शुक्रवार, 13 मई 2016

पानी गये ना ऊबरे, मोती मानुष चून

‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून’


‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये ना ऊबरे, मोती मानुष चून।’ रहीम का यह दोहा सबने पढ़ा भी है और गुना भी है। लेकिन शायद हमारे राजनीतिज्ञों ने इसे सिर्फ पढ़ा है, इसका अर्थ व महत्व समझा नहीं है। अगर समझा होता तो आज राजनीति में पानी बचा होता, इस कदर सूख नहीं जाता। अब तो ऐसा लगता है मानो सबकी आंख का पानी मर चुका है, सूख चुका है। वर्ना कम से कम ऐसी तस्वीर तो कतई नहीं दिखती कि जब देश की एक तिहाई आबादी भयावह सूखे का सामना कर रही हो, बूंद-बूंद पानी के लिये हाहाकार मचा हो तब हमारे माननीय नेतागण एकजुट होकर लोगों को इस भीषण संकट से उबारने का प्रयास करने के बजाय मौजूदा परिस्थियों का भी सियासी दोहन करने में जुटे हुए हों। आपस में श्रेय लूटने की लड़ाई लड़ रहे हों। हालांकि सियासत की इस मौजूदा तस्वीर का एक अलग पहलू यह भी है कि जब हर चीज पर सियासत हो सकती है, हर बात पर ही नहीं बल्कि बेबात भी राजनीति हो सकती है, तो फिर पानी ही इससे अछूती क्यों रहे। वैसे भी स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे भयावह सूखे के मौजूदा दौर में तो मौका भी है, मौसम भी है और दस्तूर भी। फिर पानी पर सियासत तो होनी ही है और हो भी रही है। हो भी क्यों ना। आखिर जानलेवा सूखे की मार झेल रही देश की एक-तिहाई आबादी का मसला जो ठहरा। इतने बड़े वोट बैंक को कौन नहीं रिझाना चाहेगा। भले इसके लिये ठोस राहत योजना या दूरगामी परियोजना का पूरी तरह अभाव ही क्यों ना हो। दिखाना तो सभी यही चाहेंगे कि सूखा प्रभावितों की मदद में वे जी-जान से व प्राण-पण से जुटे हुए हैं। तभी तो केन्द्र सरकार और राज्यों के बीच इस मसले पर श्रेय बटोरने को लेकर भारी खींचतान का माहौल दिख रहा है। लेकिन इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि सूखा प्रभावितों को मिल-जुलकर राहत पहुंचाने के अभियान में जुटने के बजाय केन्द्र और राज्य एक दूसरे की टांग खींचने व एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। खास तौर से अगर उत्तर प्रदेश के साथ इस मसले पर जारी केन्द्र के शीतयुद्ध की बात करें तो दोनों ही यह साबित करने में जुटे हुए हैं कि उनका काम तो काम है, दूसरे का दिखावा। तभी पहले तो यूपी सरकार को सूखा राहत के मोर्चे पर विफल दिखाने में ना तो सत्ता पक्ष से प्रभावित मीडिया के एक खास वर्ग ने कोई कसर छोड़ी और ना ही केन्द्र ने कभी यह स्वीकार किया कि सूबे में सूखा राहत की दिशा में कोई सराहनीय काम हो रहा है। जबकि हकीकत यह है कि सूबे की सरकार अपने सीमित संसाधनों के सहारे ही ना सिर्फ सूखा प्रभावित इलाकों में लोगों को राहत पहुंचाने के काम में पूरी ताकत से जुटी हुई है बल्कि लोगों को भोजन-पानी से लेकर पशुओं के लिये चारा उपलब्ध कराने का भी हरमुमकिन प्रयास किया जा रहा है। सूखे के कारण रोजी-रोटी की भारी किल्लत का सामना कर रहे परिवारों के बीच राहत पैकेट के रूप में शुरूआती तीस दिनों के लिये आटा, आलू, दाल, तेल व देशी घी से लेकर मिल्क पाउडर भी वितरित किया जा रहा है। इसके अलावा अन्त्योदय लाभार्थी परिवारों को अगले 30 दिनों के लिए भी राहत पैकेट मुहैया कराने का निर्णय प्रदेश सरकार पहले ही कर चुकी है। साथ ही पिछले साल हुई ओलावृष्टि के बाद इस समय भयानक सूखे का सामना कर रहे किसानों को राहत देने के लिए प्रभावित 73 जिलों के 107 लाख किसानों के बीच 4493 करोड़ रुपया बांटा जा चुका है जबकि पिछले साल भी सूखे की मार झेलनेवाले 21 जनपदों के प्रभावितों के बीच 1006.03 करोड़ रुपये की धनराशि बांटने का काम युद्धस्तर पर जारी है। यहां तक कि अपनी क्षमता के मुताबिक प्रदेश सरकार वाटर एटीएम भी लगवा रही है और टैंकरों से पानी की आपूर्ति भी कर रही है। इसके बावजूद प्रदेश सरकार की तारीफ करना किसी को गवारा नहीं है। अलबत्ता सूबे की समस्याओं को लेकर हलकान दिख रही है वह भाजपा जिसके नेतृत्व में चल रही केन्द्र की सरकार ने अब तक पिछले साल के सूखे के मद का 1123.47 करोड़ व ओलावृष्टि के मद का 4741.55 करोड़ रूपया प्रदेश सरकार को आवंटित ही नहीं किया है। यानि मदद के नाम पर केन्द्र से प्रदेश को मिला है तो सिर्फ आश्वासन और लफ्फाजी। उस पर तुर्रा यह कि बुंदेलखंड में पानी पहुंचाने के लिये केन्द्र ने ट्रेन भेज दिया। वह भी खाली टैंकर के साथ। जाहिर है कि प्रदेश सरकार इस दिखावे की मदद को बैरंग वापस नहीं लौटाती तो और क्या करती। कायदे से अगर केन्द्र को कुछ करना ही है तो वह इस साल के सूखा राहत का पैसा हाथोंहाथ नहीं दे सकती तो कम से कम पिछले साल के बकाये का ही पूरा भुगतान कर दे। साथ ही जब प्रदेश सरकार दावा कर रही है कि बुंदेलखंड के जलाशयों में पर्याप्त पानी उपलब्ध है तो उसके वितरण के लिये टैंकरों का समुचित इंतजाम कर दे। प्रदेश तो अपनी क्षमता के मुताबिक जुटा ही हुआ है लेकिन कुछ जिम्मेवारी तो केन्द्र की भी है। जिसे पूरी इमानदारी से निभाने में अगर कोताही बरती गयी तो अगले साल होनेवाले सूबे के विधानसभा चुनाव में भाजपा को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

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