‘मित्र की मुश्किलों को ना समझें तो क्या करें’
ऊफा में नमो-नवाज की मुलाकात क्या हुई, दोनों तरफ की सनातन असंतुष्ट आत्माएं ऐसे नाराज हो गयीं जैसे शादी समारोह में अक्सर दूल्हे के फूफा नाराज नजर आते हैं। शादी में दूल्हे के फूफा नाराज ना हों ऐसा कैसे हो सकता है। बेशक वजह बेतुकी ही क्यों ना हो, उन्हें तो सिर्फ नाराज होने से मतलब है ताकि सबके सामने अपनी खास अहमियत जताई जा सके। ऐसी ही अहमियत की तलाश में इन दिनों भारत व पाकिस्तान में मौजूद तिकड़मियों, खुराफातियों व सनातन विरोधियों की जमात भी दिख रही है। मसलन भारत की बात करें तो केन्द्र में सत्तारूढ़ राजग के सबसे पुराने घटक शिवसेना से लेकर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस तक ने इस मुलाकात की पृष्ठभूमि, प्रासंगिकता, आवश्यकता व प्रामाणिकता पर सवालिया निशान खड़ा करने में कोई कोताही नहीं बरती है। साथ ही कश्मीर के अलगाववादी विचारधारा वाले संगठनों व नेताओं से लेकर उनके समर्थकों व हिमायतियों तक ने नमो-नवाज वार्ता में कश्मीर के मसले को तवज्जो नहीं दिये जाने व भावी वार्ता प्रक्रिया में खुद को दरकिनार किये जाने तक को लेकर अपनी खुली नाराजगी जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसी प्रकार पाकिस्तान में भी ऊफा वार्ता के बाद सामने आए संयुक्त बयान को लेकर भारी हाय तौबा मची हुई है। वहां भी सत्तापक्ष के काफी बड़े तबके से लेकर विपक्षी खेमे ने भी नवाज शरीफ को इस बात के लिये निशाने पर लिया हुआ है कि उन्होंने कश्मीर मसले को हाशिये पर छोड़कर बाकी मामलों पर बातचीत करने की जुर्रत कैसे की। साथ ही मुंबई पर हुए आतंकी हमले की जांच में पूरा सहयोग करने व इसके मुख्य आरोपी जकीउर रहमान लखवी की आवाज का नमूना साझा किये जाने पर बनी सहमति को लेकर भी पाकिस्तान में भारी बवाल कट रहा है। जाहिर है कि जब दोनों देशों के हितों को बराबर तवज्जो देते हुए महज पांच मसलों पर बनी परस्पर सहमति को लेकर सरहद के दोनों तरफ इस कदर हंगामे, मतभेद व बवाल का माहौल बन गया है तो इस वार्ता प्रक्रिया से हासिल परिणामों के अमल में आने को लेकर संदेह का माहौल बनना लाजिमी ही है। लेकिन सकारात्मक बात यह है कि दोनों देशों में इस वार्ता को लेकर जो भ्रम, अविश्वास व नकारात्मकता का माहौल बनाने की कोशिश हो रही है उससे ना तो भारत का जिम्मेवार सरकारी अमल विचलित दिख रहा है और ना ही पाकिस्तान के शीर्ष नीतिनिर्धारकों की सेहत पर कोई फर्क पड़ रहा है। सूत्रों की मानें तो भले ही दोनों देशों के भीतर नमो-नवाज वार्ता से हासिल परिणामों के अमल में आ पाने को लेकर भ्रम, संशय व असमंजस का नकारात्मक माहौल दिख रहा हो लेकिन सरहद के दोनों तरफ के शीर्ष नीतिनिर्धारक अमले के बीच परस्पर पूरी तरह सकारात्मक माहौल बना हुआ है। तभी तो जहां एक ओर पाकिस्तानी सेना ने सरहद पर जासूसी के लिये टांगे गये चीन निर्मित सीसीटीवी कैमरों को उतारना शुरू कर दिया है वहीं दूसरी ओर भारत ने भी पाकिस्तानी मछुआरों को रिहा करने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है। साथ ही दोनों ओर के असंतुष्ट व नाराज रसूखदारों द्वारा की जा रही भड़काऊ, भ्रामक व नकारात्मक बयानबाजी को आधिकारिक स्तर पर कतई तवज्जो नहीं दिया जा रहा है। वैसे भी जिन पांच मसलों पर ऊफा में नमो-नवाज के बीच बकायदा लिखित सहमति बनी है उनमें एक भी मसला ऐसा नहीं है जिसमें दोनों देशों का बराबर हित समाहित ना हो। मसलन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों व सरहद पर सैन्य अधिकारियों के बीच द्विपक्षीय बातचीत का सिलसिला शुरू करने पर बनी सहमति में दोनों का बराबर का हित सुरक्षित है। इसी प्रकार दोनों देशों द्वारा बंदी बनाए गये मछुआरों व उनकी नावों को पंद्रह दिनों के भीतर छोड़े जाने की जो सहमति बनी है उसमें भी दोनों ओर का पलड़ा संतुलन की ही अवस्था में है। पर्यटकों की आवाजाही को सरल व सुगम बनाने में भी दोनों देशों का बराबर का फायदा है। रहा सवाल कश्मीर के मसले का तो इस पर बातचीत के दरवाजे खुले ही हैं लेकिन इसे आपसी रिश्ते का अवरोधक बनने से रोकना व द्विपक्षीय बातचीत से सहमति के किसी फार्मूले की तलाश करने पर बनी परोक्ष सहमति भी दोनों देशों के दूरगामी हितों के लिये सकारात्मक ही है। वैसे भी गुलाम कश्मीर के प्रधानमंत्री द्वारा पिछले दिनों इस इलाके को सैद्धांतिक व व्यावहारिक तौर पर पाकिस्तान के सूबे का दर्जा दिये जाने पर एतराज जताए जाने के बाद अब पाकिस्तानी हुक्मरानों को भी बेहतर समझ आ गया है कि इस मामले पर होनेवाली बातचीत में अलगाववादी तत्वों को पक्षकार बनाने की जिद ठानना उनके लिये भी कतई हितकारी नहीं हो सकता है। बहरहाल एक ही वार्ता में दशकों पुरानी रंजिश के पूरी तरह समाप्त हो जाने की उम्मीद पालना तो बेवकूफी ही होगी लेकिन दोनों तरफ की सरकार अगर तमाम अपने-परायों का विरोध झेलते हुए भी इस बार बनी पांच सूत्रीय सहमति की सूची में शामिल तीन-चार मसलों को भी अमली जामा पहनाने में कामयाब रहती है तो इसे बड़ी कामयाबी का नाम देना कतई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी। वैसे भी दोस्ती का रिश्ता कायम हो रहा है तो दोनों पक्षकारों को परस्पर एक-दूसरे की कमियों, खामियों, कमजोरियों व परेशानियों को समझना ही होगा वर्ना उम्मीदों व अपेक्षाओं की भारी गठरी से अगर इस नवजात दोस्ती का दम घुटने की नौबत आई तो इसका दूरगामी नतीजा किसी के लिये कतई सकारात्मक साबित नहीं होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें