अर्थशास्त्र के चक्कर पर भारी बिचौलियों का फच्चर
अर्थशास्त्र का सिद्धांत बताता है कि अगर आपूर्ति यथावत रहे तो मांग बढ़ने से कीमतें बढ़ती हैं जबकि मांग घटने से कीमत घट जाती है। इसी प्रकार मांग यथावत रहने की स्थिति में आपूर्ति बढ़ने से कीमतें घटने लगती हैं जबकि आपूर्ति में कमी होने पर कीमतें बढ़ने लगती हैं। यानि बाजार में कीमत का निर्धारण मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन के आधार पर ही होता है। हालांकि इस सिद्धांत के कुछ अपवादों को भी अर्थशास्त्र में स्वीकार किया जाता है। लेकिन मसला है कि इन दिनों बाजार का पूरा अर्थशास्त्र ही बदला हुआ है। अब तो बाजार में कीमतों का निर्धारण अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर नहीं बल्कि बिचौलियों की मनमर्जी पर आधारित दिख रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक ओर समूचे देश के खुदरा बाजार में प्याज की कीमत पिछले कई महीनों से औसतन बीस रूपये प्रतिकिलो की दर पर टिके रहने के बावजूद महाराष्ट्र के किसान को ढ़ुलाई व मंडी का शुल्क अदा करने के बाद 952 किलो प्याज बेचने के एवज में सिर्फ एक रूपये के सिक्के की बचत नहीं होती जिस पर इन दिनों ठेंगे का निशान छपा रहता है। जाहिर है कि यह अर्थशास्त्र किसी के भी दिमाग की दही जमा सकता है। अब जिस किसान को फसल की लागत मिलने की बात तो दूर रही सिर्फ खेत से मंडी तक अपनी उपज को पहुंचाने व मंडी की पर्ची कटवाने के बाद लगभग एक टन फसल के बदले सिर्फ एक रूपये का मुनाफा मिल रहा हो उसके दिमाग में अगर आत्महत्या कर लेने की बात दस्तक देने लगे तो इसे कैसे अस्वाभाविक कहा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि यह नौबत महाराष्ट्र के प्याज उत्पादकों को ही झेलनी पड़ रही है बल्कि यही हाल समूचे देश के किसानों का है जो मंडी में बिचौलियों के हाथों औने-पौने दामों पर अपनी फसल बेचने के लिये मजबूर हैं। किसान आलू पैदा करे या टमाटर, गन्ना उगाए या फल-फूल उपजाये। सबकी व्यथा एक जैसी ही है। इसमें किसी वस्तु का दाम अधिक तेजी से बढ़ जाने पर सरकार अगर हरकत में भी आती है तो जमाखोरों पर छापेमारी के अलावा आयात में इजाफा करने के परंपरागत तौर-तरीकों पर अमल शुरू कर देती है। लेकिन कभी यह कोशिश नहीं होती कि किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिले और उपभोक्ताओं को सही कीमत पर बाजार में सामान उपलब्ध हो सके। पिछले साल संसद की कैंटीन में अचानक पहुंचकर भोजन करने के बाद जब प्रधानमंत्री ने खाने के बिल की पर्ची पर आह्लादित भाव से ‘अन्नदाता सुखी भव’ लिखकर अपना उद्गार व्यक्त किया तो ऐसा लगा कि अब अन्नदाता के दिन बहुरने वाले हैं। लेकिन साल पूरा होने के बाद जब आंकड़े सामने आये तो पता चला कि आजादी के बाद वर्ष 2015 में पहली दफा रोजाना औसतन 52 किसानों ने आत्महत्या की। यानि ‘अन्नदाता सुखी भव’ की बात मौजूदा सरकार के कार्यकाल में भी कहने-सुनने की ही बात बनकर रह गयी है। क्योंकि इस सरकार ने जिस साल सत्ता संभाली तब औसतन 42 किसानों को आत्महत्या की राह पकड़नी पड़ी थी जबकि पिछले साल यह आंकड़ा रोजाना 52 आत्महत्याओं तक पहुंच गया। आलम यह है कि किसान को मंडी में महज डेढ़ से दो रूपये प्रति किलो की दर से आलू, प्याज व टमाटर खरीदनेवाले भी बड़ी मुश्किल से मिल रहे हैं जबकि उपभोक्ताओं को इसकी कीमत औसतन बीस रूपये की दर से चुकानी पड़ रही है। ऐसे में सवाल है कि आखिर बीच का 18 रूपया कहां जा रहा है। जाहिर तौर पर यह उन बिचौलियों की तिजोरी में जमा हो रहा है जो प्याज को खेत से किचेन तक का सफर तय कराते हैं। ऐसे में किसान का यथावत बदहाल रहना स्वाभाविक ही है। लिहाजा आवश्यकता है कि बाजार में कीमतों के निर्धारण व नियंत्रण पर भी सरकार व प्रशासन की नजर हो। सिर्फ मांग व आपूर्ति के बीच संतुलन के भरोसे बाजार को छोड़े रखने से ना तो अन्नदाता किसानों को न्याय मिल सकता है और ना ही उपभोक्ताओं को। लेकिन मसला है कि अब तक तीन लाख से अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या कर लिये जाने के बावजूद अगर सरकार की योजनाएं क्रॉप-ड्रॉप के बीच संतुलन बनाने और यूरिया पर नीम चढ़ाने तक ही सीमित रहेंगी तो अन्नदाता कैसे सुखी हो पाएगा। चुनावी दिनों में सपना दिखाया गया था कि वैल्यू एडीशन के द्वारा खेती को लाभप्रद बनाया जाएगा लेकिन इस दिशा में कोई बड़ी पहल होती दिख तो नहीं रही है। साथ ही ना तो भंडारण व्यवस्था का विस्तार व सुदृढ़ीकरण होता दिख रहा है और ना ही फसल के न्यूनतम मूल्य निर्धारण व्यवस्था में कोई सुधार हो पाया है। सिर्फ फसल बीमा योजना लाने, आपदा राहत का विस्तार करने, ई-मंडी का सपना दिखाने और मृदा स्वास्थ्य कार्ड तैयार करने से तो अन्नदाता का भला होने से रहा। उसका भला तो तब होगा जब उसे उपज की पूरी लागत के अलावा कुछ मुनाफा भी मिले। यानि बाजार की असली बीमारी का इलाज किये बिना इस अव्यस्था से निजात पाने की कल्पना भी बेकार ही है। लिहाजा आवश्यकता है कि अन्नदाता किसानों और उपभोक्ता के बीच कीमतों का अनुपात निर्धारित किया जाये और बिचौलियों व बाजार की अन्य ताकतों को लागत के मुकाबले एक निश्चित अनुपात में ही मुनाफा कमाने की छूट रहे। वर्ना मांग व आपूर्ति के चक्कर में पड़कर पूरी बाजार व्यवस्था यथावत घनचक्कर बनी रहेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur
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