‘पड़ोसी के साथ रिश्ते में पर्देदारी पर हंगामा’
नवकांत ठाकुर
प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरजमीं पर कदम क्या रखा, हंगामे की पोटली खुल गयी। हर तरफ हंगामा, हर तरफ गुस्सा। आक्रोश इधर भी है और उधर भी। अलबत्ता उधर तो हाफिज सईद सरीखे अमन के दुश्मन हंगामा मचा रहे हैं जबकि इधर बवाल काटनेवाले वे हैं जिनके शख्सियत की पाकीजगी पर कतई सुबहा नहीं किया जा सकता है। चाहे कांग्रेस हो या शिवसेना, यशवंत सिन्हा हों या केसी त्यागी। या फिर दिल्ली में सत्तारूढ़ एएपी ही क्यों ना हो। हर कोई प्रधानमंत्री के पाकिस्तान दौरे से बौखलाहट में है। इनके शब्द भले ही अलग हों लेकिन भाव यही है कि नरेन्द्र मोदी क्यों गये पाकिस्तान? जरूरत क्या थी वहां जाने की। दोनों मुल्कों के रिश्तों में ऐसी कौन सी तब्दीली आ गयी है जिससे बात इस हद तक पहुंच गयी कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधायी देने और उनकी नातिन की शादी से पहले मेंहदी के रस्म में शरीक होकर उसे शुभकामनाएं देने के लिये देशहित को हाशिये के हवाले करते हुए देश व विपक्ष को विश्वास में लिये बिना ही मोदी अचानक काबुल से लौटते हुए पाकिस्तान में उतर गये। मोदी के इस दौरे का विरोध करनेवालों को मलाल इस बात का है कि आखिर निजी रिश्ता निभाने के लिये पाकिस्तान की करतूतों को क्यों भुला दिया गया। मोदी कैसे भूल गये पंजाब की आग को, आतंक के झाग को, खून भरे फाग को, संसद हमले के दाग को, मुंबई के दुर्भाग्य को और गुलाम कश्मीर के भाग को। हेमराज के परिजनों की आस को, देश के विश्वास को, हजारों बेगुनाह मकतूलों के संत्रास को और पाक की नापाकियत के एहसास को भुलाकर अचानक मोदी का पाकिस्तान पहुंच जाना इस तरफ बहुतों को अखर रहा है। जाहिर है कि मोदी की इस यात्रा का विरोध इसलिये तो कतई नहीं किया जा रहा है क्योंकि उनकी राष्ट्रभक्ति पर किसी को कोई संदेह है। बल्कि किसी को आशंका यह भी नहीं है कि देशहित को अलग करके दोस्ती के लिये वे कोई ऐसा समझौता कर गुजरेंगे जिससे देश को जरा भी ठगे जाने का एहसास हो। लेकिन सवाल है पाकिस्तान की नापाक नीयत का और उसकी विश्वासघाती नीतियों का जिसके जाल में इससे पहले के हमारे कई प्रधानमंत्री फंस चुके हैं और देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। वाजपेयी बस लेकर लाहौर गये लेकिन वापसी में झेलना पड़ा कारगिल का युद्ध। मनमोहन सिंह ने सुलह की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहा तो शर्मअल शेख के समझौते में बलूचिस्तान में धधक रही अलगाववाद की आग का गुनहगार बताने की कोशिश हुई भारत को। जब मनमोहन कश्मीर मसला हल करने के करीब पहुंचे तो मुंबई पर ऐसा भीषण हमला कर दिया जिसकी चिंगारी ने गुफ्तगू के सहारे सुलह की गफलत को भस्म कर दिया। खैर, इस हकीकत को तो कतई भुलाया नहीं जा सकता है कि जितने जख्म हमें पाकिस्तान ने दिये हैं उतना किसी ने नहीं दिया। बल्कि यूं कहें तो ज्यादा सही होगा कि हमारे तमाम जख्मों, बाहरी परेशानियों, समस्याओं व सिरदर्दियों का गुनहगार इकलौता पाकिस्तान ही है। दूसरी ओर पाक की नापाकियत का सबब ना सिर्फ कश्मीर है बल्कि बांग्लादेश भी है जिसे विश्व मानचित्र पर खुदमुख्तार वजूद देने के लिये पाकिस्तान को तोड़ दिया गया। साथ ही बलूचिस्तान की आग के लिये भी वह हमें ही जिम्मेवार समझता है। यहां तक कि एक विफल राष्ट्र होने के लिये भी उसकी नजर में हम ही गुनहगार हैं और हमारे कारण ही उसे चीन और अमेरिका से लेकर विभिन्न इस्लामिक मुल्कों की खैरात का मोहताज बनना पड़ा है। यानि जख्मों से कलेजा छलनी इधर भी है और उधर भी है। उस पर तुर्रा यह कि हमारी मौजूदा सरकार ने एक ओर उसकी आतंकपरस्ती को दुनिया में बेनकाब कर दिया है जिससे वैश्विक मदद की इमदाद आधे से भी कम रह गयी है और दूसरी ओर सरहद पर उसकी फौज जम्हाई भी ले तो उसके मंुह में बारूद भर दिया जा रहा है। यहां तक कि हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने उसके लिये इतनी सिरदर्दी का सामना इकट्ठा करवा दिया है कि उसकी खुराफाती आईएसआई को अपने मसले सुलझाने से ही फुर्सत नहीं मिल रही। साथ ही कश्मीरी अलगाववादियों को औकात में रहने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। बातचीत का दरवाजा हमारी मर्जी से खुल भी रहा है और बंद भी हो रहा है। उसकी कोई शर्त स्वीकार नहीं की जा रही और आर्थिक गतिविधियां भी ऐसी हैं जिसमें भारत के हित को ही तरजीह दी जा रही है। यानि उसकी चैतरफा घेराबंदी का काम तो पूरा हो चुका है जिसमें फंसकर वह कसमसा भी रहा है और छटपटा भी रहा है। लेकिन कोई रास्ता तो खोलना ही पड़ेगा जिससे दोस्ती के लिये आवश्यक विश्वास बहाली कायम हो सके। वह रास्ता भी सियासी ही हो सकता है। उसकी सेना, आतंकी शुभचिंतकों या आईएसआई से तो बातचीत के हिमायती हम हो ही नहीं सकते। लिहाजा क्या बुरा है कि दोनों मुल्कों के शीर्ष नेता परस्पर दोस्ती का रिश्ता कायम करें और उनके रिश्ते इस हद तक सहज हों कि मेलजोल में सरहद की दीवार आड़े ना आये। वैसे भी ढि़ढ़ोरा पीटकर औपचारिक बातचीत की कोशिशों के अंजाम का इतिहास तो सर्वविदित ही है। क्यों ना टेढ़ी उंगली के बजाय एक बार सीधी उंगली से भी घी निकालने की कोशिश करें। वह भी खामोशी से, चुपके-चुपके। ताकि इन कोशिशों को किसी की नजर ना लगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’