी के लोगों पर ही पड़ी क्योंकि उनके पास दिल्ली का मतदाता पहचान पत्र नहीं होने के कारण पहले से चल रहा इलाज भी रोक दिया गया। खैर, गनीमत रही कि अब दिल्ली उच्च न्यायालय ने राजधानी को मिनी इंडिया का नाम देते हुए यहां इस तरह के तुगलकी फरमानों को लागू करने से इनकार कर दिया है। लेकिन अदालत के इस इनकार के बावजूद केजरीवाल सरकार यूपी के लोगों को चिकित्सा की सहूलियत से वंचित करने के लिये अब सुप्रीम कोर्ट का रूख करने की बात कह रही है। यानि यूपी के लोगों से उन्हें अपेक्षाएं तो भरपूर हैं लेकिन स्वेच्छा से सुई के नोंक बराबर सहूलियत देना भी गवारा नहीं है। खैर, उनके इस कदम को दिल्ली वालों के हित में बताकर मामले के दूसरे पहलू को उजागर किया जा सकता है। लेकिन वह भी तब किया जा सकता था जब वे दिल्ली के लोगों को ही सरकारी खजाने से कुछ सहूलियत देना गवारा करते। इस लिहाज से देखें तो केजरीवाल की रीति-नीति की कलई तेल के खेल में पूरी तरह खुल गई है। दरअसल बीते दिनों दिल्ली, यूपी, पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ की एक संयुक्त बैठक हुई जिसमें तय हुआ कि इन पांचो जगह डीजल-पेट्रोल की कीमतें एक समान की जाएंगी ताकि आम लोगों को राहत मिल सके। लेकिन जब केन्द्र सरकार ने डीजल-पेट्रोल की कीमतों में ढ़ाई रूपए की कटौती करते हुए राज्य सरकारों से भी ढ़ाई रूपये की कमी करने की गुजारिश की तो बाकी राज्यों ने तो लोगों को पांच रूपये प्रति लीटर की राहत दे दी लेकिन केजरीवाल सरकार ने अपनी ओर से लोगों को राहत देने के बजाय ऐसा शगूफा छोड़ दिया जिससे लगे कि वह आम लोगों को राहत दिलाने के लिये बुरी तरह परेशान है। केजरीवाल ने केन्द्र की ओर से की ढ़ाई रूपये की कटौती को नाकाफी बताते हुए मांग कर दी कि उसे कम से कम दस रूपये प्रति लीटर की कटौती करनी चाहिये। अपनी ओर से वैट में कटौती करने के बजाय वे चारों ओर ढ़ोल बजाते फिर रहे हैं कि केन्द्र ने लोगों को बेवकूफ बनाया है वर्ना अगर वाकई उसे लोगों की परवाह होती तो वह ढ़ाई के बजाय दस रूपये की कटौती करता। यानि देना कुछ नहीं और गाल बजाना जोर-शोर से। देने के नाम पर तो उनके हाथ तो दिल्ली के उन सफाई कर्मचारियों का वेतन भी आसानी से नहीं निकलता जिनकी पहचान यानि झाड़ू को इन्होंने अपनी पार्टी का चुनाव निशान बनाया हुआ है। नतीजन आए दिन यहां कूड़ा-कचरा उठानेवालों की हड़ताल होती रहती है और पूरी राजधानी सड़ांध मारते कूड़े का ढ़ेर दिखाई पड़ती है। लेकिन मसला है कि केजरीवाल को समझाए कौन? क्योंकि वह ऐसे समुदाय से आते हैं जो किसी को गाली देने से पहले भी सौ-बार सोचता है कि- देना क्यूं? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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