गुरुवार, 22 मार्च 2018

‘पांव तले के तिनके से आंखों में घनेरी पीड़’



‘पांव तले के तिनके से आंखों में घनेरी पीड़’    

मौजूदा सियासी दौर में सत्तारूढ़ भाजपा के दो शीर्षतम संचालकों यानि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से बेहतर संत कबीर की इस सीख का अनुभव शायद ही किसी को होगा कि- ‘‘तिनका कबहु न निन्दिये, जो पांवन तर होय, कबहुं उड़ी आंखिन पड़े, तो पीड़ घनेरी होय।’’ तिनका-तिनका जोड़कर केन्द्र से लेकर 22 राज्यों में सत्ता का घोंसला बनाने में भी ये कामयाबी हासिल कर चुके हैं और प्रतिकूल सियासी समीकरणों की आंधी में उसी घोंसले के तिनके इनके लिये भारी पीड़ का सबब भी बन रहे हैं। हालांकि घोंसले के तिनकों की ढ़ीली पड़ रही पकड़ को दोबारा मजबूती से गूंथने के प्रयासों के तहत सोहेलदेव-भासपा को अपने साथ जुड़े रहने के लिए मनाने में फिलहाल उन्हें कामयाबी मिल गयी है लेकिन जो तिनके बिखर चुके हैं उन्हें दोबारा गूंथने की राह नहीं मिल रही और जो दायें-बायें देखकर खिसकने की तैयारी में हैं उनको अपने साथ जोड़े रखने की बेहद कठिन चुनौती भी सिर पर खड़ी है। दरअसल तिनके और घोंसले की पूरी कहानी वर्ष 2014 के आम चुनावों से शुरू हुई जिसे सतही तौर पर ‘मोदी मैजिक’ का नाम दे दिया गया। जबकि वास्तव में वह सामूहिक लड़ाई की जीत थी जिसका चेहरा मोदी को बनाया गया था। हालांकि राजस्थान, गुजरात व मध्य प्रदेश सरीखे सूबों में हुई सीधी लड़ाई में कांग्रेस के विरूद्ध भड़की जनाक्रोश की आग में मोदी मैजिक का करिश्मा अवश्य चल निकला। लेकिन बिहार, महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश सरीखे सूबों में क्षेत्रीय दलों को अपने साथ जोड़कर ही भाजपा ने तिनका-तिनका एकत्र करते हुए कामयाबी की इबारत लिखी। उस चुनाव में तिनकों की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि केरल व तमिलनाडु सरीखे जिन सूबों में सीधी लड़ाई कांग्रेस से नहीं थी और बड़े क्षेत्रीय दलों को साधने में भी भाजपा को कामयाबी नहीं मिल सकी वहां मोदी मैजिक बेअसर रहा। यानि समग्रता में देखें तो 2014 का जनादेश सिर्फ मोदी के नाम पर नहीं मिला था बल्कि इसमें निर्णायक भूमिका निभाई थी कांग्रेस को सत्ता से खदेड़ने की जनभावना ने और इसमें भाजपा को मदद मिली थी उन स्थानीय व क्षेत्रीय ताकतों से जो अपने दम पर अपना खेल बनाने की ताकत भले ना रखते हों लेकिन किसी दूसरे का खेल बिगाड़ने की जिनमें बखूबी क्षमता है। हालांकि 2014 के चुनाव परिणामों ने राजनीतिक पंडितों को भी इस कदर चमत्कृत कर दिया कि वे पूरी जीत को मोदी मैजिक का नाम देकर स्थानीय ताकतों को इसके श्रेय में हिस्सेदारी देने में कंजूसी कर गए। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को हकीकत की पूरी जानकारी थी और इसी वजह से अपने दम पर पूर्ण बहुमत के लिए आवश्यक आंकड़े से दस सीटें अधिक जीतने के बावजूद मोदी सरकार में राजग के उन तमाम घटक दलों को यथोचित हिस्सेदारी दी गई जिन्होंने पर्दे पर मुख्य भूमिका भले ना निभाई हो लेकिन गैर-कांग्रेसवाद की लहर को मोदी मैजिक में तब्दील करने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। साथ ही 2014 के चुनाव को नजीर मानकर भाजपा के नए निजाम ने प्रादेशिक स्तर पर स्थानीय व छोटे-छोटे दलों को अपने साथ जोड़ना आरंभ कर दिया और इसका नतीजा यह रहा कि विधानसभा के चुनावों में एक के बाद एक भाजपा सफलता के झंडे गाड़ती चली गई। जिन सूबों में सही तरीके से चुनावी गठजोड़ नहीं हो सका और जहां सीधी लड़ाई कांग्रेस से नहीं थी वहां भाजपा को शिकस्त का सामना भी करना पड़ा और बिहार, दिल्ली व जम्मू कश्मीर सरीखे सूबे के मतदाताओं ने स्थानीय विकल्प को ही तरजीह देना बेहतर समझा। लेकिन इससे सबक लेकर भाजपा ने पूरे देश में तमाम गैर-कांग्रेसी सियासी ताकतों को अपने साथ जोड़ने का अभियान छेड़ दिया। तमाम सिद्धांतों व पूर्वाग्रहों से किनारा करते हुए बिहार में नीतीश कुमार को और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी को राजग के साथ जोड़ा गया। पूर्वोत्तर में भी ऐसे-ऐसे दलों को अपने साथ जोड़ा गया जिन्हें सैद्धांतिक व वैचारिक तौर पर अब तक चिमटे से छूना भी गवारा नहीं किया जा रहा था। तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक के साथ पींगें बढ़ाई गईं और गोवा में सरकार बनाने के लिए छोटे सहयोगी दलों की जिद का मान रखने के लिए मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया। यानि भाजपा को जीत का मंत्र मिल गया था और उसकी साधना करके पार्टी ने अभूतपूर्व कामयाबी भी अर्जित की। लेकिन जिस मंत्र का मर्म पार्टी के शीर्ष दोनों रणनीतिकार बेहतर समझ रहे थे उसके बारे में पार्टी का प्रादेशिक नेतृत्व काफी हद तक आज भी अनजान ही है। नतीजन प्रादेशिक स्तर पर यथोचित सम्मान नहीं मिलने से अब राजग के घोंसले की एकजुटता प्रभावित होने लगी है। बिहार में जीतनराम मांझी ने राजग से किनारा किया है तो आंध्र प्रदेश में टीडीपी ने अलग राह पकड़ ली है। महाराष्ट्र में स्वाभिमानी शेतकारी संगठन कांग्रेसनीत संप्रग के साथ जुड़ रहा है जबकि शिवसेना ने अगला लोकसभा चुनाव अपने दम पर लड़ने की पहले ही घोषणा कर दी है। यूपी में भी अपना दल का बड़ा खेमा राजग से अलग हो चुका है और बिहार में लोजपा-जदयू की एक अलग खिचड़ी पक रही है। रालोसपा भी राजग में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं समझ रहा। यानि तिनका तिनका जोड़कर जिस नीड़ का निर्माण हुआ उसके बिखरने की भूमिका बनने लगी है। ऐसे में घोंसले के तिनकों की आपसी कसावट में वृद्धि नहीं की गई तो चुनावी वर्ष में भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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