सोमवार, 23 नवंबर 2015

‘बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना’

नवकांत ठाकुर
‘साया बनकर साथ चलेंगे इसके भरोसे मत रहना, अपने हमेशा अपने रहेंगे इसके भरोसे मत रहना, सूरज की मानिंद सफर पर रोज निकलना पड़ता है, बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना।’ मौजूदा दौर के सियासी समीकरणों को जहन में रखते हुए देखें तो हस्तीमल हस्ती द्वारा लिखी गयी इस गजल का हर मिसरा कांग्रेस को ही संबोधित किया गया महसूस होता है। वाकई इन दिनों कांग्रेस की हालत बेहद अजीब हो गयी है। कहां तो इसे केन्द्र से लेकर सूबायी स्तर तक पनप रहे सियासी दलों के भाजपा विरोधी महामिलाप के केन्द्र में होना चाहिये था लेकिन स्थिति यह है कि उसे इन महामिलापों की मजबूत नाकेबंदी से हासिल चुनावी सफलता में मामूली सी हिस्सेदारी हासिल करके ही संतुष्ट रह जाने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। उसमें भी दुर्गति की पराकाष्ठा यह है कि यूपी सरीखे सूबे में जारी महामिलाप की कवायदों में सम्मानजनक साझेदारी के बजाय हासिल हो रहे दुत्कार के जहर को भी चुपचाप बर्दाश्त करने के अलावा उसे कोई दूसरी राह ही नजर नहीं आ रही है। सच पूछा जाये तो संसद से लेकर सड़क तक ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय दलों की मजबूत मौजूदगी से महरूम कुछ गिने-चुने सूबों के अलावा तमाम प्रदेशों में कांग्रेस को कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। जिस बिहार में हासिल जीत के दम पर पार्टी में नयी संजीवनी का संचार हुआ है वहां भी अव्वल तो उसे राजद व जदयू के बीच हुई कड़ी सौदेबाजी में बची हुई सीटों का प्रसाद ही चुपचाप सहन करना पड़ा और उसके कोटे की अधिकांश सीटों पर लालू के कितने ‘लाल’ लड़े वह भी सर्वविदित ही है। यहां तक कि चुनाव प्रचार में भी राजद-जदयू के शीर्ष नेतृत्व ने कांग्रेस के साथ निर्धारित दूरी बदस्तूर कायम रखी और नितीश कुमार के शपथग्रहण समारोह को जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री पद के नये दावेदार की ताजपोशी का स्वरूप दिया गया उसका खामोश साक्षी बनने के अलावा अगर राहुल गांधी के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था तो इसे राष्ट्रीय राजनीति की उस नयी करवट का संकेत ही माना जाएगा जिसमें कांग्रेस की प्रसंगिकता हाशिये की ओर अग्रसर दिख रही है। बिहार चुनाव में जीत का डंका बजाने के फौरन बाद पहली प्रतिक्रिया में जब लालू ने बनारस आकर नरेन्द्र मोदी के कामकाज के दावों की पोल-पट्टी खोलने का ऐलान किया तो सपा के शीर्ष संचालक परिवार ने छूटते ही यह स्पष्ट कर दिया कि काशी में अपने समधी के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। यानि सपा की समस्या किसी अन्य भाजपाविरोधी दल से नहीं है। परेशानी है तो सिर्फ कांग्रेस से ही है क्योंकि उसे बेहतर पता है कि अगर कांग्रेस को दुबारा पनपने का मौका दिया गया तो भविष्य में वह उसकी जमीन पर ही अपना झंडा गाड़ेगी। तभी तो मुलायम ने पूरी सख्ती के साथ यह एलान कर दिया है कि ना तो वे खुद कांग्रेस के साथ कोई राब्ता रखेंगे और ना ही किसी ऐसे के साथ सियासी सहचर्य कायम करेंगे जिसने अर्श की ओर उठने के लिये कांग्रेस को अपना कांधा उपलब्ध कराया हो। खैर, बिहार में तो अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे दलों की तिकड़ी में कांग्रेस को शामिल कर लिया गया जबकि यूपी में भी बहनजी के हाथी की पूंछ पकड़के वैतरणी पार करने का विकल्प उसके लिये खुला हुआ है लेकिन अगले साल होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव में ना तो पश्चिम बंगाल में उसे कोई अपने साथ जोड़ने के लिये तैयार है और ना ही तमिलनाडु या केरल में। यहां तक कि असम में अल्पसंख्यक मतदाताओं का नेतृत्व करनेवाले बदरूद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ से गठजोड़ करने में भी कांग्रेस को कई ऐसे समझौते करने पड़ सकते हैं जिस पर सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है। यानि सतही तौर पर संसदीय सियासत में भले ही कांग्रेस काफी मजबूत नजर आ रही हो लेकिन अगर वह जमीन पर भाजपा विरोधी ताकतों का गुरूत्व केन्द्र बनने के बजाय अपने वजूद व वकार को पुनर्स्थापित करने के लिये स्थानीय व क्षेत्रीय दलों की कृपा की मंुहताज हो रही है तो निश्चित ही इस मामले की गंभीरता को कम करके आंकना कतई सही नहीं होगा। वह भी तब जबकि भाजपा की राह रोकने के लिये उसने किसी भी दल के साथ गठजोड़ करने का विकल्प पूरी तरह खुला रखा हुआ है। यानि समग्रता में देखा जाये तो अब लड़ाई सिर्फ ऐसे मोर्चे पर नहीं चल रही है जहां विरोधियों के बिखराव व टकराव के बीच महज 32 फीसदी वोटों के दम पर ही संसद में बहुमत जुटा लेनेवाली भाजपा के खिलाफ सब एकजुट हो रहे हैं बल्कि अब भाजपा व नरेन्द्र मोदी का विकल्प नहीं बन पाने के खामियाजे में कांग्रेस को ऐसे ध्रुवीकरण में हिस्सेदारी करनी पड़ रही है जहां उसकी स्थिति अवांक्षित रहबर की दिख रही है। हालांकि सूबायी सियासत में कमजोर निजी पैठ के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक विस्तार, प्रसार व फैलाव के दम पर केन्द्र में मजबूत मौजूदगी तो कांग्रेस की हर हालत में रहेगी बशर्ते राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का कोई नया विकल्प ना उभरे। लेकिन समस्या की जड़ में जाकर जूझने के बजाय प्रादेशिक स्तर पर परजीवी बनकर फलक के पताके का कलेवर बदलने की जद्दोजहद में ही उलझे रहने के नतीजे में भविष्य की चुनौतियों से निपटने में कांग्रेस को कितनी कामयाबी मिल पाएगी यह सवाल तो उठता ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

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