‘इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये’
‘इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये, टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये, आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं, आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये।’ वाकई मुनव्वर राणा की लिखी यह पंक्तियां मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर बेहद सटीक तरीके से यह बताती हुई महसूस होती हैं कि इश्क को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने की हिचकिचाहट का नतीजा कतई सकारात्मक नहीं हो सकता है। वास्तव में केवल इश्क कर लेना ही काफी नहीं है, उसका इजहार भी उतना ही जरूरी है। तभी इश्क को उसकी मंजिल हासिल हो सकती है। वर्ना सैद्धांतिक तौर पर इश्क करने और व्यावहारिक तौर पर इजहार से बचते रहने के नतीजे की झलक जनता परिवार के घटक दलों की बिहार विधान परिषद के चुनाव में हुई करारी फजीहत में दिख ही गयी है। वास्तव में देखा जाये तो छह दलीय जनता परिवार के विलय की प्रक्रिया को फिलहाल बिहार विधानसभा चुनाव तक के लिये टाले जाने के बाद इतनी सहमति तो बन ही गयी थी कि बिहार में इस बार राजद व जदयू आपस में गठजोड़ करके चुनाव लड़ेगे और इस गठबंधन की ओर से नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। लिहाजा विधानसभा चुनाव से पहले सेमीफाइनल के तौर पर देखे जा रहे विधान परिषद के चुनाव में इन दोनों दलों का आपस में गठजोड़ करके मैदान में उतरना लाजिमी ही था। लेकिन मसला यह है कि सैद्धांतिक तौर पर विलय तक की सहमति बन चुकने के बावजूद व्यावहारिक तौर पर दोनों दलों के नेता गठबंधन को सफल बनाने के लिये कांधे से कांधा मिलाकर चलना भी गवारा नहीं कर रहे हों तो ऐसी सूरत में इस गठजोड़ को कैसा चुनावी नतीजा भुगतना पड़ सकता है इसकी झलक विधान परिषद में नकारात्मक चुनावी नतीजों के तौर पर सामने आना वाजिब ही है। आलम यह है कि राजद व जदयू के शीर्ष नेता भले ही गठबंधन व विलय के प्रस्तावों को स्वीकार कर चुके हों लेकिन जमीनी स्तर पर इन दोनों के बीच स्नेह, समर्पण व विश्वास के रिश्ते का कहीं नामोनिशान भी नहीं दिख रहा है। ना तो लालू यादव के साथ खुलेदिल से मंच साझा करना नीतीश को गवारा हो रहा है और ना ही वे राजद के साथ तालमेल बनाकर चुनावी रणनीतियां तय करना जरूरी समझ रहे हैं। यहां तक कि विधानसभा चुनाव की हवा तैयार करने के मकसद से जदयू ने पटना सहित समूचे बिहार को बैनर-पोस्टर से पाट देने की जो रणनीति अपनायी है उसमें भी राजद को पूरी तरह हाशिये पर ही रखा गया है। समूचे बिहार में ऐसा बैनर चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं दिख रहा है जिसमें नीतीश व लालू को एक साथ बराबर की जगह दी गयी हो। तभी तो विधान परिषद का चुनावी नतीजा सामने आने के बाद राजद के सबसे सम्मानित नेताओं में शुमार होनेवाले रघुवंश प्रसाद सिंह भी कुल 24 में से महज दस सीटों पर ही महागठबंधन को जीत हासिल हो पाने के निराशाजनक परिणाम के लिये परोक्ष तौर पर नीतीश की चुनावी रणनीतियों को ही जिम्मेवार ठहराने से खुद को नहीं रोक सके। रघुवंश ने बेलाग लहजे में यह बताने से हिचक नहीं दिखाई है कि काफी पहले ही गठजोड़ की नींव तैयार हो जाने के बावजूद अभी तक जमीनी स्तर पर इस एका की कोई तस्वीर नहीं दिख रही है। बकौल रघुवंश, ना तो कोई साझा कार्यक्रम तैयार हुआ है और ना ही साझा चुनाव प्रचार की कोई रणनीति बनायी गयी है। जाहिर है कि जब रघुवंश सरीखे नेता भी इश्क के इजहार के अभाव का रोना रो रहे हों तो जमीनी स्तर पर इस मामले में मतदताओं के बीच किस कदर भारी असमंजस की स्थिति होगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे भी कांग्रेस व सपा के दबाव में नीतीश को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने पर सहमति जताने के फौरन बाद ही लालू द्वारा सांकेतिक लहजे में इसे जहर पीने सरीखा फैसला बताये जाने और सीटों के बंटवारे को लेकर दोनों पक्षों के बीच जारी व्यापक गतिरोध के मद्देनजर इस गठबंधन के सबल, प्रबल व दीर्घायु साबित हो पाने के प्रति अनिश्चितता का माहौल पहले से ही बना हुआ है। ऐसे में चुनावी तैयारी, जनसंपर्क व प्रचार अभियान में भी दोनों पक्षों के बीच स्पष्ट दिख रही दूरी के कारण जमीनी स्तर पर इस गठबंधन की स्वीकार्यता पर ग्रहण लगना स्वाभाविक ही है। वैसे भी लालू के यादव वोटबैंक और नीतीश के स्वजातीय वोटबैंक के अलावा अल्पसंख्यक समुदाय के एकजुट वोट को मिलाकर सत्ता का समीकरण साधने के मकसद से गठित किये गये इस महागठजोड़ के रचयिताओं को जब आपस में ही एक दूसरे पर विश्वास नहीं हो पाया है तब सोचने की बात यह है कि इनके रिश्तों की इस दूरी व कड़वाहट को जमीनी स्तर पर कैसे पाटा जा सकता है। हालांकि गठजोड़ का सैद्धांतिक फैसला हो जाने के बाद उम्मीद तो यही है कि इनके बीच सीटों के बंटवारे का समझौता भी देर-सबेर हो ही जाएगा लेकिन अगर समय रहते गठबंधन के साथियों के प्रति स्नेह व विश्वास का अभाव दूर करके ये दोनों मतदाताओं के बीच अपने अटूट रिश्ते का भरोसा जगाने में कामयाब नहीं हो सके तो सेमीफाइनल माने जानेवाले विधान परिषद के नतीजों की ही विधानसभा चुनाव के फाइनल मुकाबले में भी पुनरावृति होने की संभावना को कतई खारिज नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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