‘सियासी सच्चाईयों को बेपर्दा करती इफ्तारी’
‘सियासत में जरूरी है रवादारी समझता है, वो रोजा तो नहीं रखता मगर इफ्तारी समझता है।’ वाकई अपने इस शेर के माध्यम से राहत इंदौरी साहब ने सियासी रवादारी की उस तल्ख हकीकत को ही उजागर किया है जिसे स्वीकार करना शायद ही कोई गवारा करता हो। सियासत में रोजा, जकात व नमाज सरीखे इंसान के मूलभूत दीनी फर्ज को भले ही कोई खास अहमियत नहीं दी जाती हो लेकिन यहां रोजेदारों का बड़ा महत्व है। क्योंकि रोजेदारों की आड़ में सियासी कूटनीतियों को परवान चढ़ाने का हथियार बनता है इफ्तार। तभी तो एक ओर विपक्ष को एकजुट करने के लिये सोनिया गांधी की ओर से इफ्तार की दावत दी जाती है तो दूसरी ओर अपनी छवि सुधारने के लिये आरएसएस भी इफ्तार का आयोजन करने से नहीं हिचकता है। दिल्ली की राजनीति में अपनी सियासी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिये अरविंद केजरीवाल इफ्तार के लिये दस्तरखान बिछाते हैं तो बिहार में एनडीए की एकजुटता प्रदर्शित करने के लिये रामविलास पासवान के निवास पर इफ्तार का आयोजन होता है। यहां तक कि सियासत में कई दफा इफ्तार का आयोजन करने से परहेज बरत कर भी अपने साथियों व समर्थकों के बीच विशेष संदेश प्रसारित करने से परहेज नहीं बरता जाता। तभी तो पिछले दिनों जोर-शोर से यह संकेत प्रसारित करा दिया गया कि इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से कश्मीर में इफ्तार की दावत का आयोजन किया जाएगा। जाहिर है कि यह संदेश सामने आने के बाद मोदी सरकार के ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे को काफी मजबूती मिली लेकिन बाद में इस आयोजन के नतीजे में देश के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं आहत होने के खतरे को देखते हुए बड़ी खामोशी व चतुराई से इस प्रस्ताव को बर्फ से लगा दिया गया। खैर, प्रधानमंत्री ने भले ही इफ्तारी के आयोजन से परहेज बरत लिया हो लेकिन सरकारी स्तर पर इस आयोजन की सफलता से जितना फायदा नहीं मिलता उससे कहीं अधिक लाभ भाजपा को विरोधी खेमे द्वारा आयोजित इफ्तारी के आयोजन की विफलता से हासिल हो गया है। सरकारी स्तर पर यह आयोजन होता तो स्वाभाविक तौर पर इसका मकसद विपक्षी एकता में सेंध लगाना और सरकार की स्वीकार्यता में इजाफा करना ही होता। लेकिन इसके नतीजे में देश के उस बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं आहत होने का भी खतरा था जिसका समर्थन हासिल करने के लिये लोकसभा चुनाव से पहले तक मोदी सार्वजनिक तौर पर खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी राजनेता बताते नहीं थकते थे। खैर, बिहार में राजग के घटक रामविलास को आगे करके भाजपा ने इस मामले में एक तीर से दो शिकार कर लिया। अव्वल तो रामविलास द्वारा आयोजित इफ्तार के आयोजन में सूबे के तमाम शीर्ष नेताओं को मेहमान से बढ़कर मेजबान बनाकर भेजने की पहल करके पार्टी ने ‘सबका साथ सबका विकास’ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी प्रदर्शित कर दी और आगामी चुनाव में राजग की एकजुटता का भी संदेश प्रसारित कर दिया। लेकिन भगवा खेमे को सबसे बड़ी राहत की सांस मुहैया करायी है विरोधियों की इफ्तारी कूटनीति की विफलता ने। खास तौर से पहले तो अरविंद केजरीवाल की दावत में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के शिरकत करने के मसले को लेकर कांग्रेस के भीतर हुई सांगठनिक स्तर की भिड़ंत के कारण भाजपा के हित में यह संदेश प्रसारित हो गया कि सूबे की एएपी सरकार के साथ कांग्रेस का एक खेमा दोस्ती भी निभा रहा है और दूसरा दुश्मनी का भी दिखावा कर रहा है। यानि दिल्ली की सूबाई राजनीति में जमीनी स्तर पर मुख्य विपक्षी दल की भूमिका हथियाने की कांग्रेस की कोशिशों को इस पूरे प्रकरण से काफी हद तक पलीता लग गया जो भाजपा के लिये सुखकारी ही माना जाएगा। साथ ही बिहार में लालू व नीतीश द्वारा अपनी ताकत का मुजाहिरा करने के लिये अलग-अलग आयोजित किये गये इफ्तार के आयोजन का मामला भी भाजपा के लिये फायदेमंद ही रहा क्योंकि अव्वल तो इससे बिहार में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ में जारी अंदरूनी टकराव व वर्चस्व की लड़ाई का पूरा सच सार्वजनिक हो गया और दूसरे विरोधी खेमे में एकमतता के अभाव का सकारात्मक लिटमस टेस्ट भी भाजपा के लिये राहत की खबर के तौर पर ही सामने आया। लेकिन भगवा खेमे को सबसे अधिक खुशी दी है कांग्रेस अध्यक्षा द्वारा विपक्षी एकजुटता के लिये पांच सितारा होटल में आयोजित इफ्तारी दावत की विफलता ने। सोनिया द्वारा बिछाये गये सियासी दस्तरखान पर तृणमूल ने ऐसा रायता फैलाया कि ना तो पूरे तौर पर वह खुद इसमें शामिल हुई और ना ही वामपंथी दलों के सामने वहां मौजूदगी दर्ज कराने का विकल्प खुला रहने दिया। साथ ही महज सवा घंटे में ही समाप्त कर दी गयी इस इफ्तार की दावत से मिले इस संदेश ने भगवा खेमे की बांछें खिला दी हैं कि सपा-बसपा, वाममोर्चा-तृणमूल, द्रमुक-अन्ना द्रमुक और राजद-जदयू सरीखे सनातन विरोधियों को जब दीनी आड़ में आयोजित गैरसियासी दस्तरखान पर एक साथ बिठा पाना कांग्रेस के लिये संभव नहीं हो पाया है तब संसद की सियासी जंग में वह कैसे इन सबों को सरकार के खिलाफ अपने मोर्चे में एकजुट कर पाएगी। खैर, इफ्तार की आड़ में अपनी जमीनी ताकत तौलने व सियासी समीकरण साधने के सभी दलों के प्रयासों के बीच इससे जाहिर होनेवाले संकेतों को ही अंतिम मान लेना उचित नहीं होगा क्योंकि असीमित संभावनाओं का खेल कही जानेवाली सियासत का ऊंट कब किस करवट बैठ जाये इसका कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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