‘मेहनत किसी और की मुनाफा किसी और का’
सैद्धांतिक तौर पर भले ही यह न्यायोचित ना हो लेकिन व्यावहारिक तौर पर अक्सर ऐसा ही होता है कि मेहनत करे कोई और मुनाफा कूटे कोई और। जीवन का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां मेहनत करनेवाले को मजदूरी के अलावा मुनाफा भी नसीब होता हो। वर्ना आर्थिक तौर पर यह होता है कि खून-पसीना एक करके फसल उगानेवाले किसान को लागत की वसूली के भी लाले पड़े रहते हैं जबकि बाजार के बिचैलियों की तिजोरी में हमेशा मुनाफे की बहार ही दिखती है। सामाजिक तौर पर भी मां का दूध व बाप का खून पीकर जवान होनेवाले फलदार पौधे को कंद-मूल सहित स्वजातीय गैर-गोत्रीय को दान कर दिये जाने की ही परंपरा है। धार्मिक परंपरा में भी यजमान की पूरे साल की कमाई का मोटा हिस्सा कर्मकांड, धार्मिक आयोजनों व दान-दक्षिणा के नाम पर पंडे-पुरोहितों की ही भेंट चढ़ जाता है। यहां तक कि राजनीति में भी अक्सर यही देखा जाता है कि मेहनत किसी और की रहती है जबकि मुनाफा किसी अन्य के हिस्से में चला जाता है। यह सिर्फ अंदरूनी तौर पर सियासी संगठनों के भीतर ही नहीं होता बल्कि बहुदलीय चुनावी प्रतिस्पर्धा में भी अक्सर ऐसा ही होता है। तभी तो उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में बहनजी की सरकार को जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा करने का काम तो सपा के अलावा भाजपा व कांग्रेस ने भी पूरी शिद्दत के साथ किया था लेकिन जब चुनावी नतीजा आया तो सत्ता के मुनाफे की मलाई में ना तो हाथ डल सका और ना ही फूल। पूरे मुनाफे से लकदक हो गयी वह सायकिल जिसके तमाम कल-पुर्जों के बीच अब तक पूरा तालमेल नहीं बन पाने के कारण बकौल अखिलेश यादव कभी यह पांच सूबेदारों की सरकार कही जाती है तो कभी साढ़े तीन मुख्यमंत्रियों की। इस बार भी यूपी की राजनीति में औरों की मेहनत का मुनाफा किसी और के खाते में जाने के आसार ही प्रबल दिख रहे हैं। हालांकि मेहनत तो सभी जी-जान से कर रहे हैं और चैथे पायदान पर खड़ी बतायी जा रही कांग्रेस ने भी जिस तरह से चुनावी समर में जोरदार शंखनाद किया है उसके मद्देनजर वह भी अपनी संभावनाएं कतई समाप्त नहीं मान रही है। लेकिन अब तक सामने आए समीकरणों की पड़ताल करने से जो तस्वीर उभर रही है उसमें ना सिर्फ कांग्रेस की मेहनत का फायदा भी सपा को ही मिलने की संभावना दिख रही है बल्कि बसपा व भाजपा के बीच भी एक-दूसरे की फसल पर कब्जा जमाने की लड़ाई ही छिड़ी नजर आ रही है। वास्तव में देखा जाये तो भले ही अब तक बहुकोणीय मुकाबले में सपा की सायकिल सबसे तेज गति से आगे बढ़ती दिख रही हो लेकिन भाजपा के कमल की सुगंध भी काफी तेजी से फैलती दिख रही थी और बसपा का हाथी भी अटकते-भटकते व लड़खड़ाते हुए अपनी लय में आने की कोशिशों में जुटा नजर आ रहा था। यानि तस्वीर ऐसी बन रही थी कि बसपा व भाजपा की जी-तोड़ मेहनत का एकमुश्त मुनाफा इन दोनों में से किसी एक के खाते में आनेवाला था जो सपा को सीधी टक्कर देकर आगे निकल सकता था। लेकिन अब कांग्रेस ने जो कूटनीति आजमाई है उससे समाजवादी खेमे में अगर आशाओं का नया संचार होता दिख रहा है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में देखा जाये शीला दीक्षित का चेहरा और राज बब्बर की ऊर्जा को आगे करके कांग्रेस ने उन सपा विरोधी वोटों में बड़ी सेंध लगाने के लिये कमर कस ली है जिसे पूरी तरह अपने पक्ष में एकजुट करने के लिये बसपा व भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ है। अब अगर विकास व सुशासन के एजेंडे पर भी चुनाव होता है तो अखिलेश का विकल्प तलाशनेवालों की जमात मायावती के अलावा शीला सरीखे ऐसे सख्त व सफल प्रशासक के बीच अवश्य विभाजित होगी जिन्होंने पंद्रह साल के शासनकाल में दिल्ली का कायापलट करके रख दिया। इसी प्रकार अगर चुनाव में जातीय लहर हावी हुई तो सूबे के जिस ब्राह्मण मतदाताओं के समर्थन से पहले बहनजी ने सोशल इंजीनियरिंग की क्रांति की थी और बाद में सपा भी दो-तिहाई बहुमत के आंकड़े के करीब तक पहुंची थी उस वोटबैंक को अगर दशकों बाद अपने समाज का मुख्यमंत्री चुनने का विकल्प मिल रहा है तो स्वाभाविक तौर पर उसकी संवेदना व सद्भावना कांग्रेस से ही जुड़ेगी और ऐसे में ब्राह्मण मतदाताओं की काफी बड़ी जमात अगर कांग्रेस की झोली में अपना वोट डाल दे तो इसे कतई अस्वाभाविक नहीं माना जाएगा। साथ ही सूबे के उन अल्पसंख्यकों को भी गुलामनबी आजाद, राज बब्बर व इमरान मसूद की तिकड़ी कांग्रेस के पक्ष में लाने की पूरी क्षमता रखती है जो सपा से बिदकने के बाद विकल्प की तलाश में हैं। यानि समग्रता में देखें तो सतही तौर पर कांग्रेस की पूरी मेहनत अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल करने और अपने वजूद को जमीनी स्तर पर मजबूत करने की दिशा में नजर आ रही हो लेकिन इसकी उसे कितनी मजदूरी मिल पाएगी इसके बारे में अभी से ठोस अंदाजा लगा पाना तो बेहद मुश्किल है। लेकिन सत्ताविरोधी वोटों को छिन्न-भिन्न करते हुए इसके काफी बड़े हिस्से पर अपना कब्जा जमाने के लिये की जा रही कांग्रेस की पूरी कसरत का असली मुनाफा सीधे तौर पर सपा को मिलने की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur