‘रहिमन विपदा हूं भली, जो थोरे दिन होय’
रहीम ने थोड़े दिनों के लिये आये उन कठिन व मुश्किल परिस्थितियों को इस लिहाज से बेहतर बताया है कि वे आती तो सीमित समय के लिये हैं लेकिन असीमित लोगों की भीड़ में शामिल दोस्तों और दुश्मनों की सटीक पहचान करा दे जाती है। वाकई विपदा के वक्त सिर्फ विरोधी ही अपना हिसाब चुकता करने का प्रयास नहीं करते बल्कि दोस्तों की भीड़ में शामिल दुश्मन भी अपना बदला लेने के लिये सक्रिय हो जाते हैं। फिलहाल ऐसी ही परिस्थिति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी घिरते दिख रहे हैं जिसमें विरोधियों की चैतरफा घेरेबंदी के बीच अब उन अपनों ने भी उन पर प्रहार करने का जुगाड़ तलाशना शुरू कर दिया है जो अब तक उनके प्रभाव के सामने विरोध करने के मौके का अभाव झेल रहे थे। हालांकि जिन कठिन परिस्थितियों का मोदी को सामना करना है उसका वक्त भी उन्होंने ही मुकर्रर किया है, जमीन भी उन्होंने ही तैयार की है और वार के लिये हथियार का चयन भी उन्होंने ही किया है। लिहाजा अब जबकि जंग छिड़ने में सिर्फ पंद्रह दिन का वक्त बच गया है तब इसका सामना तो उन्हें करना ही होगा। वापसी का कोई रास्ता छोड़ना तो वैसे भी उनकी फितरत में नहीं है। लिहाजा टक्कर तो होगी। हिसाब तो मांगा ही जाएगा। आखिर पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत कर देने का वायदा भी तो उन्होंने ही किया था। हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रूपया आने की बात को भले ही चुनावी जुमला बताकर पल्ला झाड़ लिया गया हो। लेकिन इस दफा तो बचने की वह राह भी नहीं है क्योंकि पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत करने की बात वे लगातार करते आ रहे हैं। उनके इस दावे ने ही सियासी टकराव की ऐसी जमीन तैयार कर दी है जिस पर खड़े होकर विरोधियों के हमले का सामना करने के अलावा अब उनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है। हालांकि लंबी-चैड़ी आंकड़ेबाजी में उलझने के बजाय सीधे-सादे शब्दों में समझा जाये तो नोटबंदी के कारण जितनी धनराशि को प्रचलन से बाहर किया गया था उसमें से तकरीबन दो-तिहाई बैंकों में जमा कराया जा चुका है और जितनी धनराशि से देश की पूरी अर्थव्यवस्था संचालित हो रही थी उसका आधा हिस्सा नये नोटों की शक्ल में लोगों को लौटाया जा चुका है। यानि पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत करने के वायदे का आधा हिस्सा तो पूरा हो चुका है। लिहाजा प्रधानमंत्री की नजर से देखें तो ग्लास आधा भरा जा चुका है जबकि वायदा पूरा करने के लिये मांगे गये वक्त का दो-तिहाई हिस्सा गुजर जाने के बावजूद विरोधियों के नजरिये से ग्लास अभी तक आधा खाली ही है। दूसरी ओर जिस रफ्तार से काम चल रहा है उसे देखते हुए यह उम्मीद करना ही बेकार है कि अगले 15 दिनों में उतना काम पूरा कर लिया जाएगा जितना बीते 35 दिनों में किया जा चुका है। यानि मोदी की नजर और विरोधियों के नजरिये के बीच भीषण संघर्ष तो तय ही है। इसके लिये विरोधियों ने पूरी तैयारी भी कर रखी है। मोदी की वायदाखिलाफी के खिलाफ यूपी में चैतरफा चढ़ाई होनेवाली है तो बिहार में लालू के लाल भी कमाल कर दिखाने के लिये लालायित हैं। पश्चिम बंगाल में ममता के मुरीदों की टोली सड़क पर उतरेगी तो दिल्ली में आप के जनाबों की फौज पूरा हिसाब मांगेगी। कांग्रेस ने तो इसे अब तक का सबसे बड़ा घोटाला बताना अभी से शुरू कर दिया है। जाहिर है कि पचास दिन पूरा होने के बाद उसके विरोध का जलवा-जलाल देखने लायक होगा। इसके अलावा और भी कई छोटे मियां व बड़े मियां हैं जिनके तेवरों की तान पूरा आसमान सिर पर उठाने का अक्सर ऐलान करती रहती हैं। यानि समग्रता में देखें तो विरोधियों के हौसले पूरी तरह बुलंद हैं क्योंकि अब मामला सिर्फ नोटबंदी का नहीं है। बात उस बात की है जो बातों ही बातों में कह तो दी गयी है लेकिन उसके तय वक्त पर पूरा हो पाने की बात बनती नहीं दिख रही। हालांकि विरोधियों के एकजुट हमले का सामना मोदी पहले भी करते रहे हैं और इस बार भी कर ही लेंगे। लेकिन असली दर्द तो अपनों की ओर से दिये जाने की संभावना है जो मौके की ताक में पहले से ही बैठे हुए हैं। बताया जाता है कि ना सिर्फ मार्गदर्शकों का मंडल कुपित होकर कमंडल उठाने के लिये तैयार बैठा है बल्कि मौजूदा केबिनेट के उन रत्नों की लालिमा भी लगातार बढ़ती जा रही है जिन्हें लत्ते में लपेटकर किनारे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी थी। यानि इम्तहान लेने की तैयारी में अपने भी हैं और बेगाने भी। इसमें बेगानों के लिये वक्त तो मोदी ने खुद ही मुकर्रर कर दिया है जबकि सगे-संबंधियों को संगठन की ओर से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की शक्ल में मौका और मंच मुहैया कराया जा रहा है। बेगाने हिसाब मांगेंगे 28 से और अपनों को हिसाब देना होगा आठ को। दोनों के बीच फासला दस दिनों का रहेगा। लिहाजा इन दस दिनों के सीमित समय में ही अपने-परायों की पूरी पहचान हो जानी है। आक्रमण के पहले चरण की सफलता ही तय करेगी अंदरूनी हमले की आक्रामकता। टकराव आधा खाली बनाम आधा भरे का होना है जिसके बारे में फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि ‘अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला, जिस दिये में जान होगी वह जला रह जायेगा।’ जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # NAVKANT THAKUR
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