शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

‘पराई चुपड़ी पर टिकी ललचाई निगाहें’

‘पराई चुपड़ी पर टिकी ललचाई निगाहें’

बेशक बाबा फरीद कह गये हों कि ‘रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चुपड़ी ना ललचावे जी।’ लेकिन कोई माने तब ना। आज कल चिराग लेकर ढ़ूढ़ने से भी ऐसा कोई नहीं मिलता जो अपनी चुपड़ी से संतुष्ट हो। ऐसे में रूखी-सूखी से संतुष्ट हो जानेवाले को कौन तलाशे, क्यों तलाशे? आलम यह है कि सबकी निगाहें दूसरों की थाली पर ही टिकी हैं। जिनकी थाली में पहले से ही चुपड़ी पड़ी है वह भी दूसरों को रूखी-सूखी हजम नहीं होने देना चाहते और जिनके हिस्से में रूखी-सूखी आई है वे दूसरों की चुपड़ी में मिट्टी डालने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी थाली से अधिक चिंता लोगों को पराई थाली की सता रही है। अपना खाना खराब हो तो हो, मगर दूसरे का जायका पहले बिगाड़ने में सभी जुटे हुए हैं। इसी का नतीजा है कि सबकी अपनी थाली लगातार बिगड़ती जा रही है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि अपनी थाली बचाने के बजाय दूसरे की थाली का समीकरण समझने और उसके मुताबिक अपने मुनाफे का गुणा-भाग करने में ही सभी मशगूल दिख रहे हैं। इस उठापटक और खुराफाती खुरपेंच ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को बेहद दिलचस्प मोड़ पर ला दिया है। इन पांच चुनावी राज्यों में से दो में कांग्रेस, दो में राजग और एक में सपा की सरकार है। लिहाजा असली मुकाबला भले ही इन दलों के बीच ही दिख रहा हो लेकिन इन तीनों में ही अपनी थाली बचाने से ज्यादा दूसरे का जायका बिगाड़ने की ऐसी होड़ मची है कि अब तीसरी थाली पर ललचाई नजरें गड़ाने के अलावा इसके पास दूसरा कोई विकल्प ही बचा है। मिसाल के तौर पर यूपी की ही बात करें तो अपने परंपरागत वोटबैंक की चिंता में कोई दुबला नहीं हो रहा। सबको चिंता सता रही है उन वोटों की जो उन्हें किसी सूरत में हासिल नहीं हो सकती। तीसरी थाली के उन पकवानों की महक ने सबको मदहोश किया हुआ है और सबको उम्मीद है कि अगर तीसरी थाली थोड़ी सी वजनदार निकल आये तो उनका खाना खराब होने से बच जायेगा। भाजपा का पूरा समीकरण अल्पसंख्यक वोटों के बंटवारे और बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण पर टिका है जबकि सायकिल की हैंडिल पकड़ने का हाथ को मौका दिए जाने के पीछे अल्पसंख्यकों को एकजुट करने के अलावा सवर्ण वोटबैंक में सेंध लगाने की सोच ही छिपी हुई है। लेकिन एक तरफ भाजपा की रणनीति में ऐसा पेंच फंसा है कि ना तो किसी एक पक्ष में अल्पसंख्यकों की एकजुटता उसे अपने लिये फायदेमंद दिख रही है और ना ही ऐसा हुए बगैर बहुसंख्यकों का प्रतिक्रियात्मक ध्रुवीकरण होना संभव हो पा रहा है। लिहाजा उसकी थाली का जायका अब बसपा के समीकरण पर आधारित हो गया है। अगर बसपा ने अल्पसंख्यकों में ठीक-ठाक सेंध लगा ली तो ठीक वर्ना अगले पांच साल फिर हारे को हरिनाम का ही सहारा रहेगा। दूसरी ओर सपा भी सिर्फ अपने परंपरागत वोटबैंक के सहारे चुनावी नैया पार कर पाती तो हाथ का सहारा ही क्यों लेती? उसे बेहतर पता है कि रात में राहें रौशन करने के लिये सिर्फ चांद के भरोसे नहीं रहा जा सकता। लेकिन अपनी रौशनी उसे तभी राहें दिखा सकती हैं जब भाजपा के टाॅर्च की रौशनी को आंखों पर पड़ने से रोका जाये। वर्ना आंखें चुंधिया गईं तो दिन में भी दिखना मुश्किल हो सकता है। लिहाजा उसका जायका तभी सुधर सकता है जब भाजपा की थाली में बसपा का हाथी, सूंढ़ से धूल डालने में कामयाब हो सके। यानि सबका समीकरण दूसरों का खेल बिगड़ने पर ही आधारित दिख रहा है। लेकिन अपने दम पर दूसरे का खेल बिगाड़कर अपना खेल बनाने की हैसियत में कोई नहीं है। सबको तीसरे पक्ष से मजबूत हस्तक्षेप की दरकार है। यही हाल पंजाब और गोवा का भी है जहां तीसरी ताकत की निर्णायक भूमिका पर सभी ललचाई निगाहें गड़ाए हुए हैं। इन दोनों ही सूबों में आप उसी भूमिका में है जो यूपी में बसपा की है। यानि आप का प्रदर्शन ठीक-ठाक रहे तो ही अकाली-भाजपा की आस को आधार मिल पाएगा। हालांकि दोनों सूबों में मतदान समाप्त हो चुका है लेकिन अभी सीना ठोंककर कोई यह दावा नहीं कर सकता है कि वह अपने दम पर बहुमत की बाधा को पार करने वाला है अथवा उसने विरोधी पक्ष को किस स्तर पर पटखनी देने में कामयाबी पाई है। इसकी वजह भी साफ है कि अपनी थाली को सजाने-संवारने के बजाय सभी दूसरों का जायका बिगाड़ने में ही जुटे थे ऐसे में तीसरे की थाली से अपनी बिगड़ी की भरपाई करने के अलावा किसी के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। हालांकि मणिपुर और उत्तराखंड में सतही तौर पर स्थिति थोड़ी अलग अवश्य दिख रही है लेकिन गहराई से परखने पर वहां भी तीसरी थाली के प्रदर्शन से ही विजेता का चयन हो पाने की तस्वीर दिख रही है। बेशक यह तीसरी थाली अलग से नहीं सजी है बल्कि दो थालियों में हुई बंदरबांट के नतीजे में ही तीसरे का सृजन हुआ है। लेकिन अब यह तीसरी थाली मुख्य दोनों थालियों की जीत-हार तय करने की स्थिति में आ गई है। खैर, किसी और की चुपड़ी पर बाकियों की ललचाई निगाहें कितनी ही मजबूती से क्यों ना गड़ी हों लेकिन इस संभावना को कतई खारिज नहीं किया जा सकता है एक-दूसरे की थाली में मिट्टी डालने वालों को आखिर में तीसरी थाली ही गच्चा दे जाए। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 
 @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

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