‘सुलगती आंखों से छलकती नमी का निहितार्थ’
सवाल है कि ‘आग-पानी के बीच छत्तीस का आंकड़ा है अगर, तो सुलगती आंखों में यह नमी क्यों है? कायदे से सुलगती आंखों से तो क्रोध और नफरत की चिंगारियां फूटनी चाहिये। सुर्ख निगाहों से लहू टपकना चाहिये। लेकिन हो रही है नमी की बरसात। वह भी जार-जार, लगातार। लिहाजा एक ही तस्वीर के इन विपरीत आयामों के बीच तालमेल बिठाना किसी के लिये भी दुश्वार हो सकता है। लेकिन मसला है कि दिल की बात अगर जुबां पर आ गयी तो उसका असर आत्मघाती भी हो सकता है। लिहाजा राजनीति में आग और पानी के बीच संतुलन बनाना आवश्यक भी है और मजबूरी भी। तभी तो इन दिनों देश के सियासी माहौल में दूध की धार तो नजर आ रही है लेकिन उसमें छिपा असली घी मौजूद होने के बावजूद विलुप्त है। बिल्कुल त्रिवेणी संगम की सरस्वती बन गयी वास्तविक सच्चाई। जबकि सच तो यह है कि सरस्वती की मौजूदगी ने ही तो संगम को त्रिवेणी का उच्चपद दिया है। लेकिन मसला है कि सरस्वती की मौजूदगी को सतह पर तलाशने के बजाय अक्सर गहराई में खोदाई शुरू कर दी जाती है। जबकि कायदे से त्रिवेणी के जल में से अगर किसी तकनीक के द्वारा गंगा-यमुना के अंश को अलग, विलग व पृथक कर दिया जाये तो शेष नीर निश्चित तौर पर सरस्वती का ही होगा। इसी प्रकार सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच मौजूद जनपक्ष को भी तभी समझा जा सकता है जब इन दोनों से अलग हटकर उसे देखने व तलाशने की कोशिश की जाये। इस लिहाजा से देखा जाये तो इन दिनों वास्तविक जनपक्ष पूरी तरह ओझल, गायब व नदारद दिख रहा है। हालांकि सत्तापक्ष और विपक्ष के द्वारा अपने नजरिये से जनपक्ष की मौजूदगी को दर्शाने की भरसक कोशिश हो रही है लेकिन इन दोनों पक्षों द्वारा जनपक्ष की जो तस्वीर प्रस्तुत की जा रही है वह वास्तविकता से पूरी तरह अलग है। मसलन सरकार बता रही है कि नोटबंदी जनहित के लिये की गयी है जबकि विपक्ष का आरोप है कि नोटबंदी की आड़ में जनहित पर डाका डाला गया है और यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है। यानि एक ही काम के दो विपरीत कारण और परिणाम बताये जा रहे हैं। जबकि तीसरा वास्तविक जनपक्ष यह है कि पहले भी जनता ही परेशान थी और आज भी आवाम ही हलकान है। कतार में चोरों को दिखना चाहिये था लेकिन दिख रहे आम लोग। उस पर तुर्रा यह कि नकदी की कोई कमी नहीं है। लेकिन इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि अगर कमी नहीं है तो पर्याप्त मात्रा में मिल क्यों नहीं रही। खैर, नोटबंदी के बाद पनपी परेशानियां दूर होनी शुरू हो गयी हैं और मास-दो मास में समाप्त भी हो जाएंगी। लेकिन असली सवाल है कि नोटबंदी के मामले को लेकर जिस तरह की जंग छिड़ी हुई है उसमें आखिर सत्तापक्ष और विपक्ष ने जनपक्ष को क्यों हथियार बनाया हुआ है। अपनी बात क्यों नहीं कहते? क्यों नहीं बताते कि मोदी को महानता की दरकार है इसलिये पूरी व्यवस्था की दही को मथकर मट्ठा छान रहे हैं और घी अलग कर रहे हैं। जबकि यह घी पहले भी सेहत तंदुरूस्त रखने के ही काम आ रहा था। वर्ना आठ साल पहले की व्यापक वैश्विक मंदी के दौर में सकारात्मक विकास दर बरकरार रहना कैसे मुमकिन हो सकता था। लेकिन अब तक वह घी अंदरूनी तौर पर घुला हुआ था। सतही तौर पर नदारद था। लिहाजा सतह पर उसकी चमक नहीं दिख रही थी। अब उसे अलग करके परोसने की कवायद चल रही है। ताकि उसके चमक-दमक से विश्व जगत को चकित-चमत्कृत किया जा सके। दूसरी ओर विपक्षियों में खुद को सबसे बड़ा मोदी विरोधी साबित करने की होड़ चल रही है ताकि देश के उस 68 फीसदी वोट को अपने पक्ष में एकजुट किया जा सके जिसने मोदी लहर के बावजूद 2014 में भाजपा को अस्वीकार कर दिया था। उस वोट की दिशाहीनता के कारण सामने आये पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे को पलटने के लिये उसे दिशा देने की कोशिशों में राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ही नहीं बल्कि नीतीश कुमार भी पिले हुए हैं। चाहे इसके लिये नोटबंदी का विरोध करना पड़े या फिर सेना की कार्यप्रणाली पर सियासत करनी पड़े, इनका इकलौता मकसद है खुद को मोदी के सबसे तगड़े विरोधी के तौर पर प्रस्तुत करना। तभी तो जनता मस्त है लेकिन ये लोग जनहित की दुहाई देने में व्यस्त हैं। मोदी का विरोध करने के क्रम में जो नहीं बोलना था वह भी बोला जा रहा है क्योंकि इन्हें पता है कि अब जो भी चुनाव होगा वह उनके कार्यकाल की कमियों, खामियों व गलतियों को सामने रखकर नहीं बल्कि मोदी सरकार के कामकाज को लेकर होगा। तभी तो कांग्रेसनीत संप्रग के कार्यकाल में ही अडाणी समूह पर 72,632 करोड़ और अनिल अंबानी पर 132 हजार करोड़ बाकी रहने और 2004-05 से लेकर 2012-13 के बीच विभिन्न कंपनियों का 36.5 लाख करोड़ का कारपोरेट कर्ज माफ किये जाने के बावजूद मोदी सरकार को ही अडाणी-अंबानी व कारपोरेट क्षेत्र का पैरोकार बताया जा रहा है। लेकिन अपनी बात कोई नहीं कर रहा। खैर, सच तो यह है कि गंगा-यमुना में कितना ही उफान क्यों ना आ जाये लेकिन सरस्वती सरीखे विशुद्ध जनपक्ष की अविरण-निर्मल धार ही त्रिवेणी का वास्तविक स्वरूप पहले भी तय करती आयी है और आगे भी करती रहेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur