‘भावी चुनौतियों का तोड़ निकालने पर जोर’
गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आ जाने और कर्नाटक के अलावा तीन पूर्वोत्तरी राज्यों के विधानसभा चुनाव का औपचारिक शंखनाद होने के बीच अगले महीने होने जा रही भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चिंतन-मंथन का केन्द्र नवनियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही रहनेवाले हैं। बेशक भाजपा ने बीते दिनों हुए चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाने में कामयाबी हासिल कर ली हो लेकिन गुजरात की सरकार बचाने के लिए भाजपा को जिस कदर नाको चने चबाने पड़े उसके मद्देनजर आगामी चुनावों में कांग्रेस की ओर से मिलनेवाली कड़ी टक्कर से निपटने की राह तलाशना ही इस बार की कार्यकारिणी बैठक का मुख्य एजेंडा रहनेवाला है। खास तौर से नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के बदले हुए तेवर और कलेवर ने भाजपा की चिंताएं स्वाभाविक तौर पर बढ़ा दी हैं। यहां तक की गुजरात में भाजपा को दहाई के आंकड़े में सिमटने के लिए मजबूर करके राहुल ने अपनी बढ़ती लोकप्रियता व जनस्वीकार्यता भी साबित कर दी है। ऐसे में भाजपा कतई राहुल को अब हल्के में नहीं ले सकती और अगर आगामी चुनावों में उसे अपनी जीत का सिलसिला बरकरार रखना है तो इसके लिए उसे राहुल की ओर से मिल रही चुनौतियों का समय रहते कोई ठोस तोड़ निकालना ही होगा। वैसे भी पार्टी के तमाम शुभचिंतकों को बखूबी पता है कि जिस तरह से भाजपा के जनाधार में सेंध लगने की शुरूआत हो गई है उसे समय रहते नहीं रोका गया तो लोकसभा चुनाव में पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना निहायत ही नामुमकिन हो जाएगा। गुजरात चुनाव के नतीजों ने भाजपा को किस कदर मायूस किया है इसका सहज अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि चुनावी नतीजा सामने आने के फौरन बाद मीडिया के माध्यम से देश को संदेश देने के क्रम में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने एक बार भी यह जिक्र नहीं किया कि पिछली बार के मुकाबले इस बार उन्हें काफी कम सीटें क्यों मिली हैं। वे बार-बार वोटों में एक फीसद की बढ़ोत्तरी की दुहाई देते रहे और इसे ही बड़ी उपलब्धि बताते रहे। लेकिन अगर उनकी बात को सही माना जाए तो इस लिहाज से भी भाजपा की हार ही हुई है क्योंकि कांग्रेस के वोट में तो इस बार साढ़े चार फीसदी की वृद्धि हुई है। सच तो यह है कि बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को जितने वोट मिले थे उसे अगर विधानसभा वार देखा जाए तो पार्टी के खाते में 160 से अधिक सीटें आनी चाहिए थीं और इसी वजह से भाजपा ने भी 150 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य सामने रखकर चुनाव लड़ा था। लेकिन गुजरात में निर्णायक साबित हुआ नोटा का वह बटन जिसने कांग्रेस की दस सीटें कम करा दीं और रही सही कसर बसपा व राकांपा सरीखी तीसरी ताकतों ने पूरी कर दी जिन्होंने तकरीबन एक दर्जन से अधिक सीटों पर गैर-भाजपाई वोटों में सेंध लगाकर कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इस तरह भाजपा की जीत की पटकथा तैयार हुई और दहाई के अंकों में सिमट कर पार्टी किसी तरह अपनी सरकार बचाने में कामयाब हो गयी। लेकिन जिन परिस्थितियों में अपनी लाज बचाते हुए गुजरात की सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने में भाजपा कामयाब हुई है उसके बाद स्वाभविक तौर पर भावी रीति-नीति पर चर्चा करके निष्कंटक राह तलाशने की जद्दोजहद होनी ही है। वैसे भी अमित शाह यह स्वीकार कर चुके हैं कि गुजरात के नतीजों पर स्थानीय नेतृत्व के साथ चिंतन अवश्य किया जाएगा लेकिन वे कहें या ना कहें सच यही है कि जब गुजरात के सबसे सुरक्षित माने जानेवाले गढ़ में भाजपा को लाज का संकट उत्पन्न हो सकता है तो यह निश्चित तौर पर खतरे संकेत है और इसका राष्ट्रव्यापी असर दिखने की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नए निजाम की आक्रामकता और तेवरों ने विपक्ष का पूरा कलेवर ही बदल कर रख दिया है। गैर-भाजपाई ताकतों के बीच कांग्रेस के नेतृत्व की स्वीकार्यता को अब कहीं से भी चुनौती मिलने की उम्मीद नहीं बची है। बिखरे हुए विपक्ष का फायदा उठाते हुए भाजपा ने जो राज कायम किया है उसकी इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को तकरीबन 32 फीसदी वोट ही मिले थे जबकि उसके खिलाफ 68 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन विरोधी वोटों के बंटवारे ने लोकसभा में भी भाजपा को जीत दिलाई और आज की तारीख में 19 राज्यों में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सरकार बनवा दी है। ऐसे में विपक्ष के समक्ष सिर्फ वोटों का बिखराव रोकने की चुनौती है जबकि भाजपा को अब अपने दम पर जनसमर्थन जुटा कर सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखनी है। जाहिर तौर पर असली चुनौती का वक्त अब बेहद करीब आता जा रहा है क्योंकि इस बार मौजूदा सरकार का सही मायनों में आखिरी बजट ही पेश होना है। अगले साल इसे अंतरिम बजट के तौर पर महज औपचारिकता निभाने का ही मौका मिल पाएगा। ऐसे में अब अगले एक साल की कमाई ही वह पूंजी होगी जिसके दम पर सियासी बाजार में चुनावी बहार लूटने या गांठ की दौलत लुटाने की नौबत आएगी। लिहाजा ऐसे मौके पर होनेवाले भाजपाइयों के जुटान को पिछली मेहनत की थकान से उबार कर समय रहते जमीनी स्तर पर सक्रिय करने में हासिल होनेवाली कामयाबी ही पार्टी की भावी दशा-दिशा तय करेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
@नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur