‘सियासत के शीर्ष पर संवेदना का सूखा’
सूखे को लेकर इन दिनों जिस तरह से सियासी पारा उफान पर चल रहा है उसमें संवेदना की नदारदगी वाकई शर्मसार करनेवाली है। खास तौर से जब सर्वोच्च अदालत भी यह स्वीकार कर चुकी है कि देश के कुल 256 जिले भीषण सूखे की चपेट में हैं और हमारी एक चैथाई आबादी पानी की बूंद-बूंद के लिये तरस रही है ऐसे में सियासी श्रेय लेने के लिये मची होड़ के बीच माननीय राजनेताओं द्वारा की जा रही बेसिर-पैर की बातों व ऊटपटांग हरकतों से तो सूखा पीडि़तों के जख्मों पर मरहम की बजाय मिर्च ही लग रही है। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा का आलम यह है कि जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सूखे का जायजा लेने के लिये निकलते हैं तो हजारों लीटर पानी सिर्फ इस वजह से सड़क पर उडेल दिया जाता है ताकि उनकी कार को घूल के गुबार से दो-चार ना होना पड़े और जब महाराष्ट्र की ग्रामीण विकास व जल संरक्षणमंत्री पंकजा मुंडे सूखाग्रस्त इलाकों के दौरे पर निकलती हैं तो पीडि़तों के दर्द मंे सहभागी बनने के बजाय वहां अपनी सेल्फी निकालने में मशगूल हो जाती हैं ताकि उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करके यह जता सकें कि जमीनी स्तर पर वे किस कदर सक्रिय हैं। उस पर तुर्रा यह कि सिद्धारमैया तो कम से कम पूरे मामले की जांच कराये जाने की बात भी कहते हैं लेकिन पंकजा दलील देती हैं कि पूरे इलाके मेें जब उन्हें सिर्फ एक बांध में पानी की पतली सी धारा बहती हुई नजर आयी तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ मानो रेगिस्तान में अमृत का झरना बह रहा हो और उसी खुशी की यादें संजोने के लिये वे सेल्फी लेने से खुद को रोक नहीं पायीं। अब ऐसी दलीलों को संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ना कहें तो और क्या कहें। इसी प्रकार जब कर्नाटक के नवनियुक्त भाजपा अध्यक्ष बीएस येदियुरप्पा सूखे का जमीनी जायजा लेने के क्रम में भी अपनी निजी सहूलियत को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए एक करोड़ की आलीशान कार से ही सफर पर निकलते हों बूंद-बूंद के लिये तरस रही प्यासी पथराई आंखें उनसे अपनत्व भरी संवेदना की आस लगाएं भी तो कैसे? सूखे की मार से कराह रहे लोगों के बीच संवेदना का संचार हो भी तो कैसे जब प्यासी धरती के फटे कलेजे को आसमान से निहारने के लिये निकले महाराष्ट्र के राजस्वमंत्री एकनाथ खड़से के उड़नखटोले को घूल से बचाने के लिये हेलीपैड पर दस हजार लीटर पानी की फुहार डाली जा रही हो। इसमें कोढ़ में काज सरीखी असहनीय चुभन तो तब महसूस होती है जब येदियुरप्पा सरीखे नेता एक करोड़ की कार के इस्तेमाल को जायज ठहराने के लिये कभी अपनी सुरक्षा का हवाला देते हैं तो कभी वह कार अपनी होने से इनकार करते हुए इसे मित्र से किराये पर लिया हुआ बताते हैं। लोगों को ऐसी ही चुभन खड़से की बातों से भी महसूस हुई होगी जब उन्होंने कहा कि जिस तरह से उनके हेलीपैड पर धूल उड़ रही थी उसे देखते हुए यह मानना बेहद मुश्किल है कि इस पर दस हजार लीटर पानी की फुहार डाली गयी होगी। ऐसी दलील सुनकर लोग यह उम्मीद तो करेंगे ही काश खड़से साहब लगे हाथों यह भी बता ही देते कि जब उन्हें यह पता चला कि उनके लिये हेलीपैड तैयार किया जा रहा है तब उन्हें इस पर कितना पानी खर्च होने की उम्मीद थी। खैर, सूखे को लेकर मची सियासी श्रेय बटोरने की होड़ में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के मकसद से बेतुकी बयानबाजी करने में तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी और उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को औपचारिक तौर पर यह प्रस्ताव भेज दिया कि अगर वे चाहें तो सूखे से निपटने के लिये उनके सूबे को दिल्ली से पानी की आपूर्ति करायी जा सकती है। शायद इसी को कहते हैं कि घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने। इनका अपना सूबा तो पानी के लिये हरियाणा और यूपी पर निर्भर है जहां से पानी की पर्याप्त व निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित कराना हमेशा से टेढ़ी खीर रही है। हाल ही में जाट आरक्षण के लिये हुए आंदोलन के बाद जब कुछ दिनों के लिये हरियाणा से पानी की आपूर्ति बाधित हुई तब दिल्ली में कैसा कोहराम मचा था यह सर्वविदित ही है। यहां तक कि पानी के लिये जारी पंजाब व हरियाणा की जंग में कूदते हुए जब इन्होंने आगामी चुनाव में राजनीतिक लाभ बटोरने के मकसद से पंजाब के पक्ष में बयानबाजी की थी उसके बाद हरियाणा से मिली पानी रोकने की धमकी से ही इनकी सरकार के पेट का पानी डोल उठा था। ऐसे में जब ये सूखे की सियासत में कूदते हुए श्रेय बटोरने की कोशिशों के तहत समुद्री कछारवाले सूबे के दूर-दराज के इलाकों को पानी भेजने का प्रस्ताव भेजने की पहल करते हैं तब यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि सूखा पीडि़तों के प्रति इनके मन में कितनी संवेदना है और कहीं ये सूखे की त्रासदी झेल रहे लोगों के साथ भद्दा मजाक तो नहीं कर रहे हैं। खैर, माना कि सियासत का संवेदना से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं होता है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनभावना की निर्णायकता तो जगजाहिर ही है। लिहाजा जनवेदना के प्रति समर्पण व सहानुभूति का प्रदर्शन करने के क्रम में जनसरोकार से जुड़े मसले पर इस कदर लापरवाही का मुजाहिरा करने की भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur
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