‘हुआ है कत्ल तो कातिल भी होगा कोई जरूर’
नवकांत ठाकुर
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार में भाजपा की उम्मीदों, अपेक्षाओं, सपनों व अरमानों का कत्ल तो हुआ ही है। जाहिर है कि अगर कत्ल हुआ है तो कोई कातिल भी होगा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि बगैर किसी कातिल के ही कत्ल की वारदात हो जाये। ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की परिकल्पना सिर्फ वाॅलीवुड ही कर सकता है। असल जिन्दगी में तो यह मुमकिन ही नहीं है। हालांकि इस पूरे मामले को अनजाने में हुई गलती के नतीजे में हुआ हादसा करार देकर भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों ने जिस तरह से इस पूरे अध्याय पर पूर्णविराम लगाने की पहल की है उसका सतही मतलब तो यही है कि पार्टी के शीर्ष संचालकों की नजर में इस पूरी घटना के लिये कोई जिम्मेवार ही नहीं है। लेकिन गहराई से देखा जाये तो पार्टी की शीर्ष नीतिनिर्धारक समिति कही जानेवाली पार्लियामेंट्री बोर्ड ने जिस तरह से सर्वसम्मति से यह स्वीकार किया है कि विरोधी पक्ष के एकजुट हो जाने के नतीजे में उनके वोटों का जिस भारी तादाद में परस्पर हस्तांतरण हुआ वह पार्टी की उम्मीदों के परे था और यही वजह रही कि जिस सूबे में लोकसभा चुनाव में उसे 40 में से 31 सीटें मिली थीं वहां इस दफा तमाम साथियों व सहयोगियों के साथ मिलकर भी विधानसभा की कुल 243 में से महज 58 सीटें ही हासिल हुईं जिसमें उसकी निजी हिस्सेदारी सिर्फ 53 की रही। यानि पार्लियामेंट्री बोर्ड ने भी दबे-ढंके लहजे में यह तो स्वीकार कर ही लिया है कि रणनीतिक स्तर पर काफी बड़ी गलती हुई है जिससे विरोधी खेमे को उम्मीदों से काफी अधिक वोट मिल गया। यानि संगठन के भीतर से निकले औपचारिक स्वरों ने सांसद भोला सिंह की कही उसी बात को प्रमाणिक माना है जिसके मुताबिक बिहार में पार्टी की उम्मीदों का कत्ल नहीं हुआ है बल्कि उसने आत्महत्या की है। लेकिन सवाल फिर वही खड़ा होता है कि अगर पार्टी ने आत्महत्या की है तो उसे ऐसा करने के लिये मजबूर किसने किया। खुशी से खुदकुशी तो कोई करता नहीं है। लिहाजा पार्टी की इस दशा के लिये कोई ना कोई तो जिम्मेवार होगा ही। लेकिन सवाल है कि इस वारदात की सर्वसम्मति से जिम्मेवारी तय कैसे की जाये। बुजुर्ग मार्गदर्शकों की राय में तो कातिल के शिनाख्त का काम उन्हें हर्गिज नहीं सौंपा जाना चाहिये जिन पर कत्ल का इल्जाम लग रहा हो। ऐसे में कातिल की पहचान का काम तो तब शुरू होगा जब पहले ऐसे चेहरों को तलाश लिया जाये जिनकी इस पूरे मामले में रत्ती भर भी भागीदारी ना हो। इस कसौटी पर तो निष्पक्ष पड़ताल में हर चेहरा दागदार ही नजर आ रहा है। जिन शीर्ष संचालकों पर पार्टी की नैया पार लगाने की जिम्मेवारी थी उनसे हुई चुक व गलतियों के बारे में तो ढ़ोल बज ही रहा है लेकिन कप्तान को ही हार के लिये जिम्मेवार साबित करने में जुटे खेमे की भी इस हार में कतई कम भूमिका नहीं रही है। मसलन, ऐन चुनाव से पहले लालकृष्ण आडवाणी द्वारा देश में दोबारा आपातकाल नहीं लगने का भरोसा देने से इनकार किये जाने की बात करें या यशवंत सिन्हा द्वारा बुजुर्गों के पक्ष में मोर्चा खोलते हुए मौजूदा निजाम की फजीहत किये जाने की। अरूण शौरी द्वारा मोदी सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताये जाने से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा अपने शुभचिंतकों को भड़काने की कोशिशों को भी सामने रखकर देखा जाये तो मौजूदा निजाम को इस ताजा हार के लिये जिम्मेवार ठहराने की कोशिश करनेवालों की भी कहीं से भी कम जिम्मेवारी नजर नहीं आती है। खैर, समग्रता में देखें तो बिहार की करारी शिकस्त के लिये हर कोई दूसरों पर ही उंगली उठाने में जुटा हुआ है जबकि उसे यह नजर नहीं आ रहा कि उसकी खुद की एक उंगली भले ही किसी अन्य की ओर इशारा कर रही हों मगर शेष तीन उंगलियां उसकी खुद के करतूतों की ही गवाही दे रही हैं। वैसे भी जो शत्रुघ्न सिन्हा पूरे चुनाव के दौरान अपने संसदीय क्षेत्र में भी पार्टी का प्रचार करने के लिये निकलने के बजाय बाकी बतकहियों में मशगूल रहे हों, जो आडवाणी पूरे चुनाव के दौरान एक बार भी पार्टी को यह संदेश ना दे रहे हों कि पार्टी के पक्ष में प्रचार करने के लिये वे भी उत्सुक हैं, जो यशवंत पूरे परिदृश्य से ही लगातार गायब रहे हों, जो मुरली मनोहर जोशी अपने कानपुर के मतदाताओं के लिये भी अदृश्य चल रहे हों, जो शौरी विरोधी खेेमे से भी अधिक हमले करके सरकार व संगठन की साख को मटियामेट करने में जुटे रहे हों वे अगर इस हार के लिये किसी की जिम्मेवारी तय करने की लड़ाई लड़ते दिख रहे हैं तो इस लड़ाई की इमानदारी व नैतिकता पर सवाल खड़ा किये जाने को कैसे गलत कहा जा सकता है। वैसे भी संभव है कि आरक्षण के मसले से लेकर दादरी या पाकिस्तान सरीखे गलत बयानों से भले ही भाजपा से मतदाताओं के एक वर्ग का मोहभंग हुआ हो लेकिन ऐसी गलती करनेवालों द्वारा पार्टी को जीत दिलाने के लिये पूरे एक महीने तक की गयी जी-तोड़ व इमानदार मेहनत की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती है। ऐसे में यह कहना ही सही होगा कि कत्ल तो हुआ ही है और इसके कातिल भी हैं लेकिन इसका हिसाब मांगनेवाले पहले अपनी बेगुनाही तो साबित करें। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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