सोमवार, 21 नवंबर 2016

‘सियासी सामंजस्य पर भारी नेतृत्व की दावेदारी’

‘सियासी सामंजस्य पर भारी नेतृत्व की दावेदारी’

नोटबंदी के बाद देश में पैदा हुए राजनीतिक हालातों को सतही तौर पर देखा जाये तो आम लोगों को भुगतनी पड़ रही परेशानियों की आड़ लेकर केन्द्र की मोदी सरकार पर चैतरफा सियासी वार का सिलसिला लगातार जारी है। तमाम विरोधियों ने संसद से लेकर सड़क तक भारी कोहराम मचाया हुआ है। कोई नोटबंदी का फैसला वापस लिये जाने की मांग कर रहा है तो कोई इसे लागू करने की मियाद बढ़ाने की वकालत कर रहा है। कोई इस पूरे खेल में भारी घोटाले की बात कह कर संयुक्त संसदीय समिति से इसकी जांच कराने की अपील कर रहा है तो कोई इसकी तुलना उरी में हुए आतंकी हमले से करते हुए आक्रोश जता रहा है कि जितने जवान उरी में शहीद हुए उससे दोगुनी तादाद में आम लोगों को सरकार के इस फैसले के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो विपक्षी दलों को मोदी सरकार का यह फैसला कतई रास नहीं आया है लिहाजा वे खुलकर इसकी मुखालपत करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। यहां तक कि सरकार के भीतर भी असंतोष का भाव स्पष्ट दिख रहा है लेकिन गनीमत है कि सत्ता के साझीदारों ने भावी राजनीतिक लाभ के लोभ में अपनी जुबान बंद रखना ही बेहतर समझा है। हालांकि शिवसेना को अपवाद के तौर पर अवश्य गिना जा सकता है जो केन्द्र से लेकर महाराष्ट्र तक की सत्ता में साझेदारी के बावजूद खुल कर सरकार के फैसले का विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। यानि पीड़ित सभी हैं। बिलबिलाहट हर तरफ है। लेकिन पूरे मामले का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि सैद्धांतिक तौर पर सरकार के फैसले का पुरजोर विरोध करनेवाली पार्टियां एकजुट होकर अपनी बात रखने के प्रति जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर सरकार के इस फैसले के खिलाफ विपक्षी खेमे को लामबंद करने का प्रयास कांग्रेस से लेकर तृणमूल कांग्रेस ने भी किया लेकिन ना तो तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की अगुवाई में सरकार की मुखालफत करने के लिये सहमति बन पायी और ना ही कांग्रेस को आगे रहने का मौका देने के प्रस्ताव पर आम सहमति की मुहर लग सकी। ममता ने बीती को बिसार कर वामदलों को भी अपने साथ जुड़ने का आग्रह किया लेकिन वामपंथियों को यह प्रस्ताव रास नहीं आया। हालांकि अप्रत्याशित तौर पर शिवसेना ने अवश्य ममता की अगुवाई में राष्ट्रपति भवन तक हुए विरोध मार्च में हिस्सेदारी की लेकिन उसके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। कांग्रेस उसे वैसे भी अपने साथ जोड़ना गवारा नहीं कर सकती और बाकी कोई अन्य ऐसा खेमा अस्तित्व में ही नहीं आया था जिसने सरकार के खिलाफ खुलकर मैदान में उतरने की रणनीति अमल में लायी हो। काफी हद तक शिवसेना सरीखी हालत ही दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की भी रही जिसका एकसूत्रीय एजेंडा प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ मुखर दिखना ही रहता है। लेकिन कांग्रेस के साथ समानांतर दूरी बनाये रखना भी उसके लिये आवश्यक है वर्ना मोदी के खिलाफ बनारस में लोकसभा चुनाव लड़के अरविंद केजरीवाल ने जिन सियासी संभावनाओं का बीजारोपण किया था उसका भविष्य में कुछ परिणाम दे पाने की उम्मीद भी समाप्त हो जाएगी। साथ ही अगामी विधानसभा चुनावों का समीकरण भी विपक्षी एकता की राह में बाधक के तौर पर ही सामने आया है क्योंकि कांग्रेस के नवगठित खेमे से अगर सपा-बसपा ने दूरी बनाये रखी है तो इसकी काफी बड़ी वजह यूपी की जमीनी लड़ाई भी है। यानि विपक्षी खेमे के पूरे गुणा-भाग पर समग्रता पूर्वक निगाह डाली जाये तो इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि चुनावी तकाजों ने सैद्धांतिक सियासी एकता की राह में नेतृत्व को लेकर गतिरोध उत्पन्न कर दिया है और कोई भी दल आसानी से किसी अन्य का नेतृत्व स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं दिख रहा है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर इस बात से सभी सहमत हैं कि भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत महागठजोड़ की जरूरत है क्योंकि विरोधी वोटों के बिखराव के कारण ही महज 32 फीसदी वोट पाने के बावजूद पिछले लोकसभा चुनाव में अपने दम पर पूर्ण बहुमत अर्जित करने में भाजपा को कामयाबी मिल गयी थी। लेकिन मसला नेतृत्व को लेकर अटक रहा है। पिछली दफा समाजवादी कुनबे को इकट्ठा करके सपा ने नये गठजोड़ का बीजारोपण भी किया तो बाकियों की महत्वाकांक्षा की तपिश ने उस बीज का ही नाश कर दिया। अब एक बार फिर कांग्रेस ने गैर-भाजपाई गठजोड़ की धुरी के तौर पर खुद को प्रस्तुत किया तो वामदलों सहित गिनती गिनाने के लिये कुल ग्यारह दलों ने उसकी बैठक में शिरकत अवश्य की लेकिन संसद की दहलीज के भीतर आते-आते ‘बिछड़े सभी बारी-बारी’ की स्थिति बन गयी। वहीं नये गठजोड़ के संभावित नेतृत्वकर्ताओं की सूची के कई बड़े नामों ने नोटबंदी के मसले को अपनी संभावना मजबूत करने के हथियार के तौर पर आजमाने से परहेज बरतते हुए सरकार के कदम का समर्थन करना ही मुनासिब समझा। यानि नेतृत्व के अभाव ने सियासी सामंजस्य का माहौल बनने ही नहीं दिया जिसके नतीजे में नोटबंदी के हथियार का वार अब सरकार का बाल बांका करने में भी बेकार साबित होता ही दिख रहा है। लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। लिहाजा गैर-भाजपाई गठजोड़ की आवश्यकता के लिये किसी सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता के आविष्कार की संभावना बदस्तूर बरकरार है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur 

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