सोमवार, 26 दिसंबर 2016

‘सुलगती आंखों से छलकती नमी का निहितार्थ’

‘सुलगती आंखों से छलकती नमी का निहितार्थ’


सवाल है कि ‘आग-पानी के बीच छत्तीस का आंकड़ा है अगर, तो सुलगती आंखों में यह नमी क्यों है? कायदे से सुलगती आंखों से तो क्रोध और नफरत की चिंगारियां फूटनी चाहिये। सुर्ख निगाहों से लहू टपकना चाहिये। लेकिन हो रही है नमी की बरसात। वह भी जार-जार, लगातार। लिहाजा एक ही तस्वीर के इन विपरीत आयामों के बीच तालमेल बिठाना किसी के लिये भी दुश्वार हो सकता है। लेकिन मसला है कि दिल की बात अगर जुबां पर आ गयी तो उसका असर आत्मघाती भी हो सकता है। लिहाजा राजनीति में आग और पानी के बीच संतुलन बनाना आवश्यक भी है और मजबूरी भी। तभी तो इन दिनों देश के सियासी माहौल में दूध की धार तो नजर आ रही है लेकिन उसमें छिपा असली घी मौजूद होने के बावजूद विलुप्त है। बिल्कुल त्रिवेणी संगम की सरस्वती बन गयी वास्तविक सच्चाई। जबकि सच तो यह है कि सरस्वती की मौजूदगी ने ही तो संगम को त्रिवेणी का उच्चपद दिया है। लेकिन मसला है कि सरस्वती की मौजूदगी को सतह पर तलाशने के बजाय अक्सर गहराई में खोदाई शुरू कर दी जाती है। जबकि कायदे से त्रिवेणी के जल में से अगर किसी तकनीक के द्वारा गंगा-यमुना के अंश को अलग, विलग व पृथक कर दिया जाये तो शेष नीर निश्चित तौर पर सरस्वती का ही होगा। इसी प्रकार सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच मौजूद जनपक्ष को भी तभी समझा जा सकता है जब इन दोनों से अलग हटकर उसे देखने व तलाशने की कोशिश की जाये। इस लिहाजा से देखा जाये तो इन दिनों वास्तविक जनपक्ष पूरी तरह ओझल, गायब व नदारद दिख रहा है। हालांकि सत्तापक्ष और विपक्ष के द्वारा अपने नजरिये से जनपक्ष की मौजूदगी को दर्शाने की भरसक कोशिश हो रही है लेकिन इन दोनों पक्षों द्वारा जनपक्ष की जो तस्वीर प्रस्तुत की जा रही है वह वास्तविकता से पूरी तरह अलग है। मसलन सरकार बता रही है कि नोटबंदी जनहित के लिये की गयी है जबकि विपक्ष का आरोप है कि नोटबंदी की आड़ में जनहित पर डाका डाला गया है और यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है। यानि एक ही काम के दो विपरीत कारण और परिणाम बताये जा रहे हैं। जबकि तीसरा वास्तविक जनपक्ष यह है कि पहले भी जनता ही परेशान थी और आज भी आवाम ही हलकान है। कतार में चोरों को दिखना चाहिये था लेकिन दिख रहे आम लोग। उस पर तुर्रा यह कि नकदी की कोई कमी नहीं है। लेकिन इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि अगर कमी नहीं है तो पर्याप्त मात्रा में मिल क्यों नहीं रही। खैर, नोटबंदी के बाद पनपी परेशानियां दूर होनी शुरू हो गयी हैं और मास-दो मास में समाप्त भी हो जाएंगी। लेकिन असली सवाल है कि नोटबंदी के मामले को लेकर जिस तरह की जंग छिड़ी हुई है उसमें आखिर सत्तापक्ष और विपक्ष ने जनपक्ष को क्यों हथियार बनाया हुआ है। अपनी बात क्यों नहीं कहते? क्यों नहीं बताते कि मोदी को महानता की दरकार है इसलिये पूरी व्यवस्था की दही को मथकर मट्ठा छान रहे हैं और घी अलग कर रहे हैं। जबकि यह घी पहले भी सेहत तंदुरूस्त रखने के ही काम आ रहा था। वर्ना आठ साल पहले की व्यापक वैश्विक मंदी के दौर में सकारात्मक विकास दर बरकरार रहना कैसे मुमकिन हो सकता था। लेकिन अब तक वह घी अंदरूनी तौर पर घुला हुआ था। सतही तौर पर नदारद था। लिहाजा सतह पर उसकी चमक नहीं दिख रही थी। अब उसे अलग करके परोसने की कवायद चल रही है। ताकि उसके चमक-दमक से विश्व जगत को चकित-चमत्कृत किया जा सके। दूसरी ओर विपक्षियों में खुद को सबसे बड़ा मोदी विरोधी साबित करने की होड़ चल रही है ताकि देश के उस 68 फीसदी वोट को अपने पक्ष में एकजुट किया जा सके जिसने मोदी लहर के बावजूद 2014 में भाजपा को अस्वीकार कर दिया था। उस वोट की दिशाहीनता के कारण सामने आये पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे को पलटने के लिये उसे दिशा देने की कोशिशों में राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ही नहीं बल्कि नीतीश कुमार भी पिले हुए हैं। चाहे इसके लिये नोटबंदी का विरोध करना पड़े या फिर सेना की कार्यप्रणाली पर सियासत करनी पड़े, इनका इकलौता मकसद है खुद को मोदी के सबसे तगड़े विरोधी के तौर पर प्रस्तुत करना। तभी तो जनता मस्त है लेकिन ये लोग जनहित की दुहाई देने में व्यस्त हैं। मोदी का विरोध करने के क्रम में जो नहीं बोलना था वह भी बोला जा रहा है क्योंकि इन्हें पता है कि अब जो भी चुनाव होगा वह उनके कार्यकाल की कमियों, खामियों व गलतियों को सामने रखकर नहीं बल्कि मोदी सरकार के कामकाज को लेकर होगा। तभी तो कांग्रेसनीत संप्रग के कार्यकाल में ही अडाणी समूह पर 72,632 करोड़ और अनिल अंबानी पर 132 हजार करोड़ बाकी रहने और 2004-05 से लेकर 2012-13 के बीच विभिन्न कंपनियों का 36.5 लाख करोड़ का कारपोरेट कर्ज माफ किये जाने के बावजूद मोदी सरकार को ही अडाणी-अंबानी व कारपोरेट क्षेत्र का पैरोकार बताया जा रहा है। लेकिन अपनी बात कोई नहीं कर रहा। खैर, सच तो यह है कि गंगा-यमुना में कितना ही उफान क्यों ना आ जाये लेकिन सरस्वती सरीखे विशुद्ध जनपक्ष की अविरण-निर्मल धार ही त्रिवेणी का वास्तविक स्वरूप पहले भी तय करती आयी है और आगे भी करती रहेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

‘....मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’

‘....मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’


उल्टे-सीधे वायदे करके सियासी जमात के लोग तो हमेशा से ही आम लोगों को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। लेकिन शायद यह पहला मौका है जब जनता को अपने मायावी सम्मोहक जाल में उलझानेवाले इन दिनों खुद ही उलझन में हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें। किस दिशा में आगे बढ़ें। धारा के साथ बहें या उसके विपरीत दिशा में तैरने की कोशिश करें। किसी को कुछ पता नहीं चल रहा। सभी पूरी ताकत से हाथ-पांव मारते हुए बहे जा रहे हैं, चले जा रहे हैं। कभी धारा के साथ तो कभी धारा के विपरीत। कभी इस दिशा तो कभी उस दिशा। इस उलझन में इनकी बुद्धि इस कदर भ्रमित हो गयी है कि जापान जाने के लिये चीन की राह पकड़ ले रहे हैं। हालांकि मुल्क के सियासी रहनुमाओं की इस दिशाहीनता का सीधा खामियाजा देश के जन सामान्य को अवश्य भुगतना पड़ रहा है लेकिन सिर्फ जनता ही है जिसके चेहरे पर सही दिशा में आगे बढ़ने की खुशी स्पष्ट दिख रही है। वर्ना बाकी सभी पर गफलत ही हावी है। मतिभ्रम की स्थिति में सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष ही नहीं बल्कि न्यायपालिका और कार्यपालिका भी दिख रही है। तभी तो जनहित याचिका दायर करने का रिकार्ड कायम करने की दिशा में आगे बढ़ रहे अश्विनी उपाध्याय से न्यायपालिका तंज कसते हुए पूछ रही है कि क्या उन्होंने इस काम को ही अपना पेशा बना लिया है? भाई, वकील का तो काम ही है याचिका दाखिल करके इंसाफ की मांग करना। इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह क्यों और किसके लिये याचिका दाखिल कर रहा है। लेकिन अदालत को चुभ गयी तो चुभ गयी। अब अदालती टिप्पणी की आलोचना तो की नहीं जा सकती। लेकिन इससे यह तो समझा ही जा सकता है कि अदालतें किस मानसिक अवस्था से गुजर रही हैं। आलम यह है कि सरकार को सिर्फ सालाना बजट बनाने की ही स्वतंत्रता मिली हुई है वर्ना बाकी हर काम में उसे अदालत का अड़ंगा झेलना पड़ रहा है और उसे अदालती सम्मति से ही कोई भी काम करने की छूट हासिल है। लेकिन अब जबकि नोटबंदी के मसले पर भी अदालत ने सरकार का हाथ-पांव बांधने की दिशा में कदम आगे बढ़ा दिया है तब किसी को भी ऐसा लगना स्वाभाविक ही है कि अब शायद देश की अर्थव्यवस्था का मनमुताबिक संचालन करने की स्वतंत्रता भी सरकार के पास ज्यादा दिनों तक ना बचे। ऐसा ही हाल बैंकों का है जिसे सरकार ने हर बचतखाता धारक को सप्ताह में 24 हजार रूपया निकासी की सुविधा देने का निर्देश दिया हुआ है। लेकिन बैंक में कहां, किसको और कितनी रकम मिल पा रही है इससे सभी वाकिफ हैं। नोटबंदी के बाद बैंककर्मियों ने शायद खुद को खुदा के समकक्ष समझ लिया था वर्ना आज यह नौबत नहीं आती कि सत्ताधारी दल को उनके कामकाज के प्रति सार्वजनिक तौर पर अफसोस का इजहार करने के लिये मजबूर होना पड़े। निश्चित तौर पर इसे व्यवस्था का मतिभ्रम ही माना जाएगा जिसके चक्कर में पड़कर उसने आम लोगों को घनचक्कर बनाकर अपना चक्कर चलाने की गुस्ताखी की। यही हालत विपक्ष की भी दिख रही है जिसे ना आगे की राह सूझ रही है और ना ही पीछे का दरवाजा दिख रहा है। विपक्ष के मतिभ्रम का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस राज्यसभा में उसे बहुमत हासिल है वहां उसने नोटबंदी के मसले पर साधारण नियम के तहत चर्चा स्वीकार कर ली लेकिन जिस लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर दावा करने लायक आंकड़ा भी उसके पास उपलब्ध नहीं हैं वहां उसने मतदान की व्यवस्थावाले नियम के तहत बहस कराने की ऐसी जिद पकड़ी कि संसद का पूरा शीतसत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया। कांग्रेस अंत तक यह तय नहीं कर पायी कि उसे संसद में क्यों और कैसी भूमिका अख्तियार करनी है। नतीजन सत्र गुजर जाने के बाद भी कोई कांग्रेसी नेता दो-टूक शब्दों में यह बताने की स्थिति में नहीं दिख रहा है कि शीतसत्र का अंजाम लाभदायक रहा अथवा नुकसानदायक। सरकार भी मतिभ्रम की ऐसी ही स्थिति से दो-चार होती दिख रही है। इसने एक झटके में ही नोटबंदी का फैसला तो ले लिया लेकिन इसे लागू करने की ठोस राह पर आगे बढ़ने में वह नाकाम रही। तभी तो दैनिक आधार पर नियमों का निर्धारण भी हुआ और निस्तारण भी। कोई एक दिशा तय ही नहीं हुई है। तभी तो मान्यता सूची में शामिल देश के सभी 1761 राजनीतिक दलों को अपने खाते में पुराने नोट जमा कराने की छूट दे दी गयी है। जाहिर है कि इस छूट का लाभ सभी सात राष्ट्रीय, 48 क्षेत्रीय और 1706 जाने-अंजाने दलों को मिलनेवाला है। वह भी तब जबकि राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा अंजाम दी जा रही कालेधन को सफेद करने की कारस्तानी का स्टिंग आॅपरेशन भी सामने आ चुका है। मतिभ्रम का आलम यह है कि एक तरफ नकदी के संकट ने बैंकिंग व्यवस्था की साख को सवालों में ला दिया है और दूसरी तरफ छोटी बचत योजनाओं पर नाम मात्र ब्याज की परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है। खैर, ऐसी तमाम घटनाओं को समग्रता में देखने से इतना तो पता चल ही रहा है कि सामान्य परिस्थितियों में तो सिर्फ आवाम ही दिग्भ्रमित होती है लेकिन वक्त की चुनौतियां निजाम को भी दिग्भ्रमित करने की पूरी क्षमता रखती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  
@ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur  

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला....

‘रहिमन विपदा हूं भली, जो थोरे दिन होय’ 

रहीम ने थोड़े दिनों के लिये आये उन कठिन व मुश्किल परिस्थितियों को इस लिहाज से बेहतर बताया है कि वे आती तो सीमित समय के लिये हैं लेकिन असीमित लोगों की भीड़ में शामिल दोस्तों और दुश्मनों की सटीक पहचान करा दे जाती है। वाकई विपदा के वक्त सिर्फ विरोधी ही अपना हिसाब चुकता करने का प्रयास नहीं करते बल्कि दोस्तों की भीड़ में शामिल दुश्मन भी अपना बदला लेने के लिये सक्रिय हो जाते हैं। फिलहाल ऐसी ही परिस्थिति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी घिरते दिख रहे हैं जिसमें विरोधियों की चैतरफा घेरेबंदी के बीच अब उन अपनों ने भी उन पर प्रहार करने का जुगाड़ तलाशना शुरू कर दिया है जो अब तक उनके प्रभाव के सामने विरोध करने के मौके का अभाव झेल रहे थे। हालांकि जिन कठिन परिस्थितियों का मोदी को सामना करना है उसका वक्त भी उन्होंने ही मुकर्रर किया है, जमीन भी उन्होंने ही तैयार की है और वार के लिये हथियार का चयन भी उन्होंने ही किया है। लिहाजा अब जबकि जंग छिड़ने में सिर्फ पंद्रह दिन का वक्त बच गया है तब इसका सामना तो उन्हें करना ही होगा। वापसी का कोई रास्ता छोड़ना तो वैसे भी उनकी फितरत में नहीं है। लिहाजा टक्कर तो होगी। हिसाब तो मांगा ही जाएगा। आखिर पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत कर देने का वायदा भी तो उन्होंने ही किया था। हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रूपया आने की बात को भले ही चुनावी जुमला बताकर पल्ला झाड़ लिया गया हो। लेकिन इस दफा तो बचने की वह राह भी नहीं है क्योंकि पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत करने की बात वे लगातार करते आ रहे हैं। उनके इस दावे ने ही सियासी टकराव की ऐसी जमीन तैयार कर दी है जिस पर खड़े होकर विरोधियों के हमले का सामना करने के अलावा अब उनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है। हालांकि लंबी-चैड़ी आंकड़ेबाजी में उलझने के बजाय सीधे-सादे शब्दों में समझा जाये तो नोटबंदी के कारण जितनी धनराशि को प्रचलन से बाहर किया गया था उसमें से तकरीबन दो-तिहाई बैंकों में जमा कराया जा चुका है और जितनी धनराशि से देश की पूरी अर्थव्यवस्था संचालित हो रही थी उसका आधा हिस्सा नये नोटों की शक्ल में लोगों को लौटाया जा चुका है। यानि पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत करने के वायदे का आधा हिस्सा तो पूरा हो चुका है। लिहाजा प्रधानमंत्री की नजर से देखें तो ग्लास आधा भरा जा चुका है जबकि वायदा पूरा करने के लिये मांगे गये वक्त का दो-तिहाई हिस्सा गुजर जाने के बावजूद विरोधियों के नजरिये से ग्लास अभी तक आधा खाली ही है। दूसरी ओर जिस रफ्तार से काम चल रहा है उसे देखते हुए यह उम्मीद करना ही बेकार है कि अगले 15 दिनों में उतना काम पूरा कर लिया जाएगा जितना बीते 35 दिनों में किया जा चुका है। यानि मोदी की नजर और विरोधियों के नजरिये के बीच भीषण संघर्ष तो तय ही है। इसके लिये विरोधियों ने पूरी तैयारी भी कर रखी है। मोदी की वायदाखिलाफी के खिलाफ यूपी में चैतरफा चढ़ाई होनेवाली है तो बिहार में लालू के लाल भी कमाल कर दिखाने के लिये लालायित हैं। पश्चिम बंगाल में ममता के मुरीदों की टोली सड़क पर उतरेगी तो दिल्ली में आप के जनाबों की फौज पूरा हिसाब मांगेगी। कांग्रेस ने तो इसे अब तक का सबसे बड़ा घोटाला बताना अभी से शुरू कर दिया है। जाहिर है कि पचास दिन पूरा होने के बाद उसके विरोध का जलवा-जलाल देखने लायक होगा। इसके अलावा और भी कई छोटे मियां व बड़े मियां हैं जिनके तेवरों की तान पूरा आसमान सिर पर उठाने का अक्सर ऐलान करती रहती हैं। यानि समग्रता में देखें तो विरोधियों के हौसले पूरी तरह बुलंद हैं क्योंकि अब मामला सिर्फ नोटबंदी का नहीं है। बात उस बात की है जो बातों ही बातों में कह तो दी गयी है लेकिन उसके तय वक्त पर पूरा हो पाने की बात बनती नहीं दिख रही। हालांकि विरोधियों के एकजुट हमले का सामना मोदी पहले भी करते रहे हैं और इस बार भी कर ही लेंगे। लेकिन असली दर्द तो अपनों की ओर से दिये जाने की संभावना है जो मौके की ताक में पहले से ही बैठे हुए हैं। बताया जाता है कि ना सिर्फ मार्गदर्शकों का मंडल कुपित होकर कमंडल उठाने के लिये तैयार बैठा है बल्कि मौजूदा केबिनेट के उन रत्नों की लालिमा भी लगातार बढ़ती जा रही है जिन्हें लत्ते में लपेटकर किनारे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी थी। यानि इम्तहान लेने की तैयारी में अपने भी हैं और बेगाने भी। इसमें बेगानों के लिये वक्त तो मोदी ने खुद ही मुकर्रर कर दिया है जबकि सगे-संबंधियों को संगठन की ओर से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की शक्ल में मौका और मंच मुहैया कराया जा रहा है। बेगाने हिसाब मांगेंगे 28 से और अपनों को हिसाब देना होगा आठ को। दोनों के बीच फासला दस दिनों का रहेगा। लिहाजा इन दस दिनों के सीमित समय में ही अपने-परायों की पूरी पहचान हो जानी है। आक्रमण के पहले चरण की सफलता ही तय करेगी अंदरूनी हमले की आक्रामकता। टकराव आधा खाली बनाम आधा भरे का होना है जिसके बारे में फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि ‘अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला, जिस दिये में जान होगी वह जला रह जायेगा।’ जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # NAVKANT THAKUR

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

'और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा '

और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा 


‘और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ लेकिन यह बात उस आशिक को कैसे समझायी जाये जिसने इश्क के जुनून की आग में जिस्म ही नहीं बल्कि रूह भी झोंक देने का इरादा कर लिया हो। जरूरी नहीं है कि इश्क सिर्फ किसी हाड़-मांस की महबूबा से ही हो। जुनूनी चाहत किसी और लक्ष्य को हासिल करने की भी हो सकती है। मिसाल के तौर पर इन दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से देश की अर्थव्यवस्था को साफ-सुथरा और सुदृढ़ बनाने के लिये जुनूनी तरीके से अपने जिस्मो-जां सहित रूह तक को झोंक दिया वह बेशक महबूब वतन से उनके बेइंतहा मोहब्बत को ही दर्शाता है। लेकिन इश्क की राह पर आगे बढ़ने के क्रम में जिस तरह से बाकी मसलों, तथ्यों व जरूरतों की अनदेखी की गई है उसे कैसे सही कहा जा सकता है। इन राहों पर बदइंतजामी की बदनामियों से जुड़ी कहानियां अगर लगातार जोर पकड़ती दिख रही हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह वह जुनूनी जिद ही है जिसको पूरा करने के जोश में अगर होश की डोर को भी पकड़े रहने की पहल की गयी होती तो आज तस्वीर दूसरी होती। लेकिन जिस तरह से पूरा देश अव्यवस्था व अस्त-व्यस्तता के दौर से गुजर रहा है उसकी बड़ी जिम्मेवारी तो मोदी साहब की बनती है। वे कैसे इस जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ सकते हैं कि उन्होंने परिणाम की परवाह किये बिना ही निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर कदम आगे बढ़ाने की कोशिश की है। मसलन ऐसे देश के लिये कैशलेस व्यवस्था को लागू करने का सपना देखना कैसे सही माना जा सकता है जहां की 26 फीसदी आबादी के लिये आज भी काला अक्षर भैंस बराबर ही है। इसका मतलब तो यही हुआ कि एक-चैथाई से भी अधिक तादादवाली निरक्षर आबादी के हितों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। इसके अलावा इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये था कि जिन 76 फीसदी लोगों तक शिक्षा का उजाला पहुंच चुका है उनमें कितनों की आर्थिक हैसियत ऐसी है कि वे हर महीने अपने मोबाइल में कम से कम 150 रूपये का डाटा पैक डलवा सकते हैं। क्योंकि इसके बिना तो ई-वाॅलेट की परिकल्पना साकार हो ही नहीं सकती। आज भी देश के अधिकांश इलाकों में 8 से 10 घंटे की बिजली कटौती होना बेहद ही सामान्य बात है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को इंटरनेट के प्लेटफाॅर्म से संचालित करने में आम लोगों को ही नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है इसकी शायद उन लोगों ने कल्पना भी नहीं की होगी जिन्होंने देश को कैशलेस व्यवस्था की ओर ले जाने की सलाह दी है। खैर, कैशलेस व्यवस्था का विचार तो अभी सैद्धांतिक तौर पर ही अपनाया गया है और माना जा सकता है कि नकदी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने में पेश आ रही परेशानियों के तात्कालिक हल के तौर पर इस विचार को आगे बढ़ाया जा रहा है जिसका दूरगामी परिणाम बेहद ही लाभदायक साबित हो सकता है। लेकिन मसला है कि आखिर ऐसी मजबूरी और लाचारी की स्थिति पैदा ही क्यों होने दी गयी। आखिर इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा? बिना किसी पूर्व तैयारी या इंतजाम के ही देश की अर्थव्यवस्था से 86 फीसदी नकदी को अचानक ही चलन से बाहर कर देने का फैसला भले ही कालाधन, भ्रष्टाचार और नकली नोट की समस्या से एक साथ ही निजात हासिल करने के लिये लिया गया हो लेकिन इस फैसले को लागू करने की जो कीमत देश के आम लोगों को चुकानी पड़ रही है वह वाकई बहुत बड़ी है। सच तो यह है कि बैंकिंग व्यवस्था का विकास और संसाधनों का विस्तार किये बिना ही इतना बड़ा कदम उठाने की जल्दबाजी के कारण ही आज लोगों को इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। भला यह भी कोई बात हुई। खाते में पैसा है लेकिन निकाल नहीं सकते। अपना ही पैसा किसी और के खाते में डाल नहीं सकते। अपनी खून-पसीने की कमाई को मनमुताबिक खर्च नहीं कर सकते। यह तो इंतहा है अव्यवस्था की। वह भी तब जबकि नोटबंदी का ऐलान हुए एक महीना होने को आया। उस पर कोढ़ में खाज यह कि बाजार ने सरकार की मार का बदला उपभोक्ताओं से लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कभी नमक की किल्लत बताकर डेढ़ सौ रूपये की दर से बेचा जाता है तो कभी उत्पादन में कमी की दलील देकर सामान की कीमतें बढ़ा-चढ़ाकर वसूली जाती हैं। खास तौर से खाद्य पदार्थों की कीमतों में जिस कदर लगातार तेजी का माहौल है वह वाकई हैरान-परेशान करनेवाला है। आटा-चीनी व चावल से लेकर तेल-बेसन और अदरक-लहसुन तक की खुदरा कीमतों में पिछले महज एक माह में 25 से 40 फीसदी तक का इजाफा दर्ज किया जा चुका है। यानि एक तरफ लोगों को बैंक की लंबी कतारों में लगने के बावजूद नकदी नहीं मिल पा रही और दूसरी ओर बाजार के बिचैलिये उसका खून चूसने पर आमादा हैं। लेकिन निजाम नोटबंदी से जुड़ी नीतियां बनाने में मस्त है, आवाम चैतरफा मार झेलते हुए पस्त है और देश की पूरी आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त है। लिहाजा किसी को इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वह बाकी मसलों की ओर झांकने की भी जहमत उठाये। अब कौन, किसको, कैसे और क्यों बताये कि और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur