रविवार, 20 मई 2018

‘आखिरकार बेबसी का सबब बन गयी बेसब्री’


कर्नाटक में जितना स्वाभाविक भाजपा की सरकार का बनना था उतना ही स्वाभाविक इसका बहुमत परीक्षण में असफल होना भी था। जब प्रदेश के चुनाव का नतीजा आया तो त्रिशंकु विधानसभा के लिये मिले खंडित जनादेश में बहुमत के लिये आवश्यक 112 सीटें तो किसी को नहीं मिल सकीं लेकिन कुल 104 सीटें जीत कर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर अवश्य उभरी। दूसरी ओर कांग्रेस को पिछली बार मिली 122 सीटों के मुकाबले इस बार सिर्फ 78 सीटों पर ही सिमट कर रह जाने के लिये मजबूर होना पड़ा जबकि बसपा-जेडीएस गठजोड़ 38 सीटों के साथ तीसरी ताकत के रूप में उभरा। हालांकि अपनी हार का गम गलत करने और भाजपा की जीत का जायका बिगाड़ने के लिये कांग्रेस ने चुनावी नतीजा सामने आने तत्काल बाद ही जेडीएस को बिना शर्त समर्थन का ऐलान करते हुए बहुमत के आंकड़े की स्पष्ट तस्वीर दिखा दी। लेकिन अव्वल को कांग्रेस ने कूटनीतिक ख़ुराफ़ात करके भाजपा को रोकने की कोशिश की थी और दूसरे भाजपा ही सबसे बड़ी ताकत के तौर पर सामने आई थी लिहाजा राज्यपाल वजूभाई वाला ने स्वाभाविक तौर पर भाजपा के सरकार गठन के दावे को स्वीकार कर लिया और बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाते हुए उन्हें विश्वासमत हासिल करने के लिये पंद्रह दिनों की मोहलत दे दी। यानि कहने का तात्पर्य यह कि ना तो राज्यपाल ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री नियुक्त करके कोई गलती की और ना ही भाजपा ने सरकार बनाने का दावा करके कोई अनैतिक काम किया। लेकिन एक तरफ तो भाजपा के पास बहुमत का आंकड़ा उपलब्ध नहीं था और दूसरे कांग्रेस द्वारा सुप्रीम कोर्ट में इंसाफ की गुहार लगाये जाने के बाद विश्वासमत हासिल करने के लिये मिली पंद्रह दिनों की मोहलत महज तीन दिनों में सिमट गई लिहाजा येदियुरप्पा की अल्पमत सरकार का विश्वासमत के दौरान गिरना भी स्वाभाविक ही था। ऐसे में यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि चुनाव परिणाम सामने आने के बाद कर्नाटक में जो राजनतिक घटनाक्रम दिखा है वह बेहद स्वाभाविक भी है और सहज भी। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम को राजनीतिक नजरिये से देखा जाये तो यह सीधे तौर पर भाजपा की हार है और कांग्रेस की जीत। भाजपा जीती हुई बाजी हार गयी है और कांग्रेस ने हारे हुए गढ़ पर अपनी जीत का झंडा लहराने में कामयाबी हासिल कर ली है। निश्चित तौर पर कांग्रेस ने भाजपा की हलक में हाथ डालकर जीत के निवाले पर कब्जा जमाया है। लिहाजा कांग्रेस के लिये यह जीत बेहद खास भी है और यादगार भी। कांग्रेस को पूरा हक है कि वह इस जीत का खुलकर जश्न मनाए और जेडीएस के साथ मिलकर या तो साझेदारी की सरकार बनाए या फिर अपने समर्थन से उसकी सरकार बनवाए। लेकिन भाजपा के नजरिये से देखा जाये तो उसके लिये निश्चित तौर पर यह आत्मचिंतन का मसला है कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? जब बहुमत का आंकड़ा उसके पास उपलब्ध ही नहीं था और कांग्रेस ने जेडीएस को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान करते हुए तुरूप का इक्का फेंक दिया तो उस बाजी में उलझने की बेसब्री क्यों दिखाई गई। कांग्रेस का समर्थन मिल जाने के बाद जब जेडीएस के पास बहुमत का आंकड़ा स्पष्ट दिखाई पड़ गया तो फिर राज्यपाल के पास जाकर सरकार बनाने का दावा करने की जल्दबाजी करने के बजाय पहले बहुमत का आंकड़ा जुटाने की कोशिश क्यों नहीं की गई। साथ ही सवाल तो यह भी उठेगा ही कि आखिर राज्यपाल ने विश्वासमत हासिल करने के लिये येदियुरप्पा को पंद्रह दिनों की मोहलत देने की ऐतिहासिक दरियादिली क्यों दिखाई जो सुप्रीम कोर्ट को भी हजम नहीं हुई और उसे इस अवधि को कम करने के लिये विवश होना पड़ा। खैर, अब इन तमाम मसलों पर चिंतन करने और गलतियों पर माथा पीटने के लिये भाजपा की कर्नाटक इकाई के पास पर्याप्त समय है। लेकिन पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को इस पूरे प्रकरण से जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई तो नामुमकिन ही है। सच तो यह है कि चुनावी नतीजों में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने और बहुमत के लिये आवश्यक आंकड़े से महज सात सीटें ही कम होने के बावजूद भाजपा को जिस कदर भारी फजीहत का सामना करना पड़ा है उसकी मुख्य तौर पर तीन वजहें रही हैं। अव्वल तो लगातार जीत के सिलसिले को कर्नाटक में भी जारी रखने का भारी दबाव पार्टी ने अपने ऊपर ओढ़ लिया जिसके कारण उसे विकल्पहीनता की स्थिति का सामना करना पड़ा और दूसरे गोवा की ही तर्ज पर आनन-फानन में सरकार बनाकर विरोधियों को लाजवाब कर देने की बेसब्री भरी नीति पर कर्नाटक में भी अमल करना उसके लिये आत्मघाती साबित हुआ। इस सबके अलावा तीसरी सबसे बड़ी गलती प्रशासनिक स्तर पर हुई जिसमें विश्वासमत के लिये 15 दिनों के मोहलत को स्वीकार करने के बजाय इसे अधिकतम एक सप्ताह की समय सीमा में समेट दिया जाता तो सुप्रीम कोर्ट को भी इसमें दखल देने की जरूरत महसूस नहीं होती और इस बीच में आसानी से बहुमत जुटाने के लिये उपलब्ध विकल्पों को टाटोला जा सकता था। लेकिन कहावत है कि ‘जाके प्रभु दारूण दुख देहीं, वाकी मति पहिले हरि लेहीं।’ यही भाजपा के साथ भी हुआ है वर्ना पार्टी का वह शीर्ष नेतृत्व एक साथ इतनी आत्मघाती गलतियां कतई नहीं कर सकता था जो प्रतिकूल परिस्थितियों में जीत हासिल करने का चैम्पियन माना जाता हो। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

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