शनिवार, 25 जुलाई 2015

‘सवाल नींद का नहीं, मसअला है ख्वाबों का’

नवकांत ठाकुर
राहत इंदौरी साहब ने लिखा है कि ‘वो मेरा दोस्त भी है मेरा हमनवा भी है, वो शख्स सिर्फ भला ही नहीं बुरा भी है, सवाल नींद का होता तो कोई बात ना थी, हमारे सामने ख्वाबों का मसअला भी है।’ वाकई इन दिनों ख्वाबों का मसला बेहद अहम हो चला है। लोकसभा चुनाव के दौरान सत्ता के साथ ही व्यवस्था परिवर्तन के जो ख्वाब दिखाए गये वे अभी से ही हवा होते दिख रहे हैं। जिन बदलावों की उम्मीद में देश के मतदाताओं ने राष्ट्रीय राजनीति का पूरा समीकरण बदल दिया उनके पूरा होने की उम्मीद लगातार धुंधली होती जा रही है। ऐसे में अगर मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर लोग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं तो करते रहें। इनकी बला से। इन्होंने तो रामराज के ख्वाब दिखाये। सपनों का सुनहरा संसार दिखाया। तमाम मुश्किलों के हल का सब्जबाग नजरों के सामने परोसा, और वोट झटक लिया। अब अगर पूरी ठसक के साथ वे अपनी कमीज को कांग्रेस की कमीज से अधिक सफेद बताकर खुद पर उठ रहे हर सवाल से बचने की जुगत में दिख रहे हैं तो सिवाय अपना सिर पीटने के और किया भी क्या जा सकता है। कौन इन्हें बताये कि जनता ने इनको इसलिये नहीं चुना है क्योंकि ये उतने बुरे नहीं है जितने इनसे पहलेवाले थे। बल्कि इनको तो इस वायदे पर भरोसा करके पूर्ण बहुमत की ताकत देकर संसद में भेजा गया कि ना तो ये खुद भ्रष्टाचार करेंगे और ना ही किसी भ्रष्टाचारी को संरक्षण देंगे। लेकिन सत्ता में आने के एक साल के भीतर ही इनके छुपे रूस्तमों की जो कारस्तानियां सामने आ रही हैं उस पर इनके द्वारा धारण किया गया मौन व्रत वाकई किसी का भी दिल तोड़ने के लिये पूरी तरह पर्याप्त है। वैसे भी जिस कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को मतदाताओं ने पिछले आम चुनाव में जड़ से उखाड़ फेंका है उसकी अगुवाई करनेवाले डाॅ मनमोहन सिंह पर भी निजी तौर पर भ्रष्टाचार में संलिप्त होने का आरोप तो उनका बड़े से बड़ा दुश्मन भी नहीं लगा सकता। लेकिन जिस तरह उन्होंने अपने साथियों व सहयोगियों की कारगुजारियां सार्वजनिक हो जाने के बाद भी उसकी नैतिक जिम्मेवारी लेने, आरोपी के खिलाफ स्वतःस्फूर्त कार्रवाई करने या उसके बारे में एक शब्द भी बोलने से लगातार परहेज बरता उसी प्रकार ये भी महाराष्ट्र के चिक्की, बिस्कुट व टेंडर घोटाले, छत्तीसगढ़ के चावल घोटाले, मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले और राजस्थान के ललित गेट मामले सरीखे भाजपाशासित राज्यों के तमाम मसलों के प्रति मनमोहन के पदचिन्हों का ही अनुसरण करते दिख रहे हैं। माना कि आपने ‘खाऊंगा नहीं’ के वायदे को अब तक पूरी तरह निभाया है लेकिन हुजुर ‘खाने भी नहीं दूंगा’ के वायदे को क्यों भूल गये। खैर, माना कि विदेशों में जमा काला घन वापस लाने से हर किसी के खाते में 15 लाख रूपया जमा होने का वायदा महज चुनावी जुमला था। यह भी मान लिया कि हिन्दुस्तान को दुनिया का सबसे अव्वल देश बनाने के लिये पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक के हर चुनाव में आपको 25 साल तक लगातार जीत की दरकार है। लेकिन यह कैसे हजम हो सकता है कि जिस साबिर अली को संगठन में शामिल कराने बाद बकौल मुख्तार अब्बास नकवी, दाऊद इब्राहिम के भी भगवा खेमे में शामिल होने की उम्मीद पैदा हो गयी थी, वही साबिर अब इस कदर पाकसाफ हो गया है कि बिहार चुनाव में उसे खेवनहार की भूमिका सौंपने की पहलकदमी की जा रही है। जिस बाप-बेटी की पार्टी को शिवसेना सरीखे राजग के सबसे पुराने घटक दल सार्वजनिक तौर पर पाकिस्तान परस्त व अलगाववादियों का संरक्षक करार दे रहे हों उसके साथ गठजोड़ करके बनायी गयी सरकार के राज में जम्मू कश्मीर में जारी देशविरोधी व अलगाववादी गतिविधियों की अनदेखी कैसे की जा सकती है। अगर कांग्रेस ने व्यापम व ललित गेट के मामले में निराधार व बेमानी आरोपों के आधार पर सुषमा, वसुंधरा व शिवराज के इस्तीफे की जिद ठानकर संसद को बाधित किया हुआ है तो उसके आरोपों की जांच कराने के लिये संयुक्त संसदीय समिति गठित करने के फार्मूले पर विचार करने से भी इनकार करना कहां तक जायज है। हद तो यह है कि कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों द्वारा किये गये भ्रष्टाचार की काली कमाई का बड़ा हिस्सा गांधी-नेहरू परिवार तक पहुंचने का आरोप भाजपा की ओर से लगाया जाना तो जायज है लेकिन इडी द्वारा भगोड़ा घोषित किये गये ललित मोदी को सुषमा द्वारा मदद पहुंचाए जाने को राहुल गांधी अपराध बताएं तो उन्हें कानूनी कार्रवाई की धमकी दी जाती है। व्यापम व ललित गेट मामले में विपक्ष द्वारा संसद में पोस्टर दिखाने पर उसकी आलोचना की जाती है लेकिन लोकसभा अध्यक्षा द्वारा इसे अनुशासनहीनता करार देते हुए ऐसा करनेवालों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई किये जाने की बात कहे जाने के बावजूद सत्ता पक्ष के सांसद अगर संसद में बैनर-पोस्टर लहराएं तो इसे सामान्य मामला मान लिया जाता है। जाहिर है कि जब इस तरह की सियासत हो रही हो तो किसी भी पक्ष को कैसे पूरा सही या पूरा गलत कहा जा सकता है। वैसे भी अपनी गलतियों को जायज ठहराने के लिये विरोधी की गलतियां उजागर करने और अपने वायदों व स्वनिर्धारित नीतियों के पूरी तरह उलट काम करने के कारण आम लोगों की उम्मीदें धराशायी होने का चुनावी खामियाजा भुगतने से ना तो आज तक कोई बच पाया है और ना ही आगे कोई बच पाएगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

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