सोमवार, 6 जुलाई 2015

‘सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया’


इन दिनों कांग्रेस की कसमसाहट देखते ही बनती है। केन्द्र में सत्ता परिवर्तन होने के बाद से ही कांग्रेस में आत्मचिंतन व आत्मावलोकन का दौर तो बदस्तूर जारी है लेकिन नये निजाम के एक साल के कार्यकाल को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जारी बहस में पार्टी का पक्ष रखने के क्रम में तमाम शीर्ष कांग्रेसी रणनीतिकारों द्वारा पेश की जा रही दलीलों ये यह तो स्पष्ट है कि पार्टी को अपनी उन गलतियों का बेहतर एहसास हो चुका है जिसकी वजह से उसे मौजूदा दुर्गति झेलनी पड़ रही है। सभी कांग्रेसी नेता समवेत स्वर में जो बात हर मंच से बताने की कोशिश कर रहे हैं उसके मुताबिक केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने पिछले एक साल में बातें चाहें जितनी परोसी हों लेकिन नीतिगत व शासनिक-प्रशासनिक स्तर पर उसने कोई नयी पहलकदमी नहीं की है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मानें तो मोदी सरकार ने तमाम उन्ही नीतियों को आगे बढ़ाया है जिसका आगाज पूर्ववर्ती कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने किया था। पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह तो एक कदम आगे बढ़कर यह बताने से भी नहीं हिचक रहे हैं कि नीतियों की कसौटी पर परखने से मौजूदा सरकार हर मामले में पूर्ववर्ती संप्रग सरकार के तीसरे कार्यकाल का ही आभास दे रही है। इसी प्रकार पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम भी मानते हैं कि अपनी नीतियों को भुनाने में कांग्रेस कामयाब नहीं हो पायी जिसका उसे भारी चुनावी खामियाजा भुगतना पड़ा। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो कांग्रेस का पूरा कुनबा इस बात पर पूरी तरह सहमत है कि डाॅ मनमोहन सिंह की अगुवाईवाली संप्रग सरकार ने देशहित में बेहतरीन दूरगामी नीतियां बनाने में तो कोई कमी नहीं छोड़ी थी, लेकिन कसर रह गयी उसके बारे में लोगों को बताने में और सियासी तौर पर उसे भुनाने में। दूसरी ओर मोदी सरकार ने अपनी ओर से नयी नीतियां बनाने व उन्हें लागू कराने में भले कोई दिलचस्पी ना दिखायी हो लेकिन संप्रग सरकार की बोयी हुई फसल को ही खाद-पानी देकर पूरे पैदावार पर अपना एकाधिकार जताने में वह जरूर बाजी मार ले गयी है। कायदे से देखा जाये तो भले ही प्रधानमंत्री मोदी यह दावा कर रहे हों कि पिछले 365 दिनों में उनकी सरकार ने इतना काम किया है कि उसे पूरी तरह गिनाने के लिये 365 घंटे भी कम पड़ जाएंगे। लेकिन सच तो यही है कि कथनी व बकैती की अनदेखी कर दी जाये तो करनी की कसौटी पर अधिकांश मामलों में पिछली सरकार से यह कतई अलग नहीं है। कालाधन के खाताधारकों का नाम उजागर करना ना पिछली सरकार को गवारा था ना मौजूदा सरकार को है। भाजपा के मूलभूत सैद्धांतिक विचारों को लागू करना ना पिछली सरकार को गवारा था ना इस सरकार को है। विदेशी निवेश के सहारे विकास का सपना पिछली सरकार भी देख रही थी और यह भी देख रही है। बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद को सुलझाने का ठीक वही मसौदा इस सरकार ने संसद से पारित कराया है जो पिछली सरकार ने तैयार किया था। यही हालत जीएसटी की भी है और पेंशन व बीमा के विधेयकों की भी। न्यूनतम पेंशन एक हजार करने का मसौदा पिछली सरकार ने तैयार किया था जिसे इस सरकार ने यथावत लागू किया है। रक्षा खरीद के मामले में भी पिछली सरकार के पदचिन्हों का ही अनुसरण किया जा रका है। इसके अलावा आधार योजना की बात करें या कौशल विकास से जुड़े उस्ताद योजना की, पीपीपी माॅडल को हर क्षेत्र में बढ़ावा देने की बात हो या संसाधन व अवसंरचना के लिये निजीकरण की राह पकड़नी हो, लाभार्थी के खाते में सब्सिडी के प्रत्यक्ष हस्तांतरण की नीति हो या असंगठित क्षेत्र को आसान ऋण मुहैया कराने की बात हो, तकरीबन हर मामले में अमल में लायी जा रही कार्ययोजनाओं की जड़ें पिछली सरकार द्वारा तैयार की गयी नीतियों में ही पैवस्त दिख रही हैं। यहां तक कि पाकिस्तान के साथ ‘क्षणे रूष्टा क्षणे तुष्टा’ की जो स्थिति पिछली सरकार के दौर में भी थी वही इस सरकार के दौर में भी है। चीन भी सार्वजनिक तौर पर यही बता रहा है कि देश की मौजूदा मोदी सरकार ने उसके सामने कोई भी ऐसी नयी पहलकदमी की पेशकश नहीं की है जिसके आधार पर इसे भारत की पिछली सरकार से अलग सोच का माना जाये। इन तमाम हकीकतों को करीब से देखने के बाद कांग्रेस की कसमसाहट में इजाफा होना लाजिमी ही है क्योंकि ये वहीं नीतियां हैं जिनकी खामियां गिनाकर मोदी ने देश की जनभावना को कांग्रेस के खिलाफ भड़काते हुए अपने लिये पूर्ण बहुमत का जुगाड़ किया था। यानि जब पकानेवाले को गाली और परोसनेवाले को पूरी थाली मिल रही हो तो खानसामे की निराशा का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन सियासी दस्तरखान का दस्तूर तो यही है कि पकाने से अधिक महत्वपूर्ण परोसने का काम होता है और जो परोसने में पिछड़ जाये उसे कहीं ठौर नहीं मिलता। बहरहाल परोसने में पिछड़ने का जो मलाल कांग्रेसियों की पेशानी पर परेशानी की लकीरें उकेर रहा है उसका पूरा इलाज तो चार साल के बाद ही संभव है लेकिन इन चार सालों में भी अगर परोसने की कला में सिद्धहस्तता लाने के बजाय केवल नकारात्मक राजनीति के तहत अपनी ही बनायी नीतियों का विरोध करने की रणनीति पर अमल जारी रखा गया तो सबकुछ लुटा कर होश में आने का भी शायद ही कोई फायदा मिल सके।

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