विज्ञान की नजर में निर्वात की परिकल्पना सैद्धांतिक ही है, व्यावहारिक कतई नहीं है। प्रकृति के किसी भी आयाम में निर्वात के लिये कोई स्थान नहीं है। बल्कि यूं कहें तो गलत नहीं होगा कि निर्वात की अवस्था ही अपने आप में अप्राकृतिक है। प्रकृति हमेशा इसके सख्त खिलाफ रहती है और इसके अस्तित्व को मिटाने के लिये हमेशा प्रयत्नशील रहती है। ऐसा प्रकृति के हर आयाम में दिखता है। प्रकृति की ही तरह राजनीति में भी निर्वात के लिये कहीं कोई जगह नहीं होती। सैद्धांतिक तौर पर भले ही निर्वात की अवस्था दिखाई पड़े लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह संभव ही नहीं है। खास तौर से तात्कालिक तौर पर तो कभी निर्वात यानि शून्यता की स्थिति बनती ही नहीं है। इसकी परिकल्पना को हमेशा दूरगामी तौर पर ही दिखाया-बताया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हालिया दिनों तक यह बताया जा रहा था कि मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी का कोई दूसरा विकल्प उभर कर सामने आ ही नहीं सकता। लेकिन कल तक दूर से दिखाई पड़नेवाली निर्वात, शून्यता अथवा विकल्पहीनता की परिकल्पना का आज की तारीख में कोई अस्तित्व ही महसूस नहीं हो रहा है। बल्कि अब तो यह चर्चा भी तेजी से जोर पकड़ रही है कि मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल भी पाएगा या नहीं? खास तौर से हालिया चुनावों में कांग्रेस को मिली संजीवनी से स्पष्ट हो गया कि भाजपा की राहें उतनी आसान नहीं रहनेवाली हैं जितना उसने भौकाल बनाया हुआ है। साथ ही इन चुनावों से यह भी साफ हो गया कि इस बार क्षेत्रीय दलों के उभार को रोक पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल होगा। इसमें भाजपा के लिये सबसे परेशानी की स्थिति वह होती जिसमें उसके तमाम विरोधी एक मंच पर एकत्र हो जाते। हालांकि इसकी कोशिशें बहुत हुईं लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल सका। समाजवादियों के विलय की बात आई तो जिस सपा को अगुवा बनाने की कोशिश की गई उसने ही अपनी पहचान मिट जाने की चुनौती से डर कर किनारा कर लिया। उसके बाद संयुक्त मोर्चा बनाने की बात आई तो नेतृत्व के सवाल पर मामला बिगड़ गया। बाद में कांग्रेस ने अपनी अगुवाई में राष्ट्रव्यापी महागठजोड़ बनाने का प्रयास किया तो प्रधानमंत्री पद पर उसकी दावेदारी को स्वीकार्यता नहीं मिलने के कारण उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े। यहां तक कि क्षेत्रीय दलों का प्रदेश स्तरीय मोर्चा बनाने के ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और शरद पवार के प्रयास भी सफल नहीं हो सके। यानि विपक्ष को एक मंच पर लाना तराजू पर मेढ़क तौलने सरीखा दुरूह काम ही बना रहा। लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। लिहाजा भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा रोकने की राह अब स्पष्ट तौर पर निकलती दिखाई पड़ रही है और इसकी नींव रखी है तेलंगाना के मुख्यमंत्री व टीआरएस सुप्रीमो के चंद्रशेखर राव ने। दरअसल अब तक के तमाम प्रयास इस वजह से फलीभूत नहीं हो सके क्योंकि किसी एक दल की राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी हैसियत ही नहीं थी कि वह विपक्ष की धुरी बन सके। लिहाजा अब दो-स्तरीय घेरेबंदी का फार्मूला अमल में लाया जा रहा है और प्रयास हो रहा है कि जिन सूबों में कांग्रेस की स्थिति और उपस्थिति मजबूत है वहां कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चाबंदी की जाये और जहां कांग्रेस को साथ लेने से कोई फायदा मिलने की उम्मीद नहीं है अथवा जिस सूबे की क्षेत्रीय ताकतें अपने इलाके में कांग्रेस को दोबारा पनपने व बढ़ने का मौका नहीं देना चाहती वह कांग्रेस व भाजपा से बराबर दूरी कायम करते हुए गठित होनेवाले फेडरल फ्रंट को अपना समर्थन दे। इस फेडरल फ्रंट के गठन की परिकल्पना को अमली जामा पहनाने के लिये ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ चंद्रशेखर राव की बातचीत का पहला चरण भी पूरा हो गया है। इसके अलावा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ भी उनकी मुलाकात होनेवाली है जो अपने विधायक को मध्य प्रदेश में मंत्री नहीं बनाए जाने के कारण कांग्रेस से नाराज बताए जा रहे हैं। इस फ्रंट के घटक दलों में सभी अलग-अलग सूबों के क्षत्रप हैं लिहाजा चुनाव होने तक किसी की महत्वाकांक्षा आपस में नहीं टकराने वाली है। ना तो टीडीपी और सपा-बसपा के बीच सीट समझौते का कोई सवाल पैदा होता है और ना ही बीजेडी का तृणमूल कांग्रेस के साथ। यानि महत्वाकांक्षाओं के टकराव की फिलहाल कोई संभावना ही नहीं है। अलबत्ता इस फ्रंट के गठन से जमीनी स्तर पर यह संदेश तो जाएगा ही कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा भी कोई तीसरा विकल्प है जिसके घटक दलों में कोई तनाव और विवाद नहीं है और वे सभी अलग-अलग सूबों में सफलता के साथ सरकार चला रहे हैं अथवा चला चुके हैं। निश्चित ही इस पहल से तीसरे विकल्प की मजबूती के प्रति मतदातओं को आश्वस्त किया जा सकेगा। हालांकि इस पूरे समीकरण में भाजपा इतनी ही उम्मीद पाल सकती है कि उसके विरोधी वोटों का बंटवारा हो जाए और त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में उसे जीत की राह पर आगे निकलने का मौका मिल जाए। लेकिन इस संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता है कि भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा ही ना हो और जिस सीट पर कांग्रेसनीत महागठजोड़ और फेडरल फ्रंट में से जिसकी बढ़त बने उसके पक्ष में ही भाजपा विरोधी मतों का ध्रुवीकरण हो जाए। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया। @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018
गुरुवार, 20 दिसंबर 2018
‘सत्ता-पक्ष और मुख्य-विपक्ष पर हावी होता तीसरा-पक्ष’
यूपी में कांग्रेस को किनारे धकेल कर बबुआ-बुआ और ताऊ की संयुक्त ताकत से सियासत की नई इबारत लिखने की हो रही कोशिश कतई अप्रत्याशित नहीं है। बहनजी ने तो काफी पहले ही अपने इरादों का इजहार कर दिया था कि वे इस बार केन्द्र में मजबूत नहीं बल्कि मजबूर सरकार बनवाने के पक्ष में हैं। काफी हद तक ऐसी ही चाहत अखिलेश यादव की सपा, शरद पवार की राकांपा, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी सरीखे ऐसे दलों की भी है जिन्होंने इस बार अपने हक में सत्ता का छींका टूटने की उम्मीद बांध रखी है। ये वो दल हैं जिनका प्रभाव क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इनमें से हर कोई तीसरी सबसे बड़ी ताकत के तौर पर उभरने की पूरी काबलियत रखता है। लिहाजा इन सबके बीच इस बात पर तो पूरी तरह आम सहमति का माहौल है कि इस बार केन्द्र में संसद का स्वरूप त्रिशंकु रहे और जोड़-तोड़ व जुगाड़ के बिना कोई सरकार ना बना पाए। लेकिन मसला है कि त्रिशंकु जनादेश की सूरत में मजबूर सरकार तो तब बनेगी जब संसद में किसी दल को ना तो बहुमत हासिल होगा और ना ही उसकी स्थिति ऐसी होगी कि सिर्फ दो-तीन बड़े दलों के समर्थन से बहुमत के जादूई आंकड़े को हासिल कर ले। यानि देश की दोनों सबसे बड़ी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस जब अधिकतम डेढ़ सौ सीटों के नीचे सिमटेंगी तभी तीसरी ताकतों की किस्मत से सत्ता का छींका टूटने की संभावना बन पाएगी। हालांकि भाजपा को कमजोर करने की कोशिश कर रहे भीतराघाती सहयोगियों की ओर से भी ऐसा प्रयास अवश्य किया जाएगा और पांच राज्यों का चुनावी नतीजा सामने आने के बाद इस संभावना को काफी बल मिला है कि अगर क्षेत्रीय ताकतें अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए भाजपा को फैलने और फलने-फूलने के लिये पर्याप्त सीटों पर लड़ने का मौका ना दें तो भगवा खेमा भी चुनाव के बाद जोड़-तोड़ और जुगाड़ के बिना दोबारा अपनी सरकार नहीं बना पाएगा। इसी संभावना को भुनाने के लिये अब रामविलास पासवान की लोजपा ने भी बिहार के अलावा यूपी-झारखंड में हिस्सेदारी के लिये त्यौरियां दिखानी शुरू कर दी हैं और शिवसेना की उम्मीदें और अपेक्षाएं भी कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके अलावा अभी छोटे क्षेत्रीय दलों की मांगों का सामने आना और उस पर विचार होना तो बाकी ही है। यानि राजग के घटक दलों की कोशिश निश्चित ही यही रहेगी कि वे चुनाव लड़ने के लिये अधिकतम सीटें प्राप्त करें ताकि चुनाव के बाद भगवा खेमे की उन पर निर्भरता बढ़े जिससे संसदीय भागीदारी के अनुपात में सत्ता की मलाई में अधिकतम हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सके। दूसरी ओर विपक्षी खेमे में भी इस बात का पुरजोर प्रयास हो रहा है कि भाजपा के स्वाभाविक विकल्प के तौर पर कांग्रेस को कतई नहीं उभरने दिया जाये। इसी सोच के तहत कांग्रेस को किनारे लगाने की कोशिश यूपी में भी होती हुई दिखाई पड़ रही है और इसी रणनीति क तस्वीर तीन राज्यों में हुई कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की ताजपोशी के मंच पर भी दिखाई पड़ी। उस शपथ ग्रहण समारोह से केवल सपा और बसपा ने ही किनारा नहीं किया बल्कि पवार-ममता सरीखे विपक्ष के दिग्गज छत्रप भी नदारद रहे। दरअसल भाजपा से तीन राज्य छीनने में कामयाब रहनेवाली कांग्रेस अब उन विपक्षियों की आंखों में खटकने लगी है जो मजबूर सरकार गठित करने के ठोस दावेदार के तौर पर उभरने की उम्मीद पाले हुए हैं। इन चुनावों में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि अगर कांग्रेस पूरे दम-खम से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ विकल्प बनकर खड़ी हो जाए और क्षेत्रीय दलों का उसे पूरा सहयोग मिल जाए तो चुनावी नतीजों की तस्वीर में जादूई परिवर्तन होने की संभावना को कतई नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन इस समीकरण को सार्थक करना क्षेत्रीय दलों के लिहाज से लाभदायक नहीं है। उनको अधिकतम लाभ तो तब होगा जब भाजपा हार जाए लेकिन कांग्रेस जीत नहीं पाए। ऐसी तस्वीर तभी बन सकती है जब तीसरी व क्षेत्रीय ताकतें सूबाई स्तर पर या तो कांग्रेस को तभी अपने साथ जोड़ें जब वह न्यूनतम सीटों पर लड़ने के लिये सहमत हो वर्ना कांग्रेस और भाजपा से समानांतर दूरी बनाकर चुनाव लड़ना ही उनके लिये श्रेयस्कर होगा। चुंकि यूपी में कांग्रेस की मांग को पूरा करने के बाद सपा-बसपा के पास आपस में बांटने के लिये उतनी सीटें ही नहीं बचेंगी जितनी वे अपने दम पर भी आसानी से जीतने की क्षमता रखती हैं लिहाजा कांग्रेस को किनारे लगाकर आगे बढ़ना ही बुआ-बबुआ और ताऊ के लिये लाभदायक दिखाई पड़ रहा है। यही स्थिति बिहार में भी बन सकती है अगर लोजपा ने राजग से निकल कर महागठबंधन के साथ जुड़ने का मन बना लिया। वैसे भी कांग्रेस की कमजोरी यही है कि उसके पास यूपी, बंगाल, बिहार और झारखंड के ऐसे क्षेत्र में समाज के किसी भी वर्ग के बीच अपना ठोस जनाधार ही नहीं बचा है जहां से लोकसभा के कुल एक-तिहाई से अधिक सांसद जीत कर आते हैं। लोकसभा की एक-तिहाई सीटों का निर्वाचन करनेवाले बंगाल सहित दक्षिणी राज्यों में भाजपा की भी ऐसी ही ठोस जनाधार विहीनता स्थिति है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों के उभार को रोकना और किसी बड़ी लहर के बिना होने वाले चुनाव में मजबूत सरकार के लिये जनादेश आ पाना तो नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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बुधवार, 12 दिसंबर 2018
‘बेढ़ंगी चाल’ ‘संदेहास्पद चरित्र’ और ‘तानाशाही चेहरे’ की हार
लोग मिर्च इसलिये खाते हैं ताकि कड़वी लगे और चीनी का इस्तेमाल मिठास के लिये किया जाता है। अगर मिर्च ही चीनी से अधिक मीठी हो जाए तो कोई चीनी क्यों खाएगा। ऐसी ही तस्वीर पांच राज्यों के चुनावी नतीजों में भी उभरी है जब भाजपा के चाल-चरित्र और कथनी-करनी में तारतम्यता नहीं दिखी तो मतदाताओं को मजबूरन भाजपा से किनारा करना पड़ा है। वास्तव में देखें तो भाजपा ने बीते साढ़े चार सालों में जरा भी एहसास नहीं कराया है कि यह वही पार्टी है जिसकी स्थापना मूल्य आधारित सिद्धांतवादी राजनीति के लिये ‘पार्टी विद डिफरेंस’ के रूप में की गई थी। हालांकि अपने पूरे कार्यकाल में मोदी-शाह की जोड़ी ने संगठन व सरकार को जिस तरह से संचालित किया है उसमें बेशक कई खूबियां होंगी लेकिन कई ऐसी खामियां भी रही हैं जिसे नजरअंदाज करना आम मतदाताओं के लिये भी मुश्किल हो गया। हालांकि सतही तौर पर देखा जाये तो पांच राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े गए और उसके नतीजों के प्रत्यक्ष प्रभाव का दायरा भी सूबाई स्तर तक ही सीमित है लिहाजा इसे मोदी-शाह के कामकाज से जोड़कर देखना सही नहीं होगा। लेकिन गहराई से परखें तो पांचों ही राज्यों के जनादेश की समग्र तस्वीर स्पष्ट तौर पर इशारा कर रही है कि मतदाताओं ने सिर्फ सूबाई स्तर पर ही भाजपा को खारिज नहीं किया है बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति भी जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति हुई है। वर्ना सभी राज्यों में भाजपा को एक साथ शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ता। यह जनादेश दर्शाता है कि मतदाताओं को अच्छे दिनों की जो आस बंधाई गई थी उसके पूरा हो पाने की उम्मीद भी नहीं बची है। हालांकि अच्छे दिन आए जरूर लेकिन वह अंबानी, अडानी और रामदेव जैसे उद्योगपतियों के और भाजपा व संघ परिवार से जुड़े संगठनों के हिस्से में आए। आम जनता के हिस्से में तो नोटबंदी ही आई जिसमें कितनों के रोजगार गए, कितने ही लोगों को किस स्तर की विपत्ति झेलनी पड़ी और कितने छोटे व्यापारी व स्वरोजगारी तबाह-बर्बाद हो गए इसकी ना तो कभी सुध ली गई और ना ही उनके दुख-तकलीफ को सरकारी स्वीकार्यता मिली। जब आम लोगों ने पूर्ण बहुमत के साथ भाजपा को सत्ता की बागडोर सौंपी थी तो इसके पीछे भरोसा था पार्टी के मूलभूत सिद्धांतों का। उम्मीद थी चाल-चरित्र, रीति-नीति और कथनी-करनी में एकरूपता की। विश्वास था संगठन के आंतरिक लोकतंत्र और अनुभवी व युवा नेतृत्व के सामंजस्य का। लेकिन बीते साढ़े चार सालों में ना तो भाजपा ने अपने मूल सैद्धांतिक मसलों को आगे बढ़ाने में रूचि दिखाई, ना कथनी और करनी में तालमेल दिखाई पड़ा और ना ही संगठन में सबको साथ लेकर चलना जरूरी समझा गया। अलबत्ता मुजाहिरा किया गया ‘बेढ़ंगी चाल’ ‘संदेहास्पद चरित्र’ और ‘तानाशाही चेहरे’ का जिसके नतीजे में आज का यह चुनावी नतीजा सामाने आया है। इस बात को कतई नकारा नहीं जा सकता है कि अगर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी विश्वसनीयता कायम रखी होती और हर स्तर पर तानाशाही प्रवृत्ति का परिचय नहीं दिया होता तो राजस्थान और मध्य प्रदेश में तस्वीर अलग दिखाई पड़ती जहां चुनावी नतीजों में किसी बड़े सत्ता विरोधी लहर का रूझान नहीं दिखा है। लेकिन जिस मनमाने तरीके से संगठन और सरकार का संचालन हो रहा है उसकी बानगी किसानों के आंदोलन के दौरान भी दिखाई पड़ी जिसमें कुल चार बार देश भर के किसानों ने दिल्ली में दस्तक देकर अपनी व्यथा-कथा सुनाने की कोशिश की लेकिन उनकी बात सुनना भी गवारा नहीं किया गया। बात तो उन छोटे दुकानदारों और खुदरा व्यापारियों की भी नहीं सुनी गई जो कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि भाजपा मल्टीनेशनल और आॅनलाइन कंपनियों के लिये मल्टीब्रांड खुदरा बाजार का दरवाजा खोल देगी। दलित उत्पीड़न कानून के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट की बात भी नहीं सुनी गई। इसी प्रकार यह कल्पना से भी परे था कि भाजपा राममंदिर, धारा-370, समान नागरिक संहिता और गौ-हत्या सरीखे मूलभूत सैद्धांतिक मामलों की अनदेखी करती रहेगी। कथनी में भाजपा भव्य राममंदिर के पक्ष में है लेकिन करनी में वह अपनी ओर से कोई कदम उठाने के लिये तैयार नहीं है। कथनी में जम्मू कश्मीर को धारा 370 से मुक्त करने की बात की जाती है लेकिन करनी में उस पीडीपी से गठजोड़ करके सरकार बनाई जाती है जो सूबे के विशेषाधिकार से समझौता करने की सोच भी नहीं सकती। कथनी में गौ-रक्षा की कसमें खाई जाती हैं लेकिन करनी में तमाम ऐसे कदम उठाए जाते हैं ताकि पूर्वोत्तर से लेकर गोवा तक में गौ-मांस की निर्बाध आपूर्ति बदस्तूर जारी रहे। कथनी में राजग के सहयोगियों को साथ लेकर चलने की बात कही जाती है लेकिन करनी में वरिष्ठ जदयू नेता केसी त्यागी के मुताबिक एक बार भी राजग की औपचारिक बैठक आयोजित करने की जहमत नहीं उठाई जाती है। उस पर कोढ़ में खाज की कमी पूरी कर देती है राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली मोदी की वह शब्दावली जो भारत के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ही गिराती है। यानि समग्रता में देखें तो भाजपा से आम लोगों की जो उम्मीदें थी वह ना तो सैद्धांतिक तौर पर पूरी हो पाईं और ना ही व्यावहारिक तौर पर। लिहाजा जब सिर्फ सत्ता की राजनीति करने वालों में से ही किसी को चुनना है तो भाजपा में ही कौन से सुर्खाब के पंख लगे हैं, जिसका कांग्रेस में अभाव है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
गुरुवार, 29 नवंबर 2018
‘उसे कहो कि वो फिर से मुकर न जाए कहीं’
भारत-पाकिस्तान के रिश्ते इन दिनों जिस मोड़ से गुजर रहे हैं उसे सुप्रसिद्ध कवि बल्ली सिंह चीमा के शब्दों में कहें तो- ‘करो न शोर परिन्दा है डर न जाए कहीं, जरा-सा जीव है हाथों में मर न जाए कहीं, वो फिर नए वादों के साथ उतरा है, उसे कहो कि वो फिर से मुकर न जाए कहीं।’ वाकई पाकिस्तान के साथ भारत का जो तजुर्बा रहा है उसमें यह डर लगना स्वाभाविक है कि गले लगने के बहाने कहीं एक बार फिर हमारी पीठ में खंजर ना घोंप दिया जाए। तभी दूध से जलता आ रहा भारत इस बार करतारपुर काॅरिडोर की कथित छाछ भी फूंक-फूक कर पी रहा है। बेशक पाकिस्तान की कोशिश है करतारपुर काॅरिडोर के मामले में गर्मजोशी दिखाकर भारत को एक बार फिर शीशे में उतार लिया जाए और तमाम गतिरोधों को दूर कर रिश्तों पर जमी बर्फ को पूरी तरह पिघला दिया जाए। लेकिन पाकिस्तान की पुरानी करतूतें ऐसी नहीं हैं कि उस पर केवल इस वजह से भरोसा कर लिया जाए क्योंकि उसने दोस्ती की राह पर एक कदम आगे बढ़ते हुए करतारपुर काॅरिडोर को खोलने की दशकों पुरानी हमारी मांग पूरी कर दी है। तभी तो जहां एक ओर सार्क देशों की बैठक में भाग लेने के लिये पाकिस्तान जाने से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से इनकार कर दिया गया है वहीं दूसरी ओर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने फिर दोहराया है कि आतंकवाद का सिलसिला जारी रहते हुए पाकिस्तान के साथ औपचारिक बातचीत करना संभव ही नहीं है। हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने बिल्कुल सच कहा है कि दोनों मुल्क एटमी हथियारों से लैस है लिहाजा आपसी मसलों को हल करने के लिये जंग कोई विकल्प ही नहीं है बल्कि जंग के बारे में सोचना भी पागलपन ही है। लेकिन सवाल है कि आखिर ऐसी सोच रखता कौन है और उस दिशा में हमेशा पहलकदमी करने के लिये आतुर कौन रहता है? यह भारत की ओर से की गई पहलकदमियों का ही नतीजा रहा है कि अमन की आशा को पूरा करने के लिये कभी शिमला में समझौता होता है तो कभी शर्म-अल-शेख में। कभी समझौता एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाई जाती है तो कभी कारवां-ए-अमन को आगे बढ़ाया जाता है। इसी कड़ी में अब करतारपुर काॅरिडोर को खोलने की दिशा में दोनों मुल्कों ने पहलकदमी की है। बेशक यह एक नई शुरूआत है, पाकिस्तान में नए निजाम द्वारा शासन की बागडोर संभाले जाने के बाद। लेकिन यह पहली बार नहीं है जब अमन की आशा जगाते हुए सरहद के दोनों तरफ के हुक्मरानों ने इस तरह की पहलकदमी की हो। ऐसी कोशिशें बार-बार और लगातार होती रही हैं। खास तौर से भारत की ओर से। भारत ने हमेशा ही पाकिस्तान को अमन और शांति की दिशा में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया और बड़े भाई की हैसियत से तमाम पहलकदमियां भी कीं। लेकिन गिले-शिकवे भुलाकर गले लगने की पहलकदमियों के बदले में हर बार पाकिस्तान की ओर से भारत की पीठ में खंजर ही घोंपा गया। कभी संसद पर हमला कराया गया तो कभी कारगिल का युद्ध थोपा गया। कभी 26/11 के मुंबई हमलों की साजिश अंजाम दी गई तो कभी पठानकोट और उड़ी के सैन्य ठिकाने पर हमला हुआ। नतीजन अब स्थिति यह हो गई है कि करतारपुर साहिब काॅरिडोर खुलने के मौके पर भी भारत को एहतियातन कूटनीतिक सावधानी बरतने पर मजबूर होना पड़ रहा है। हालांकि ऐसा नहीं है कि करतारपुर काॅरिडोर खोलने को लेकर दोनों मुल्कों के बीच बनी सहमति से खुशी, उत्साह और उमंग में कोई कमी हो। बल्कि आजादी के बाद से ही इस काॅरिडोर को खोले जाने की जो मांग की जाती रही है उसके पूरा होने पर सियासतदानों से लेकर आम आवाम तक में काफी उत्साह और उमंग है। लेकिन इस उत्साह का अगर दिल खोलकर प्रदर्शन करने के प्रति संकोच दिखाया जा रहा है तो इसकी सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान की हरकतों का वह पुराना इतिहास ही है जिसके तहत सुलह की हर बोली का जवाब नफरत की गोली से मिलता आया है। तभी तो पाकिस्तान की ओर से की जा रही खुराफाती हरकतों के प्रति दुख, तकलीफ और आक्रोश के कारण ही इस काॅरिडोर के पाकिस्तान की ओर के हिस्से के शिलान्यास के कार्यक्रम में जाने से पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने भी परहेज बरता है और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी। यहां तक कि नवजोत सिंह सिद्धू भी निजी हैसियत से ही वहां गए हैं। वर्ना अगर पाकिस्तान ने वाकई अमन की राह पकड़ते हुए खुराफाती आतंकी गतिविधियों को संरक्षण देना और उसका संचालन करना बंद कर दिया होता तो कोई कारण नहीं था कि सरहद के इस तरफ के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि इमरान खान होते और सरहद के उस तरफ के कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने नरेन्द्र मोदी खुद ही जाते। लेकिन कहते हैं कि चोर अगर चोरी करना छोड़ भी दे तो हेराफेरी करना नहीं छोड़ सकता। शायद तभी इमरान द्वारा काॅरिडोर का शिलान्यास किये जाने के समारोह में आतंकी सरगना हाफिज सईद का सहयोगी और खालिस्तान समर्थक गोपाल चावला भी मौजूद था और पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से हाथ मिलाता हुआ भी नजर आया। समारोह में चावला की मौजूदगी पाकिस्तान द्वारा रिश्तों में विश्वास की चोरी हो या उसकी फौज द्वारा की गई हेराफेरी, लेकिन इसे नजरअंदाज तो कतई नहीं किया जा सकता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
गुरुवार, 15 नवंबर 2018
‘जहां से हैं उम्मीदें, वहीं हो रही भाजपा की फजीहत’
जहां से उम्मीदें पाल रखी हों वहीं अगर फजीहत झेलनी पड़ जाए तो किस कदर निराशा का वातावरण बनने लगता है इसका बखूबी अंदाजा इन दिनों भाजपा को हो रहा है। दरअसल आगामी लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करा कर सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने की भाजपा की उम्मीदें इस बार पश्चिम बंगाल और ओडिशा के अलावा उन दक्षिणी सूबों पर टिकी हुई हैं जहां पिछले चुनाव में कथित मोदी लहर का कोई असर नहीं पड़ा था। हालांकि पूर्वोत्तर के विधानसभा चुनावों से लेकर ओडिशा व पश्चिम बंगाल तक में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराके भाजपा ने लोकसभा चुनाव में इन क्षेत्रों में बेहत प्रदर्शन की उम्मीदें कायम रखी हुई हैं लेकिन दक्षिणी राज्यों से भाजपा ने जितनी उम्मीदें पाली हुई हैं उसके पूरा हो पाने की संभावना लगातार कमजोर होती दिख रही है। दक्षिण भारत में भाजपा के लिये लिटमस टेस्ट कहे जाने वाले कर्नाटक में हुए लोकसभा के तीन और विधानसभा के दो सीटों के उपचुनाव का जो नतीजा सामने आया है उसने यह साफ कर दिया है तमाम कोशिशों के बावजूद दक्षिणी राज्यों के मतदाताओं का विश्वास जीतने में भाजपा कतई कामयाब नहीं हो पायी है। यह चुनाव ऐसे समय में हुआ है जब अगले साल के लोकसभा चुनाव का वक्त बेहद करीब है और तमाम पार्टियां केन्द्र की सत्ता पर कब्जा जमाने के लिये उतावलापन दिखा रही हैं। ऐसे समय में अगर लोकसभा की तीन में से अपनी जीती हुई केवल एक सीट पर ही बढ़त कायम रहे जबकि दो सीटों पर शिकस्त का सामना करना पड़े और विधानसभा की दोनों सीटें गंवानी पड़े तो समझा जा सकता है कि सूबे का माहौल किस कदर भाजपा के लिये बदस्तूर चुनौती बना हुआ है। हालांकि यह पहला उपचुनाव नहीं है जिसमें भाजपा को शिकस्त का सामना करना पड़ा हो बल्कि वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक देश भर में 30 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं जिनमें से भाजपा को केवल छह सीटें दोबारा जीतने में ही कामयाबी मिल पाई है। जबकि जिन 30 सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से कुल 16 भाजपा के कब्जेवाली थी और विपक्ष की जीती हुई केवल 14 सीटें ही थीं। लेकिन भाजपा को किसी भी उपचुनाव में विपक्ष के कब्जे वाली एक भी सीट जीतने में कामयाबी नहीं मिल सकी और उसने अपने कब्जे वाली दस सीटें भी गंवा दीं जिसके नतीजे में अब लोकसभा में उसकी सीटों का आंकड़ा 282 से घटकर 272 रह गया है। लेकिन अब तक हुए उपचुनावों का नतीजा सामने आने के बाद भाजपा को उम्मीद रहती थी कि स्थिति को सुधार लिया जाएगा जबकि अब स्थिति को सुधारने का वक्त बचा ही नहीं है। अब तो समय है जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुए स्थिति के मुताबिक ढ़लने और खुद को बदलने का ताकि संभावित नुकसान कम से कम किया जा सके। सच तो यह है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का रिकार्ड बना लिया था जिसके बाद अब आगामी चुनाव में इससे आगे बढ़ पाने की कोई राह ही नहीं बची है। बल्कि भाजपा को भी पता है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात सरीखे जिन पांच सूबों की सभी लोकसभा सीटों पर उसे पिछली बार सौ फीसदी सीटों पर जीत हासिल हुई थी और यूपी की अस्सी में से 73 सीटों पर उसने कामयाबी का झंडा गाड़ा था उस प्रदर्शन को दोहरा पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है। ऐसे में उसकी निगाहें पूर्वोत्तर के अलावा दक्षिणी राज्यों पर ही टिकी हुई थीं और उत्तर व पश्चिमी राज्यों में संभावित नुकसान की भरपाई के लिये वह पूरब, पूर्वोत्तर और दक्षिण में ही अपने प्रदर्शन को सुधारने के अभियान में जुटी हुई थी। इसमें कर्नाटक का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता है क्योंकि इसे दक्षिण भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता है और दक्षिण में भाजपा की जीत का दरवाजा तभी खुल सकता है जब कर्नाटक में बेहतर प्रदर्शन की पक्की गारंटी हो जाए। लेकिन स्थिति यह है कि कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु की कुल 139 लोकसभा सीटों में से भाजपा को केवल कर्नाटक की 28 और आंध्र प्रदेश की 25 सीटों से ही कुछ आस है जबकि बाकी सूबों में उसका खाता ही खुल जाए तो बहुत बड़ी बात होगी। हालांकि आंध्र और कर्नाटक में भी भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने के लिये कांग्रेस ने मजबूत घेराबंदी कर दी है जिससे बच बेहद मुश्किल होने वाला है। दूसरी ओर बिहार और यूपी की कुल 120 सीटों में से बिहार की 40 सीटों पर उसके लिये मुकाबला बेहद कड़ा रहना स्वाभाविक ही है जबकि यूपी में अगर विपक्षी दलों का महागठजोड़ कायम हो गया तो भाजपा को लेने के देने पड़ सकते हैं। यानि समग्रता में देखा जाये तो लोकसभा की 543 में से दक्षिण और यूपी-बिहार की कुल 259 सीटें अलग कर दें तो बाकी बची 284 सीटों पर ही भाजपा इस समय विपक्ष को टक्कर देने की स्थिति में है और उसमें भी अगर भाजपा की कमजोर स्थिति वाली ओडिशा, पश्चिम बंगाल, जम्मू कश्मीर और पंजाब सरीखे सूबों की सीटों को अलग कर दें तो ऐसी सीटें ही दो सौ से कम बचती हैं जहां से वाकई भाजपा अपनी जीत की बुनियाद रखने में सक्षम हो सकती है। लिहाजा अब केन्द्र में भाजपा की वापसी की संभावनाएं तभी बन सकती हैं जब अव्वल तो विपक्ष का गठजोड़ ना बने और दूसरे अपनी मजबूत उपस्थिति वाली सीटों पर वह जीत दर्ज कराने में कामयाब हो सके। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_thakur
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बुधवार, 31 अक्तूबर 2018
‘साथियों को संतुष्ट करने की चुनौती इधर भी है, उधर भी’
क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं राष्ट्रीय दलों को किस कदर हैरान व परेशान करती रही हैं यह सर्व-विदित ही है। तभी तो मोदी-शाह की जुगल जोड़ी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रादुर्भाव से पूर्व गठबंधन सरकारों के दौर में लालकृष्ण आडवाणी को एक जनसभा में औपचारिक तौर पर मतदाताओं से अपील करनी पड़ी थी कि वे भाजपा को वोट नहीं देना चाहें तो बेशक ना दें लेकिन किसी क्षेत्रीय पार्टी को वोट देने से बेहतर होगा कि वे कांग्रेस को अपना वोट दे दें। जाहिर तौर पर इस आह्वान के पीछे आडवाणी का वह दर्द ही छिपा हुआ था जो अटल युग में गठबंधन की सरकार चलाने के दौरान भाजपा को क्षेत्रीय दलों से मिला था। हालांकि अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाने वालों क्षेत्रीय दलों के समर्थन से ही मजबूती मिलती है लेकिन इसके एवज में जो कीमत चुकानी पड़ती है उसका दर्द ऐसा होता है कि सहा भी ना जाए और किसी से कहा भी ना जाए। इन दिनों ऐसा ही दर्द भाजपा को भी झेलना पड़ रहा है जिसने लोकसभा में हासिल पूर्ण बहुमत के ताव में बीते साढ़े चार सालों तक अपने समर्थक दलों को मनमर्जी से हाथ उठाकर जो भी दे दिया वे उससे ही संतुष्टि जताते रहे और सही मौके का इंतजार करते रहे। किसी ने उफ तक नहीं की और कोई ऐसी मांग भी सामने नहीं रखी जिससे वह भाजपा की नजरों में खटक जाए। लेकिन अब आगामी आम चुनावों की नजदीकियों को देखते हुए राजग के घटक दलों में असंतोष भी उभरने लगा है और उनकी महत्वाकांक्षाएं भी कुलाचें मारने लगी हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा को अगर दोबारा सत्ता में आना है तो उसे इनको अपने साथ लेकर चलना ही होगा। लेकिन इन दलों के सामने ऐसी कोई विवशता नहीं है। सरकार भाजपा बनाये या कांग्रेस अथवा कोई अन्य मोर्चा। इनकी ख्वाहिश तो बस इतनी ही है कि जो भी सरकार बने वह मजबूर बने। तभी उसे मजबूती देने के एवज में इनकी दसों उंगलियां घी में होंगी और सिर कढ़ाही में। वर्ना अभी की तरह दया से हासिल खैरात पर ही निर्भर रहकर उन्हें पिछलग्गू बनकर चलना होगा और सरकार का जयकार करना होगा। खैर, अभी यह कहना तो जल्दबाजी होगी कि आगामी सरकार मजबूत बनेगी या मजबूर। लेकिन दोनों ही सूरतों के लिये अपनी मजबूती सुनिश्चित करने के मकसद से तमाम क्षेत्रीय दलों ने अभी से अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं। इसी सिलसिले में जिस तरह से बसपा ने कांग्रेस की बांह मरोड़ी हुई है उसी प्रकार राजग के घटक दलों ने भी भाजपा की सींग पकड़ कर उसे नाच नचाना शुरू कर दिया है। इन दलों का साफ तौर पर कहना है कि वे गठबंधन में तभी शामिल होंगे जब उनकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की जाएगी और सम्मानजनक संख्या में सीटें आवंटित की जाएंगी। यानि इन दलों का विकल्प खुला हुआ है कि जिधर अधिक मान-सम्मान मिलेगा और भविष्य सुनिश्चित दिखाई देगा उधर कूच करने में ये कतई देर नहीं लगाएंगे। इसके लिये दबाव बढ़ाने की शुरूआत जदयू ने की तो भाजपा ने उसे बिहार में अपने बराबर सीटें देने का वायदा करके उसे मना लिया। लेकिन जदयू से समझौता होने के बाद से रालोसपा और लोजपा फैल गए हैं। लोजपा ने ना सिर्फ अपनी जीती हुई तमाम सीटों पर दावा ठोंक दिया है बल्कि उसने अपने शीर्षतम नेता रामविलास पासवान के लिये भाजपा से राज्यसभा की सीट भी मांगी है। इसके अलावा कांग्रेस छोड़कर लोजपा में शामिल हुए मणिशंकर पांडेय के लिये पार्टी ने यूपी में भी हिस्सेदारी मांगी है। उधर रालोसपा ने भी साफ कर दिया है कि पिछली बार की तरह उसे बिहार की तीन लोकसभा सीटें नहीं दी गई तो वह गठबंधन से बाहर निकलने के विकल्पों पर भी विचार कर सकती है। भाजपा पर दबाव बढ़ाने के लिये रालोसपा ने मध्य प्रदेश की 66 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार भी उतार दिये हैं। बताया जाता है कि लोजपा और रालोसपा को लपकने के लिये राजद की अगुवाई वाला महागठबंधन भी जुगत बिठा रहा है और इन दोनों दलों को भाजपा द्वारा आवंटित की गई सीटों से अधिक सीटें देने का प्रलोभन भी दिया जा रहा है। दूसरी ओर यूपी में अपना दल हो या सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी। दोनों की ओर से भाजपा पर अधिकतम सीटों का पुरजोर दबाव है। इसी प्रकार शिवसेना भी भाजपा पर इस बात के लिये दबाव बनाए हुए है कि महाराष्ट्र में उसे अधिकतम सीटें आवंटित की जाएं और गुजरात, गोवा व मध्य प्रदेश में भी उसे हिस्सेदारी दी जाए। वर्ना आगामी चुनाव में अपनी खिचड़ी अलग पकाने का ऐलान तो पहले ही किया जा चुका है। ऐसी ही मांगें बाकी दलों की ओर से भी आगे की जा रही हैं और स्थिति यह है कि भाजपा के लिये राजग को पिछले चुनाव की शक्ल में बरकरार रख पाना भारी सिरदर्दी का सबब बनता जा रहा है। वैसे भी बिहार, पंजाब, दिल्ली और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों और यूपी के गोरखपुर व फूलपुर सरीखे गढ़ों के उपचुनावों ने यह तो बता ही दिया है कि ना तो मोदी की कोई राष्ट्रव्यापी लहर चलनेवाली है और ना ही भाजपा अपने दम पर अजेय हो सकती है। ऐसे में भाजपा की विवशता है सबको साथ लेकर चलने की और उसकी इस विवशता का अधिकतम दोहन करने से भला कोई क्यों पीछे रहे? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018
‘सवाल सीबीआई की आग में राख होती साख का’
वाकई गजब की आग दहक उठी है सीबीआई सरीखी ऐसी संस्था में जो स्वायत्त है, खुद-मुख्तार है। जिसकी स्वायत्तता को बरकरार रखने के इंतजाम कागजी तौर पर इतने ठोस हैं कि सरकार भी सीबीआई के मुखिया को ना तो अपनी मर्जी से पद से हटा सकती है और ना ही उसके दो वर्ष के तयशुदा कार्यकाल की सीमा में कोई फेरबदल कर सकती है। चुंकि सीबीआई के मुखिया की नियुक्ति में प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं लिहाजा ये तीनों मिलकर ही इस संस्था में कोई फेरबदल कर सकते हैं। ऐसे किलानुमा स्वायत्तता की व्यवस्था के बाद अगर संस्था के दो शीर्षतम अधिकारी आपस में लड़ जाएं, दोनों एक-दूसरे को भ्रष्ट व रिश्वतखोर साबित करने में जुट जाएं और दोनों की यह लड़ाई अदालत की दहलीज तक पहुंच जाए तो मामले की असाधारण संगीनता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। संस्था भी वह जो कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी हो। ऐसे में दांव पर सिर्फ उस संस्था की साख ही नहीं लगती बल्कि देश की प्रतिष्ठा और सरकार की प्रशासनिक क्षमता भी सवालों के घेरे में आ जाती है। लिहाजा जब सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना ने लंबे समय से जारी अपने शीतयुद्ध को सार्वजनिक तौर पर आर-पार की लड़ाई में तब्दील करने की पहलकदमी कर दी तो सरकार के लिये मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते रहना नामुमकिन हो गया। हालांकि इन दोनों के बीच लंबे समय से जारी शीतयुद्ध की सरकार अंतिम वक्त तक अनदेखी ही करती रही। ना तो वर्मा द्वारा अस्थाना की पदोन्नति का विरोध किये जाने का गंभीरता से संज्ञान लिया गया और ना ही अस्थाना द्वारा वर्मा के खिलाफ की जाने वाली शिकायतों को कभी विशेष महत्व दिया गया। सरकार साक्षी भाव से तटस्थ और निष्पक्ष ही बनी रही। लेकिन बात जब एफआईआर दर्ज कराने और अस्थाना की गिरफ्तारी की संभावना तक पहुंच गई तब कुछ ऐसा बच ही नहीं गया जिसकी अनदेखी की जा सके। बात केवल इन दोनों की आपसी लड़ाई की नहीं बल्कि मामला सीबीआई की साख का हो गया जिस पर यह तोहमत लग रही थी कि अपराधियों से रिश्वत लेकर सीबीआई के शीर्ष अधिकारी जांच को बाधित करते हैं और मुजरिमों को राहत पहुंचाते हैं। ऐसे में यह मानना पड़ेगा कि सीमित विकल्पों के बावजूद सरकार ने जो प्रभावी कदम उठाए उससे बेहतर और कुछ भी नहीं हो सकता था। हालांकि इन दोनों की लड़ाई में कौन पीड़ित-प्रताड़ित है और कौन साजिशकर्ता मास्टरमाइंड इसका फैसला तो समुचित व निष्पक्ष जांच के बाद ही होगा। लेकिन फिलहाल सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती थी सीबीआई की साख को बरकरार रखना, संस्था के काम को प्रभावित होनेे से बचाना और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करना। इन चुनौतियों से निपटने के लिये सरकार ने ना सिर्फ कार्रवाई में निष्पक्षता सुनिश्चित की बल्कि दोनों के साथ एक-बराबर सलूक करते हुए पूरे मामले को निर्णायक परिणति तक पहुंचाने का प्रभावी इंतजाम भी कर दिया। सरकार ने लंबी छुट्टी पर भेजा तो दोनों को भेजा। एसआईटी से दोनों की बराबर जांच कराने की बात कही गई। दोनों के कार्यालय को एक बराबर तरीके से खंगाला गया और उसमें संस्था के किसी तीसरे को घुसने की इजाजत नहीं दी गई। सीबीआई की कमान भी नंबर तीन कहे जानेवाले नागेश्वर राव को सौंपी गयी जिन्होंने दोनों द्वारा नियुक्त किये गये उनके करीबी अधिकरियों का थोक के भाव में तबादला सुनिश्चित किया। यानि समग्रता में देखें तो विवश होकर सरकार द्वारा सीबीआई में किये गये हस्तक्षेप को किसी भी लिहाज से कतई पक्षपातपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। ऐसे में बेहतर होता कि सरकार द्वारा विवशता में उठाए गए इस कदम का एहतराम और सम्मान किया जाता। लेकिन चुनावी वर्ष होने के कारण हर मामले का राजनीतिक पहलू उभारने और सरकार की शासन व प्रशासन क्षमता पर उंगली उठाकर अपनी राजनीति चमकाने का मौका भला कोई कैसे हाथ से जाने दे सकता है। तभी तो वर्मा को सीबीआई का निदेशक बनाये जाने का विरोध करनेवाले अब उन्हें लंबी छुट्टी पर भेजे जाने का भी विरोध कर रहे हैं। विरोध कभी इस स्तर का कि वर्मा के कांधे पर बंदूक रखकर सवोच्च न्यायालय से ऐसा कारतूस हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है जिससे सरकार की पगड़ी पर सीधा निशाना दागा जा सके। कांग्रेस तो एक कदम और आगे बढ़ गई और उसने सीबीआई की साख बचाने के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को असंवैधानिक व नियमों के खिलाफ बताते हुए पूरे मामले को राफेल सौदे से जोड़ दिया। जबकि यह सामान्य समझ की बात है कि आखिर राफेल खरीद के मामले से सीबीआई का क्या संबंध हो सकता है? सीबीआई को जब ना तो सरकार ने और ना ही अदालत ने राफेल सौदे की जांच के लिये अधिकृत किया है तो यह कहना वाकई मजाकिया ही है कि राफेल की जांच करने का प्रयास करने के कारण वर्मा पर सरकार का नजला गिरा है। खैर इश्क, जंग और सियासत में जो ना हो जाए वह कम है। वैसे अगर एक मिनट के लिये यह मान भी लिया जाए कि सरकार ने पूरे मामले में बहुत ही गलत किया है तो समस्या गिनाने वालों को कोई ऐसा समाधान भी बताना चाहिये ताकि सीबीआई की साख भी सलामत रहे, दोषियों की पहचान भी हो और निर्दोष को प्रताड़ना से भी बचाया जा सके? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018
‘नहीं होने का सवाल ही नहीं था अकबर का इस्तीफा’
इतिहास गवाह है कि किसी भी बड़े आंदोलन की शुरूआत के वक्त उसका उपहास ही होता है। लोग मजाक उड़ाते हैं, फब्तियां कसते हैं और कटाक्ष करते हैं। लेकिन इस शुरूआती प्रतिरोध को झेल कर आंदोलन आगे बढ़ जाए तो फिर उसकी अनदेखी की जाने लगती है। जब अनदेखी से भी आंदोलन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता तो अनर्गल प्रलाप करके उसके नकारात्मक पहलुओं को जोर-शोर से उजागर करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन इस आखिरी चुनौती से भी आंदोलन टूटता या डिगता नहीं है तो फिर धीरे-धीरे उसके पक्ष में जन-स्वीकार्यता का माहौल बनने लगता है। वही इतिहास महिलाओं के आंदोलन ‘मी-टू’ के साथ भी दोहराया गया है। पहले तो आंदोलन का भरपूर मजाक बनाया गया और पीड़िताओं के प्रति अशोभनीय टिप्पणियां की गईं। बाद में मी-टू के मामलों की अनदेखी भी की गई ताकि ये कहानियां आई-गई होकर समाप्त हो जाएं। यहां तक मामलों को सांप्रदायिक रंग देने और राजनीतिक तौर पर विभाजित करने की भी कोशिश हुई। लेकिन जब तमाम प्रतिरोधों को झेल कर भी पीड़िताएं अड़ी रहीं, डटी रहीं और पीछे नहीं हटीं तो अब उन्हें समाज से स्वीकृति, सहानुभूति और सहयोग भी मिलने लगा है। मी-टू को पहला समर्थन फिल्म इंडस्ट्री से मिला जहां उन लोगों को हाशिये पर धकेला जाने लगा है जिन पर महिलाओं का शोषण करने के आरोप लगे हैं। उसके बाद न्यूज इंडस्ट्री ने मी-टू पीड़िताओं के पक्ष में खड़े होने की पहल की। तमाम खबरिया संस्थानों में उन लोगों को लंबी छुट्टियों पर भेजा जा रहा है और नौकरी से बर्खास्त किया जा रहा है जिन पर महिलाओं ने छेड़छाड़, उत्पीड़न या यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। सामाजिक मूल्यों के प्रति अपनी नैतिक प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करने के क्रम में स्वतः स्फूर्त तरीके से पीड़ित महिलाओं के साथ हमदर्दी और सहबद्धता दिखाते हुए अब राजनीतिक दल भी मी-टू के मामलों को लेकर सजग हुए हैं और विपक्ष से लेकर सत्तापक्ष तक ने मामलों का संज्ञान लेते हुए ठोस कार्रवाई आरंभ कर दी है। इसी के नतीजे में पहले युवक कांग्रेस यानि एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष फिरोज खान से इस्तीफा लिया गया और अब केन्द्रीय विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर को अपने पद से त्याग पत्र देने के लिये विवश किया गया है। हालांकि इन दोनों मामलों को कांग्रेस और भाजपा के बीच नैतिकता की जंग में बढ़त लेने की प्रतिस्पर्धा के तौर पर नहीं देखा जा सकता। बल्कि सच तो यह है कि जिस दिन अकबर पर आरोप लगानेवाली महिलाएं सामने आ गईं उसी दिन भाजपा में रहते हुए अकबर के सार्वजनिक जीवन पर पूर्णविराम लग जाने की बात तय हो गयी। वैसे भी भाजपा का इतिहास रहा है कि महिलाओं के मामले में नाम आने के बाद किसी भी कद या पद के नेता पर कठोरतम कार्रवाई करने में हिचक नहीं दिखाई गई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण संजय जोशी हैं जिनकी कथित सेक्स सीडी सामने आने के फौरन बाद उन्हें ना सिर्फ केन्द्रीय संगठन महामंत्री के पद से बल्कि पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी निष्कासित कर दिया गया। हालांकि बाद में इस बात का सबूत भी सामने आ गया कि जो सीडी संजय जोशी की बतायी जा रही थी उसमें दिख रहे महिला-पुरूष आपस में पति-पत्नी थे। लेकिन इसके बाद भी जोशी को मुख्यधारा की राजनीति में वापसी करने का मौका नहीं दिया गया। इसी प्रकार मेघालय के राज्यपाल के खिलाफ जब राजभवन की महिला कर्मचारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय में शिकायत भेजी तो तत्काल कार्रवाई करते हुए उन्हें पद से हटा दिया गया और अब शायद ही किसी को पता हो कि इन दिनों संघ और भाजपा की सेवा में अपना पूरा जीवन खपा देनेवाले वी. षणमुगनाथन कहां और किस हाल में निर्वासित एकाकी जीवन बिता रहे हैं। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ नेता व वित्तमंत्री राघवजी पर जब यौन-उत्पीड़न करने का आरोप लगा तो उन्हें भी किनारे लगा दिया गया। ऐसा ही नाम तरूण विजय का भी है जिन पर शहला मसूद नामक महिला के साथ अंतरंग संबंध रखने का आरोप लगा तो उन्हें सक्रिय राजनीति से बाहर फेंक दिया गया। बताया तो यहां तक जाता है कि पार्टी के संगठन मंत्री राम माधव को केवल इसी वजह से राज्यसभा में नहीं भेजा गया क्योंकि उन पर कुछ आपत्तिजनक इल्जामों की अफवाह उड़ गयी थी। यूपी का सह-प्रभारी रहते हुए भाजपा को लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक सफलता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले रामेश्वर चैरसिया की कहानी भी कुछ इसी प्रकार की बतायी जाती है। यानि कहने का तात्पर्य यह कि अनैतिक संबंधों के आरोपों को लेकर भाजपा हमेशा ही संवेदनशील रही है और आरोपी नेताओं के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई करती रही है। भले ही आरोपी संगठन में सबसे ताकतवर ओहदे पर विराजमान संजय जोशी सरीखा राष्ट्रीय महामंत्री ही क्यों ना हो। ऐसे में जब कभी ना कभी विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर की करतूतों से आहत होने वाली बीसियों महिलाएं सामने आकर आरोप लगा रही थीं तब यह कल्पना से भी परे था कि भाजपा संगठन या मोदी सरकार में किसी भी स्तर पर उनका बचाव किया जाएगा। वैसे भी जब सुषमा स्वराज और मेनका गांधी से लेकर से लेकर स्मृति ईरानी तक ने ही नहीं बल्कि आरएसएस में नंबर दो ही हैसियत रखनेवाले दत्तात्रेय होसबोले ने भी मी-टू मूवमेंट को खुल कर सराहने में कसर नहीं छोड़ी तब सिर्फ इंतजार ही बाकी था कि अकबर खुद पद छोड़ेंगे या धक्का देकर हटाए जाएंगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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सोमवार, 15 अक्तूबर 2018
‘देने में दिक्कत मगर लेने को लालायित’
कहते हैं कि समूचा संसार लेन-देन पर ही टिका हुआ है। ग्रंथों में पुनर्जन्म और कर्म-फल का जो सिद्धांत बताया गया है वह भी व्यवहारिक तौर पर लेन-देन से ही जुड़ा हुआ है। लिहाजा बात चाहे व्यक्ति की हो या प्रकृति की। लेन-देन में संतुलन बनाए रखना आवश्यक भी है, अपेक्षित भी और अनिवार्य भी। लेकिन प्रकृति के इस सनातन सत्य को झुठलाने में जुटे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। वे सिर्फ लेना चाहते हैं, लेकिन बदले में कुछ देना उन्हें कतई गवारा नहीं होता। हालांकि यह इंसानी फितरत है कि जहां से उसे पाने की उम्मीद होती है वहां पूरी झोली खोलकर बैठ जाता है लेकिन जब देने की बारी आती है तो जेब में बटुआ इस बुरी तरह अटक जाता है कि निकाले नहीं निकलता। लेकिन फिर भी लोग कुछ पाने के लिये कुछ ना कुछ देते ही हैं। बेशक मन मसोसकर, पूरी तरह जांच परख कर और जमकर मोल-भाव करने के बाद ही सही। लेकिन केजरीवाल की रीत उल्टी है। उनकी नीति तो यही दिखाई पड़ती है कि अव्वल तो किसी को कुछ नहीं देना और जिससे कुछ पाना है उसे तो निश्चत ही कुछ भी नहीं देना। मिसाल के तौर पर केजरीवाल साहब अपनी आम आदमी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार करने के लिये बुरी तरह लालायित हैं। खास तौर से उत्तर प्रदेश पर उनकी पैनी नजरें गड़ी हुई हैं। हो भी क्यों ना। आखिर लोकसभा का चुनाव लड़ने वे भी तो पहुंचे ही थे वाराणसी। लेकिन उसमें मिली हार की टीस आज भी कहीं ना कहीं उनके दिल को कचोट रही होगी। तभी अब वे संभल कर काम कर रहे हैं। फिलहाल उनकी पार्टी की सक्रियता दिल्ली से सटे पश्चिमी यूपी के इलाकों में अधिक देखी जा रही है। इनकी दिली-ख्वाहिश है कि दिल्ली वालों की तरह इस इलाके के लोग भी इन्हें ही अपना नेता मानें और इनकी ही पार्टी के पक्ष में मतदान करें। लेकिन इसके बदले में वे यहां के लोगों को कुछ भी नहीं देना चाहते। यहां तक कि इन इलाकों के लोगों को पहले से ही दिल्ली में पढ़ाई और दवाई की जो सहूलियत मिली हुई उस पर भी इन्होंने अंकुश लगा दिया। बकायदा सरकारी आदेश जारी कर दिया गया कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में दिल्ली के मतदाताओं को ही इलाज में प्राथमिकता दी जाए और इसके अलावा किसी को भी मुफ्त जांच, दवा या भर्ती की सहूलियत ना दी जाए। चुंकि यह आदेश यूपी से सटे दिल्ली के कड़कड़डूमा इलाके में स्थित गुरू तेगबहादुर अस्पताल में भी लागू हुआ जिसकी सीधी मार पश्चिमी यूपी के लोगों पर ही पड़ी क्योंकि उनके पास दिल्ली का मतदाता पहचान पत्र नहीं होने के कारण पहले से चल रहा इलाज भी रोक दिया गया। खैर, गनीमत रही कि अब दिल्ली उच्च न्यायालय ने राजधानी को मिनी इंडिया का नाम देते हुए यहां इस तरह के तुगलकी फरमानों को लागू करने से इनकार कर दिया है। लेकिन अदालत के इस इनकार के बावजूद केजरीवाल सरकार यूपी के लोगों को चिकित्सा की सहूलियत से वंचित करने के लिये अब सुप्रीम कोर्ट का रूख करने की बात कह रही है। यानि यूपी के लोगों से उन्हें अपेक्षाएं तो भरपूर हैं लेकिन स्वेच्छा से सुई के नोंक बराबर सहूलियत देना भी गवारा नहीं है। खैर, उनके इस कदम को दिल्ली वालों के हित में बताकर मामले के दूसरे पहलू को उजागर किया जा सकता है। लेकिन वह भी तब किया जा सकता था जब वे दिल्ली के लोगों को ही सरकारी खजाने से कुछ सहूलियत देना गवारा करते। इस लिहाज से देखें तो केजरीवाल की रीति-नीति की कलई तेल के खेल में पूरी तरह खुल गई है। दरअसल बीते दिनों दिल्ली, यूपी, पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ की एक संयुक्त बैठक हुई जिसमें तय हुआ कि इन पांचो जगह डीजल-पेट्रोल की कीमतें एक समान की जाएंगी ताकि आम लोगों को राहत मिल सके। लेकिन जब केन्द्र सरकार ने डीजल-पेट्रोल की कीमतों में ढ़ाई रूपए की कटौती करते हुए राज्य सरकारों से भी ढ़ाई रूपये की कमी करने की गुजारिश की तो बाकी राज्यों ने तो लोगों को पांच रूपये प्रति लीटर की राहत दे दी लेकिन केजरीवाल सरकार ने अपनी ओर से लोगों को राहत देने के बजाय ऐसा शगूफा छोड़ दिया जिससे लगे कि वह आम लोगों को राहत दिलाने के लिये बुरी तरह परेशान है। केजरीवाल ने केन्द्र की ओर से की ढ़ाई रूपये की कटौती को नाकाफी बताते हुए मांग कर दी कि उसे कम से कम दस रूपये प्रति लीटर की कटौती करनी चाहिये। अपनी ओर से वैट में कटौती करने के बजाय वे चारों ओर ढ़ोल बजाते फिर रहे हैं कि केन्द्र ने लोगों को बेवकूफ बनाया है वर्ना अगर वाकई उसे लोगों की परवाह होती तो वह ढ़ाई के बजाय दस रूपये की कटौती करता। यानि देना कुछ नहीं और गाल बजाना जोर-शोर से। देने के नाम पर तो उनके हाथ तो दिल्ली के उन सफाई कर्मचारियों का वेतन भी आसानी से नहीं निकलता जिनकी पहचान यानि झाड़ू को इन्होंने अपनी पार्टी का चुनाव निशान बनाया हुआ है। नतीजन आए दिन यहां कूड़ा-कचरा उठानेवालों की हड़ताल होती रहती है और पूरी राजधानी सड़ांध मारते कूड़े का ढ़ेर दिखाई पड़ती है। लेकिन मसला है कि केजरीवाल को समझाए कौन? क्योंकि वह ऐसे समुदाय से आते हैं जो किसी को गाली देने से पहले भी सौ-बार सोचता है कि- देना क्यूं? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018
‘भूमि परा कर गहत अकासा’ की स्थिति में बसपा
कहते हैं कि जिसके पास खोने के लिये कुछ नहीं होता उसके सामने पाने के लिये सारा जहान होता है। यही स्थिति है बसपा सुप्रीमो मायावती की। आखिर बचा ही क्या है उनके पास खोने के लिए? लोकसभा में पिछली बार ही बसपा का पूरी तरह सफाया हो गया था। इस बार सूबे की विधानसभा में भी हाथी की सवारी करके महज 19 विधायक ही जीत दर्ज कराने में कामयाब हो पाए हैं। सच पूछा जाए तो वर्ष 2007 के चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के दम पर 206 सीटें जीत कर सूबे में अपनी सरकार बनाने वाली बसपा का बेड़ा तो 2012 के विधानसभा चुनाव में ही गर्क हो गया जब उसे महज 80 सीटों पर ही जीत नसीब हुई और 126 सीटें उसके हाथों से फिसल गईं। लेकिन वहां से संभलने के बजाय बसपा का हाथी चुनावी दलदल में नीचे की ओर ही धंसता चला गया और इस बार के विधानसभा चुनाव में तो उसे सिर्फ 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। यानि अब बसपा के पास गंवाने के लिये कुछ नहीं बचा है। कुछ नहीं बचने का मतलब वाकई पल्ले में कुछ नहीं होना ही है क्योंकि अपने मौजूदा विधायकों की तादाद के दम पर बसपा राज्यसभा की एक भी सीट नहीं जीत सकती। लेकिन संसद या विधानसभा में सीटों की तादाद की बात अलग कर दें तो जमीन पर बसपा की स्थिति उतनी प्रतिकूल नहीं है। बीते लोकसभा चुनाव में बसपा ने भले ही एक भी सीट ना जीती हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर चार फीसदी से अधिक और यूपी में भी बीस फीसदी से अधिक वोट हासिल करके जनाधार के मामले में वह देश की तीसरी सबसे ताकतवर पार्टी के तौर पर सामने आई। इसी प्रकार यूपी विधानसभा के लिये पिछले साल हुए चुनाव में भी बसपा के खाते में सवा बाईस फीसदी वोट आए। यानि इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद बसपा का परंपरागत वोटबैंक लगातार उसके साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ है लिहाजा पार्टी को शून्य या समाप्त मान लेना कतई उचित नहीं होगा। ऐसे में बसपा के पास दो विकल्प हैं। या तो वह महा-गठजोड़ में शामिल होकर अपनी वापसी के लिये सुरक्षित राह अपनाए जिसमें सीमित तादाद में सीटों पर लड़ने के बावजूद उसके पास सम्मानजनक संख्या में सीटें जीतने की संभावना बन सकती है। लेकिन इस विकल्प पर अमल करने के नतीजे में उसे केन्द्र की राजनीति में अग्रिम मोर्चे पर आने का लोभ-मोह छोड़ना होगा और कांग्रेस का हाथ मजबूत करने में सहभागी बनना होगा। लेकिन दूसरा विकल्प यह है कि बसपा ‘तूफानों से आंख मिलाए, सैलाबों पर वार करे, मल्लाहों का चक्कर छोड़े, तैर कर दरिया पार करे।’ फिलहाल बसपा ने दूसरे विकल्प को आजमाने की ही राह पकड़ी है ताकि अपने बाजुओं की ताकत को तौलने और जमीनी स्तर पर बह रही हवाओं की दशा-दिशा का ठोस आकलन करने के बाद ही लोकसभा चुनाव के लिये निर्णायक रणनीति बनाई जाए। इसी वजह से पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसने कांग्रेस से किनारा करके अपनी अलग राह पकड़ी है। खास तौर से उसे संभावना टटोलनी है मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां उसने तीसरी ताकत के तौर पर उभरने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अब तमाम संभावनाएं इस बात पर टिकी हैं कि जमीनी स्तर पर भाजपा की मजबूती यथावत बरकरार है अथवा मतदाता विकल्प की तलाश में हैं। अगर विकल्प की तलाश के प्रति मतदाताओं का रूझान सामने आया तो कांग्रेस और भाजपा के साथ समानांतर दूरी कायम करके चलना ही बसपा के लिये मुनासिब होगा। वैसे भी मतदाताओं द्वारा विकल्प की तलाश किया जाना तीसरी ताकतों के लिये बेहद शुभ संकेत होगा क्योंकि इससे लोकसभा चुनाव में खंडित जनादेश आने की संभावना प्रबल हो जाएगी। हालांकि बसपा इकलौती पार्टी नहीं है जो खंडित जनादेश का सपना देख रही है और केन्द्र में मजबूर सरकार बनने की दुआ कर रही है। बल्कि एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों से लेकर टीडीपी तक की ख्वाहिश यही है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेसनीत संप्रग और भाजपानीत राजग में से जो भी आगे निकले उसका सफर अधिकतम डेढ़-सौ से दौ-सौ सीटों के बीच ही ठहर जाए। ऐसी सूरत में तीसरी ताकतों को आगे आने का सुनहरा मौका मिलेगा और उसमें भी जिसकी जितनी संख्या भारी होगी उसकी उतनी ही प्रबल दावेदारी होगी सत्ता की मलाई में अधिकतम हिस्सेदारी की। इसी सोच के तहत कांग्रेस और भाजपा से अलग हटकर कई धाराएं अपनी दिशा तलाश रही हैं जिसमें मायावती से लेकर ममता बनर्जी और शरद पवार का नाम मुख्य रूप से शामिल है। चुंकि मायावती के पास फिलहाल खोने के लिये कुछ भी नहीं बचा है लिहाजा अगर वह ‘भूमि परा कर गहत अकासा’ यानि जमीन से उठकर पूरे आसमान को पकड़ने का प्रयास कर रही है तो इसमें कुछ भी गलत या अस्वाभाविक नहीं है। वैसे भी मौजूदा राजनीतिक हालातों में बसपा के पास दोबारा सोशल इंजीनियरिंग की उस रणनीति को आजमाने का मौका है जिसके दम पर उसने पिछले दशक में यूपी में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। अगर यह रणनीति कामयाब रही तो तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने का बसपा के पास इस बार बेहतरीन मौका है जिसे सिर्फ अपने अस्तित्व पर आए तात्कालिक खतरे से डर कर गंवाना किसी भी लिहाज से कतई उचित नहीं होगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018
‘जो अनैतिक है वह असंवैधानिक क्यों नहीं?’
तमाम जटिलताओं से अलग हटकर अब तक कानून और संविधान को समझने का एक तरीका यह भी था कि तटस्थता, निष्पक्षता और निरपेक्षता के साथ अपने दिल पर हाथ रख खुद से पूछा जाये कि क्या सही है और क्या गलत। दिल से जो आवाज आएगी वही न्यायसम्मत होगा और जो न्यायसम्मत होगा वह निश्चित ही कानून व संविधानसम्मत भी होगा। लेकिन बीते कुछ दिनों में सर्वोच्च न्यायालय के जो फैसले आए हैं उसने दिल की आवाज को गलत बताने का काम किया है। बात चाहे धारा 377 में बदलाव की करें या आधार विधेयक को मनी बिल के तौर पर पारित कराने की प्रक्रिया को संविधान के साथ धोखा बताये जाने की अथवा एडल्ट्री यानि व्यभिचार को अपराध करार देने वाली धारा 497 को असंवैधानिक करार देकर खारिज करने की। बल्कि पदोन्नति में आरक्षण व्यवस्था को लागू करने का रास्ता साफ किए जाने की बात ही क्यों ना हो। ऐसे तमाम मामलों में जो फैसले आए हैं उससे समाज का काफी बड़ा वर्ग कतई सहमत या संतुष्ट नहीं दिख रहा है। समझना मुश्किल है अगर आरक्षण व्यवस्था के दायरे का विस्तार करते हुए इसे पदोन्नति में भी लागू किया जाएगा तो उस अवधारणा का क्या होगा जिसके तहत कहा जाता रहा है कि शोषित, पीड़ित व दमित वर्ग को मुख्यधारा में आगे आने का मौका देने के लिये इस व्यवस्था को लागू किया था। समाज में हाशिये पर खड़े वर्ग को आगे लाने के लिये पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के नियमों, अपेक्षाओं व अहर्ताओं में ढ़ील देने की बात तो समझ में आती है। लेकिन नौकरी पा जाने वालों को नियमानुसार या तय समय के बाद स्वाभाविक तौर पर मिलनेवाली पदोन्नति के मानदंडों में भी ढ़ील दिये जाने के पीछे आखिर क्या सोच हो सकती है यह समाज के काफी बड़े वर्ग की समझ से परे है। समझ से परे यह भी है कि आधार पर फैसला देने वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ ने अलग से डिसेंट लिखते हुए यह कैसे कह दिया कि आधार विधेयक को लोकसभा में धन विधेयक के रूप में पारित करना संविधान के साथ धोखे के समान है लिहाजा यह निरस्त किये जाने के लायक है। यह तो सरासर लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार, योग्यता और निष्पक्षता पर उंगली उठाने वाली बात हुई क्योंकि यह निर्णय करने का अधिकार पूरी तरह लोकसभा अध्यक्ष का ही होता है कि कौन सा विधेयक मनी-बिल के तौर पर प्रस्तुत किया जाएगा। जब लोकसभा अध्यक्ष ने आधार विधेयक को मनी बिल के तौर पर सदन में प्रस्तुत किये जाने का फैसला दे दिया तो उसके खिलाफ कुछ भी कहने का अधिकार किसी को नहीं हो सकता है। भले ही वह किसी भी पद या कद का व्यक्ति क्यों ना हो। लेकिन सर्वोच्च सम्मान की चाहत रखने वाले मी-लाॅर्ड अन्य संवैधानिक पदों की गरिमा का समुचित सम्मान क्यों नहीं करते यह वाकई समझ से परे है। समझ से परे तो यह भी है कि धारा 377 में बदलाव करते हुए समलिंगियों को यौन संबंध स्थापित करने की औपचारिक रूप से इजाजत दिये जाने के बाद अब पति-पत्नी को कहीं भी और किसी के साथ भी स्वच्छंद तरीके से शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत देने के पीछे आखिर क्या मानसिकता हो सकती है। धारा 497 को असंवैधानिक बता कर खारिज कर दिये जाने के बाद अब आखिर क्या मतलब रह जाएगा विवाह व्यवस्था का? इस फैसले के बाद कानूनी, संवैधानिक या विधिक तौर पर व्यभिचार की आखिर क्या परिभाषा होगी? बेशक खुलते-बदलते वक्त की बेलगाम बयार के अनुकूल खड़े दिखने के लिये स्थापित सिद्धांतों में बदलाव करते हुए इस तरह के फैसले को एकबारगी सही भी माना जा सकता है लेकिन जब व्यवहार व परंपरा के प्रतिकूल सिद्धांत गढ़े जाएंगे तो उसे आदर्श व अनुकरणीय कैसे माना जाएगा। इन फैसलों को पूरी तरह अमल में लाये जाने के बाद समाज की कैसी तस्वीर सामने आएगी इस पर विचार करना भी अगर जरूरी नहीं समझा गया है तो निश्चित ही भावी दुष्परिणामों के लिये किसी अन्य को दोष देना कतई सही नहीं होगा। अब नयी व्यवस्था के तहत जब यौन शुचिता का कोई मायने-मतलब ही नहीं रहा गया है तो इसके परिणाम स्वरूप पैदा होने वाली पीढ़ियां किन संस्कारों में ढ़लेंगी और कैसा भारत गढ़ेंगी इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। पश्चिम के खुले समाज में भी जब सर्वशक्तिमान अमेरिकी राष्ट्रपतियों की भी हिम्मत नहीं होती कि वे अपने विवाहेत्तर संबंधों को स्वीकार कर सकें तो इसका सीधा अर्थ यही है कि पश्चिमी समाज भी यौन शुचिता की अपेक्षा करता है। लेकिन संस्कार, मर्यादा व परंपरा की संस्कृति को आत्मसात करने वाले भारतीय समाज को एक झटके में यौन अराजकता की बेलगाम राहों पर धकेल देना और अपने परंपराओं, मूल्यों, संस्कारों और मर्यादाओं को पुरातन सोच का प्रतीक बताकर उससे पल्ला झाड़ लेना वाकई समाज के काफी बड़े वर्ग की समझ में फिलहाल तो कतई नहीं आ सकता। वर्जनाओं को तोड़ने की होड़ अब अगर परिवार व समाज को छिन्न-भिन्न करते हुए भारतीयता के मूल्यों को तार-तार करने की ओर बढ़ चले तो कोई आश्चर्य, विस्मय या अचंभे की बात नहीं होगी। अपेक्षित था कि मी-लाॅर्ड इस तथ्य की अनदेखी नहीं करते कि अपनी परंपराओं, मर्यादाओं, संस्कारों और सनातन संस्कृति के दम पर ही हम गर्व से समूचे विश्व को यह बताते हैं- यूनानो-मिश्र-रोमां सब मिट गए जहां से, बाकी मगर है अब तक नामो-निशां हमारा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शनिवार, 22 सितंबर 2018
‘श्रेय की सियासत में दफन होती सिद्धू की सिद्धि’
स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि- ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।’ वाकई इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फों में बड़ा नाम दर्ज कराने के लिये मन का बड़ा होना भी उतना ही आवश्यक है जितना कर्मों का बड़ा होना। लेकिन बड़ा काम करने के बाद छोटे मन का प्रदर्शन करते हुए श्रेय हासिल करने की होड़ में शामिल होने का नतीजा क्या होता है यह पंजाब सरकार के कांग्रेसी मंत्री व पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। बीते दिनों उन्होंने काम तो बहुत बड़ा किया था। उन्होंने इमरान खान को पाकिस्तान का वजीर-ए-आजम चुने जाने पर बधाई देने के बहाने परोक्ष तौर पर दोनों मुल्कों के बीच की उस डोर को नए सिरे से जोड़ने की पहल की जिसे जोड़ने के अलावा दोनों मुल्कों के पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है। उन्हें यह मौका दिया केन्द्र की मोदी सरकार ने और उन्होंने भी अपनी पार्टी के नेताओं की नाराजगी की परवाह किए बगैर इस बड़े काम को पूरा करने की दिशा में पूरे आत्मविश्वास के साथ पहल की। दरअसल पाकिस्तान के 22वें प्रधानमंत्री के तौर पर अपने शपथ ग्रहण का साक्षी बनने के लिये इमरान ने तीन भारतीय क्रिकेटर दोस्तों को बुलाया जिनमे कपिल देव और सुनील गावस्कर के अलावा सिद्धू का नाम शामिल था। गावस्कर ने तो विनम्रता से अपनी विवशता दर्शाते हुए बता दिया कि व्यावसायिक व्यस्तताओं के कारण वे शपथ ग्रहण का साक्षी नहीं बन पाएंगे। लेकिन सरकार से अनुमति मिलने पर ही पाकिस्तान जाने की बात सिद्धू ने भी कही और कपिल ने भी। इसके बाद सिद्धू के जाने और कपिल के नहीं जा पाने से यह साफ हो गया कि सरकार ने बेहद सधे व सटीक तरीके से कूटनीतिक कदम आगे बढ़ाया है। वैसे भी अगर सरकार चाहती तो सिद्धू की यात्रा को आसानी से रोक सकती थी। लेकिन विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने सिद्धू को तोते की तरह रटाकर व समझा-बुझाकर इन नसीहतों के साथ पाकिस्तान भेजा कि अव्वल तो वे वहां अति-उत्साह नहीं दिखाएंगे और दूसरे ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे देश व देशवासियों की भावना आहत हो। साथ ही उन्हें सुषमा ने हमेशा यह बाद अपने दिमाग में रखने की हिदायत दी कि उन्हें लौटकर भारत ही आना है क्योंकि यही उनका अपना देश है। वैसे भी सिद्धू को इस्लामाबाद भेजने के लिये चुनना बेहतरीन कूटनीतिक पहल थी क्योंकि वे ना सिर्फ विपक्षी खेमे के धारदार व आक्रामक नेता हैं बल्कि उनकी वाक्पटुता की पाकिस्तानी निजाम से लेकर वहां की आवाम भी कायल है। सिद्धू ने भी वहां जाकर शांति का झरोखा खोलने के अभियान में सिद्धि हासिल करके यह दर्शा दिया कि उन पर भरोसा किया जाना बिल्कुल सही था। हालांकि शपथ ग्रहण के कार्यक्रम में पाकिस्तानी कब्जेवाले कश्मीर के राष्ट्रपति मसूद खान की बगल वाली कुर्सी पर सिद्धू बैठने और पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा के गले लगने को लेकर कांग्रेसनीत विपक्ष से लेकर भाजपानीत सत्तापक्ष तक ने उनकी काफी आलोचना की लेकिन तटस्थता व निष्पक्षता से देखा जाये तो वे पूरी गर्मजोशी के साथ वहां गए और गरिमापूर्ण ढ़ंग से वापस भी आए। वहां जाकर उन्होंने वही बातें कीं जिसकी शांति व अमन की आशा में पाकिस्तान दौरे पर गए किसी भी सच्चे भारतीय से अपेक्षा की जा सकती है। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी की उसी नीति को आगे बढ़ाया कि दोस्त बदले सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते। उनकी यात्रा का हासिल यह रहा कि अव्वल तो पाकिस्तान की ओर से बातचीत की पेशकश हुई और दूसरे दुनिया को दिखाने के लिये पाकिस्तान ने घोषणा की कि गुरूनानक देख के 500वें प्रकाश पर्व के मौके पर उस करतारपुर बाॅर्डर को भारतीय श्रद्धालुओं के लिये खोल दिया जाएगा जिसे बंटवारे और आजादी के बाद से ही उसने बंद किया हुआ है। हालांकि भारत सरकार ने कूटनीतिक तौर पर पाकिस्तान को औकात में लाने के लिये उसकी किसी बात को तवज्जो नहीं देने की ही नीति अपनाई हुई है और प्रयास हो रहा है कि उसे इतना झुकाने के बाद ही इस तरफ से उसकी किसी पहल का समुचित जवाब दिया जब वह सिर्फ बोली में बात करे और गोली की जुबान से तौबा कर ले। लेकिन करतारपुर काॅरीडोर खुलने संभावना को भुनाने के लिये सिद्धू ने जो हरकत की है वह वाकई बेहद दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है। पूरे किये-धरे का राजनीतिक लाभ लेने और भारत की ओर से पाक पर बनाए गए दबाव के साथ खिलवाड़ करने के क्रम में सिद्धू ने कैसी बचकानी हरकत की है उसे से इसी से समझा जा सकता है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री व कांग्रेस के राज्यसभा सांसद एमएस गिल ने सुषमा स्वराज से मुलाकात का समय मांगा जबकि मिलने के लिये गिल के पीछे-पीछे सिद्धू भी पहुंच गए। साथ ही सिद्धू अपने साथ एक फोटोग्राफर को भी ले गये थे ताकि बाद में दुनिया को बता सकें कि उनके कहने पर ही भारत सरकार पाक के साथ संबंध सुधारने और करतारपुर साहेब का दरवाजा खुलवाने की पहल कर रही है। सिद्धू को समझना चाहिये कि विदेश नीति का मसला दलगत राजनीति से बहुत ऊपर होता है और यह दो देशों के बीच हितों के संतुलन पर टिका होता है जिसमें भारतीय नागरिक होने के नाते उनका फर्ज बिना किसी लोभ-लाभ के सिर्फ भारत का हित सुरक्षित करना है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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गुरुवार, 13 सितंबर 2018
‘कनविन्स के बजाय कन्फ्यूज करने का काॅन्फिडेन्स’
वकालत के पेशे में अक्सर यह देखा जाता है कि किसी भी मुकदमे की पैरवी करते वक्त वकीलों की कोशिश रहती है कि तथ्यों, दलीलों, साक्ष्यों, सबूतों व अपनी बातों से जज को कनविन्स कर लिया जाये। लेकिन अगर साक्ष्य व सबूत पर्याप्त ना हों और मुकदमा कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा हो तो ऐसे में वकील पुरजोर कोशिश करता है कि पूरे मामले को लेकर जज को इस कदर कन्फ्यूज कर दिया जाये कि वह उलझ कर रह जाए और सही फैसले तक पहुंच ही ना सके। इन दिनों भाजपा भी इसी रणनीति पर अमल करती नजर आ रही है। आगामी चुनावों के मद्देनजर उसने जनता जनार्दन को कन्फ्यूज करने की ऐसी रणनीति पर अमल आरंभ कर दिया है जिससे यह समझना बेहद मुश्किल है कि आखिर उसकी नीति क्या है और नीयत क्या है। हालांकि दावे से यह कहना बेहद मुश्किल है कि वाकई जनता को कन्फ्यूज किया जा रहा है अथवा पार्टी ही कन्फ्यूजन की स्थिति में है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि एक तरफ शपथ तो राष्ट्रवाद के डंडे में विकास का झंडा लगाकर ‘सबका साथ सबका विकास’ की ली जा रही हो और दूसरी ओर विकास से जुड़े मसलों पर चुप्पी साध ली जाए। राष्ट्रवाद को भी इस अंदाज में आगे बढ़ाया जाए जिससे समाज में सांप्रदायिक विभाजन की नींव मजबूत होती हुई दिखाई पड़े। राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ताना-बाना बुनने की कोशिश के तहत ही तो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानि एनआरसी के मसले को राष्ट्रीय स्तर पर तूल देते हुए एक तरफ खुले शब्दों में ऐलान किया जाता है कि भाजपा की सरकार एक भी रोहिंग्या अथवा बांग्लादेशी को भारत में घुसपैठ करने की छूट नहीं देगी लेकिन लगे हाथों यह बताने से भी परहेज नहीं बरता जाता है कि दुनिया के किसी भी देश से आने वाले हिन्दू, इसाई, बौद्ध, जैन, सिख व पारसी (गैर-मुस्लिम) समाज के लोगों को शरणार्थी के तौर पर स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं किया जाएगा। जाहिर है कि इस तरह की बात करके समाज को हिन्दू और मुसलमान के बीच की खाई में गिराने का ही प्रयास किया जा रहा है। वर्ना घुसपैठियों को संप्रदाय के चश्मे से देखने-दिखाने की जरूरत ही क्या है? देश की समस्या यह नहीं है कि किस संप्रदाय के लोग हमारे देश में अवैध घुसपैठिये हैं अथवा किस धर्म को माननेवाले शरणार्थी हैं। देश की मौजूदा समस्या है डाॅलर के मुकाबले रूपये की गिरती सेहत, पेट्रोलियम पदार्थों के आसमान छूते दाम और वोटबैंक की राजनीति के लिये अपनाई गई तुष्टिकरण की राह के कारण आंदोलित सवर्ण समाज का तीखा आक्रोश व असंतोष। लेकिन केन्द्र से लेकर देश के 19 राज्यों में प्रत्यक्ष और जम्मू-कश्मीर सरीखे सूबों में परोक्ष तौर पर शासन कर रही भाजपा इन जमीनी मसलों को चिमटे से भी छूने की जहमत नहीं उठा रही है। अलबत्ता पूरा जोर इस बात पर है कि एनआरसी के मसले को किसी भी तरह से मुख्यधारा की चर्चा के केन्द्र में ला दिया जाए। जाहिर है कि सांप्रदायिक मसलों को चर्चा में लाकर असली मसलों से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश के तहत ही ऐसा किया जा रहा है। इसी प्रकार कहने को तो भाजपा अपनी सोच सकारात्मक व विकास परक बताती है और तमाम मंचों से यही अपील करती है कि राजनीतिक बहस को विकास व सुशासन पर ही केन्द्रित रखा जाये लेकिन व्यवहार में इस पर अमल करने को लेकर पार्टी कहीं से भी आश्वस्त नहीं दिखती है। वर्ना विपक्ष के महागठबंधन को लेकर ऐसी बेचैनी का आलम नहीं दिखता कि भाजपा की मातृसंस्था यानि आरएसएस के मुखिया को वैचारिक व सैद्धांतिक विरोधियों की तुलना कुत्ते से करने के लिये मजबूर होना पड़े। यानि संघ से लेकर भाजपा संगठन और मोदी सरकार तक में बेचैनी का माहौल भी है और सिद्धांत व व्यवहार में संतुलन की तलाश भी हो रही है। लेकिन सवाल है कि जब नीति और नीयत सिर्फ सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने तक ही सीमित हो जाये तब सिद्धांतों की याद दिलाना बेमानी और मजाकिया ही होगा। अगर सत्ता केन्द्रित नीति ना होती तो जनता से जुड़ाव इतना कमजोर कैसे हो सकता था कि जन-मन को मथ रहे मसलों को चिमटे से छूने की भी जरूरत ना समझी जाए। व्यवहार में अगर कुछ कर पाना संभव ना भी हो तो सैद्धांतिक बातें करके लोगों को सांत्वना दी ही जा सकती है। गुड़ ना दे सको तो गुड़ जैसी बातें ही कहो। लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर विभिन्न स्तरों की बैठकों के बारे में दी जा रही जानकारियों के मुताबिक ना तो रोजगार के मसले पर कहीं कोई चर्चा हो रही है और ना ही डीजल-पेट्रोल की महंगाई को थामने पर विचार करने की जहमत उठाई जा रही है। अलबत्ता रणनीति बन रही है चुनाव जीतने की और इसके लिये लक्ष्य तय किया गया है 51 फीसदी वोटों पर कब्जे का। इसके लिये तुष्टिकरण पिछड़ों का भी किया जा रहा है और दलितों व आदिवासियों का भी। बहुसंख्यकों व गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिये शरणार्थियों का मसला भी चमकाया जा रहा है। ऐसे में अगर सवर्णों, मुसलमानों और कुछ अन्य जातियों को चिढ़ाना-खिझाना भी पड़े तो कोई दिक्कत नहीं। लेकिन सवाल है कि जब सिद्धांत और व्यवहार में असंतुलन व दिखावे की स्थिति प्रबल रहेगी तो संगठन व सरकार से जनता का जुड़ाव क्यों, कैसे व कब तक कायम रह पाएगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018
‘नुकसान की तस्वीर में फायदे का रंग’
राजनीति में कोई भी नुकसान ऐसा नहीं होता जिसमें कोई ना कोई फायदा ना छिपा हो और कोई फायदा ऐसा नहीं होता जिसमें किसी नुकसान का बीज ना छिपा हो। बल्कि नफा-नुकसान के बीच की डगर से ही सियासत का सफर तय होता है। लिहाजा कोशिश यही की जाती है कि कोई कदम उठाने से पूर्व इस बात का अच्छी तरह आकलन कर लिया जाए कि उससे न्यूनतम नुकसान और अधिकतम फायदा हासिल हो। लेकिन सामाजिक न्याय के झंडे को मजबूती से लहराने और कमंडल को किनारे रखकर मंडल की माला पहनने की कोशिश में भाजपा को इन दिनों जिस कदर अपने परंपरागत मतदाताओं की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है उसकी पार्टी ने शायद ही कभी कल्पना भी की हो। हालांकि संसद के हालिया गुजरे सत्र के आखिरी दिनों में ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देना और अनुसूचित जाति व जनजाति उत्पीड़न निवारक अधिनियम को दोबारा से मजबूत किया जाना भाजपा की नजर में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में ऐसा ऐतिहासिक कदम था कि उसे ‘अगस्त क्रांति’ का नाम देने से भी परहेज नहीं बरता गया। पूरे देश में अगस्त क्रांति यात्रा निकाली गई और जमीनी स्तर तक लोगों को यह बताने का प्रयास किया गया कि पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों के हितों की रक्षा करने के लिये मोदी सरकार किस कदर अडिग व कृतसंकल्पित है। लेकिन ओबीसी और एससी-एसटी के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के इन प्रयासों से समाज का वह सवर्ण तबका बुरी तरह बिदक गया जिसका मानना है कि उसके ही समर्थन से दो सांसदों वाली भाजपा को पूर्ण बहुमत तक की यात्रा करने में सफलता मिली है। नतीजन सवर्णों का आक्रोश सड़क पर दिख रहा है। कहीं भाजपा के मुख्यमंत्री पर जूता-पत्थर फेंका जा रहा है तो कहीं मंत्रियों-सांसदों को काले झंडे दिखाए जा रहे हैं। पूरे देश में सवर्णों का आक्रोश उबाल मार रहा है। हालांकि भाजपा को इस बात का अंदेशा पहले से था कि दलितों व पिछड़ों का तुष्टिकरण करने की कोशिश में उसे सवर्णों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। लेकिन उसकी विवशता थी कि दलितों को गैर-भाजपाई ध्रुवीकरण का हिस्सा बनने से रोकने के लिये एससी-एसटी एक्ट के उन प्रावधानों को दोबारा पूर्ववत बहाल करे जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने कानून का दुरूपयोग रोकने की नीयत से शिथिल कर दिया था। कानून को शिथिल किये जाने के बाद से जिस कदर देश भर में दलितों पर हमलों के मामले सामने आ रहे थे और पूरा दलित समाज मोदी सरकार के खिलाफ आंदोलित, आक्रोशित व एकजुट होता दिख रहा था उससे भाजपा के हाथ-पांव फूले हुए थे कि अगर एकजुट दलितों ने गैर-भाजपावाद का झंडा थाम लिया और राष्ट्रीय स्तर पर मीम-भीम एका की परिकल्पना साकार हो गयी तो उस आंधी में अपना वजूद बरकरार रख पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो जाएगा। वैसे भी पूरा विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्तापक्ष के कई साथी व सहयोगी भी आरक्षण के मसले को लेकर भाजपा व मोदी-सरकार की नीति व नीयत पर उंगली उठाने में कसर नहीं छोड़ रहे थे। मोदी सरकार की छवि को दलित विरोधी के तौर पर दर्शाने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा था। यही वजह रही कि मोदी सरकार ने दलितों की आवाज को संसद की स्वीकृति दिला दी और एससी-एसटी एक्ट को पुराने स्वरूप में बरकरार कर दिया। लेकिन इससे भाजपा को दलितों का कितना समर्थन मिल पाएगा इसके बारे में तो पक्के तौर पर तो कोई कुछ नहीं कह सकता अलबत्ता अब सवर्णों ने अवश्य पार्टी की नींद उड़ा दी है। यही वजह है कि अब पूरा भगवा खेमा इस मामले को लेकर दो-फाड़ दिख रहा है। पार्टी का एक बड़ा तबका इस मसले को इसी सप्ताहांत राजधानी स्थित अम्बेडकर भवन में आयोजित होने जा रही दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पूरी मजबूती से उठाने का संकेत दे रहा है। यहां तक कि वरिष्ठतम भाजपाई नेताओं में शुमार होनेवाले कलराज मिश्र ने तो सार्वजनिक तौर पर जता-बता दिया है कि सवर्णों के खिलाफ होने वाले दलित कानून के दुरूपयोग के मामलों से निपटने के लिये ठोस इंतजाम किये जाने की जरूरत है। लेकिन इस सबके बीच भाजपा के शीर्ष संचालकों की टोली ने मंगलवार की शाम को जब इस पूरे मसले को लेकर अलग से चिंतन-विवेचन किया तो उसमें यही तय हुआ कि एससी-एसटी के मामले को लेकर जारी विवाद को अलग-अलग स्तर पर सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ा जाये। मसलन दलितों के हितों को सर्वोपरि रखने का जो प्रयास किया गया है उसको लेकर दलित समाज के बीच जागरूकता बढ़ाने के अभियान को बदस्तूर जारी रखा जाये। दूसरी ओर सवर्ण समाज को यह बताया जाये कि आखिर किन मजबूरियों के कारण सरकार को इस दिशा में पहलकदमी करनी पड़ी है और क्यों ऐसा करना सभी राजनीतिक दलों के लिये भी आवश्यक हो गया था। साथ ही सवर्ण समाज को यह बताने का भी प्रयास किया जाएगा कि मोदी सरकार ने एससी-एसटी एक्ट में अपनी ओर से कुछ भी नया नहीं जोड़ा है बल्कि पुराने कानून को ही यथावत बहाल कर दिया है। खैर, इस सबसे सवर्ण समाज का आक्रोश कितना शांत होगा और सवर्णों की नाराजगी किस हद तक चुनावी नतीजों में फलित होगी यह तो वक्त आने पर ही पता चलेगा लेकिन इस पूरे विवाद और खास तौर से सवर्णों के मुखर आक्रोश ने भाजपा को दलित विरोधी बताने के प्रयासों को तो पूरी तरह पलीता लगा ही दिया है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शनिवार, 1 सितंबर 2018
‘तेल के खेल की तह से निकलता निदान’
महंगाई का मसला हमारे देश में सियासी तौर पर हमेशा से ही इतना संवेदनशील रहा है कि कभी प्याज की बढ़ी कीमतों के कारण सरकार बदल गई तो कभी अनाज या दलहन के अभाव ने सत्ताधारियों की साख चैपट कर दी। इस बार आग लगी है पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में। आलम यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद डीजल-पेट्रोल की कीमतें सुरसा की तरह अपना विस्तार करती दिख रही हैं। नतीजन इस मसले पर सरकार को घेरने के लिये राजनीति भी हो रही है और आम लोग भी त्राहिमाम् करते दिख रहे है। हालांकि डीजल-पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाकर और इस पर से करों का बोझ कम करके लोगों को फौरी राहत अवश्य दी जा सकती है। लेकिन चुंकि यह समस्या देश की अंदरूनी नीतियों के कारण खड़ी नहीं हुई है लिहाजा घरेलू जुगाड़ से इस समस्या के समाधान का प्रयास दूरगामी तौर पर कतई कारगर साबित नहीं हो सकता। सच तो यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों की समस्या विश्व व्यवस्था की ओर से भारत पर थोपी व लादी गई है जिसके सामने घुटने टेकने का मतलब होगा विकास व तरक्की की गति से समझौता करना। हालांकि कच्चे तेल की आपूर्ति करनेवाले देशों के संगठन ओपेक के समक्ष भारत लगातार गुहार-मनुहार करता रहा है कि वे अपने रवैये में सुधार लाएं और मुनाफे के लिये मनमानी नीतियों पर अमल ना करें। लेकिन ओपेक देशों द्वारा मुनाफे के लिये कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती का सिलसिला लगातार जारी है। दरअसल दुनिया के बड़े तेल उत्पादक देश आपूर्ति पर नियंत्रण बना कर मनमुताबिक कीमतें तय करने के मकसद से ही वर्ष 1960 में ओपेक का मंच बनाकर एकजुट हुए थे। लेकिन 1998 में कच्चे तेल की कीमतें सर्वकालिक न्यूनतम स्तर यानि 10 डाॅलर प्रति बैरल पर आ गईं तब वर्ष 2000 में ओपेक ने तय किया कि कच्चे तेल की कीमत 22 डॉलर से नीचे जाने पर उत्पादन में कटौती की जाएगी और 28 डॉलर प्रति बैरल की कीमत पर आने के बाद ही उत्पादन बढ़ाया जाएगा। हालांकि बाद के सालों में कच्चे तेल की कीमतें न्यूनतम स्तर पर ही रहीं और आपूर्ति की तुलना में निरंकुश उत्पादन की होड़ लगी रही। नतीजन तमाम तेल उत्पादक देशों का घाटा बढ़ने लगा और आखिरकार ओपेक के अलावा अन्य तेल उत्पादक देशों ने भी ओपेक प्लस के नाम से एक मंच बना कर वर्ष 2017 से उत्पादन में 18 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती करने संबंधी एक समझौता कर लिया। नतीजन कच्चे तेल की कीमतें 27 डॉलर से बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गईं। इस बीच हाल के कुछ महीनों में वेनेजुएला, लीबिया और अंगोला ने तेल आपूर्ति में लगभग 28 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की है। साथ ही वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था के जमींदोज होने और ईरान पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगा दिये जाने के बाद तेल के खेल में चारों तरफ आग ही आग की स्थिति दिख रही है। हालांकि भारत द्वारा दूरगामी तौर पर मांग में कमी करने की चेतावनी और ऊर्जा आवश्यकताओं के लिये अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाने का संकेत दिये जाने के बाद बीते दिनों ओपेक ने कच्चे तेल का उत्पादन एक लाख बैरल प्रतिदिन बढ़ाने का निर्णय अवश्य किया है। लेकिन इससे ना तो समस्या का स्थाई समाधान संभव है और ना ही भविष्य के प्रति निश्चिंत हुआ जा सकता है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नाले के गैस से चूल्हा जलाने की कहानी सुनाना वास्तव में ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में तकनीक की आवश्यकता की ओर इशारा है और इस ओर प्रधानमंत्री की नजरें गड़ी होने का सीधा मतलब है कि अब भारत की पहली प्राथमिकता ऊर्जा के लिये विदेशों पर निर्भरता की विवशता से निजात पाना है। बीते सप्ताह बायोफ्यूल से विमान उड़ाकर बॉम्बार्डियर क्यू-400 द्वारा 20 सवारियों के साथ देहरादून से राजधानी दिल्ली के बीच के स्वर्णिम सफर के सपने को साकार किया जाना भी उसी सिलसिले की कड़ी है। दरअसल अब बेहद आवश्यक हो गया है कि हम वैकल्कि ऊर्जा श्रोतों पर गंभीरता से ध्यान दें और पेट्रोलियम पर अपनी निर्भरता को यथासंभव कम करें। इसके लिये इसी साल नैशनल पॉलिसी फॉर बायोफ्यूल भी तैयार की गई है जिसके मुताबिक अगले चार सालों में एथेनॉल के उत्पाद को तीन गुना तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा बायोफ्यूल, बायोगैस व सौर ऊर्जा पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है और घरेलू संसाधनों से ऊर्जा जरूरतें पूरी करने की कोशिश की जा रही है। वैकल्पिक अक्षय ऊर्जा को लेकर भारत की जो नीति है उसके तहत वर्ष 2025 तक प्रतिदिन के तेल की खपत में 10 लाख बैरल की भारी कमी आएगी। इसके लिये इलेक्ट्रोनिक व गैर-पेट्रोलियम चालित वाहनों को टोल टैक्स से छूट देने की योजना भी बन रही है और नीति आयोग सरकार को यह सलाह भी दे रहा है कि ऐसे वाहनों की खरीद पर डेढ़ लाख तक की सब्सिडी भी मुहैया कराई जाए ताकि आम लोगों को वैकल्कि ईंधन का इस्तेमाल बढ़ाने के लिये प्रेरित किया जा सके। जाहिर है कि वैकल्पिक ईंधन का काफी बड़ा श्रोत खेतों में उपजेगा जिससे निश्चित ही भारत के किसानों को सीधा लाभ होगा और प्रदूषण के स्तर में भी कमी आएगी। साथ ही तेल का आयात करने में खर्च होनेवाली विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी और ऊर्जा में आत्मनिर्भरता से सशक्त भारत की तस्वीर उभर कर सामने आएगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शनिवार, 18 अगस्त 2018
‘आसमान भी रो पड़ा अटल के अवसान पर’
आखिरकार चले ही गए अटलजी। लंबे समय से जीवन और मृत्यु के बीच पेंडुलम की तरह झूलते हुए वे खुद इस बात को महसूस नहीं कर पा रहे थे कि वे हैं भी या नहीं। कल्पना की जा सकती है किसी व्यक्ति की ऐसी स्थिति को जिसे इस कदर विस्मृति हो गयी हो कि यह भी याद ना रहे कि वह कौन है, कहां है और क्यों है। कब खाया, क्या खाया और खाया भी या नहीं। यहां तक कि शरीर में कोई संवेदना ही ना बचे, दुख-सुख से परे हो जाये। जिसका जीवन महज चिकित्सकीय प्रयासों व कृत्रिम जीवन रक्षक यंत्रों के सहारे सांसों के आवागमन का एक सिलसिला भर बन कर रह जाये उसका क्या रहना और क्या चले जाना। सच तो यह है कि सिर्फ चिकित्सकीय तौर पर अटलजी हमारे बीच से चले गये हैं वर्ना जा तो वे काफी पहले ही चुके थे। उनके जाने की शुरूआत तो तभी हो गयी थी जब उन्होंने स्वेच्छा से सक्रिय राजनीति और सार्वजनिक जीवन से खुद को अलग-विलग कर लिया था। खुद ही मना कर दिया था संसद की सदस्यता लेने से। लेकिन यह अटलजी का ही जीवट था जो तकरीबन एक दशक तक मौत के साथ उनका अनवरत संघर्ष जारी रहा। इस बीच कई ऐसे मौके आए जब लगा कि वे नहीं बच पाएंगे। मगर हर बार वे मौत को मात देते रहे। परन्तु इस धरा धाम पर मृत्यु ही अकाट्य सत्य है। जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसी सनातन व्यवस्था को अंगीकार करते हुए अटलजी ने भी अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। यह भरोसा दिलाते हुए कि- ‘मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौट कर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?’ हालांकि उनका रहना भी ना रहने जैसा हो गया था लेकिन कम से कम एक भरोसा था उनके होने का। लेकिन अब वह भरोसा भी समाप्त हो गया। अटलजी का जाना वाकई ऐसा है जैसे सिर से अभिभावक का साया उठ जाना। वे हर भारतवासी के अपने अटल थे जिन्होंने अपने वचन व कर्म से हर किसी को कहीं ना कहीं छुआ भी और उसमें बदलाव भी किया। आज जितनी भी विकास की परियोजनाएं संचालित हो रही हैं उनकी नींव में अटलजी के हाथों से डाला गया एक ना एक पत्थर अवश्य मौजूद है। उन्होंने विपक्ष में रहते हुए तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार के आग्रह पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में ऐसे जटिल समय में भारत का पक्ष रखने की जिम्मेवारी सफलता से निभाई जब पाकिस्तान ने उस मंच पर कश्मीर के मुद्दे को उठाने का दुस्साहस किया था। बाद में सत्ता की बागडोर संभालने पर परमाणु बम का विस्फोट कर दुनिया में भारत को एक नयी पहचान और प्रतिष्ठा दिलाने वाले, अपने कार्यकाल में भारत को एक बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत बनाने वाले, उत्तर-दक्षिण से लेकर पूरब-पश्चिम तक राष्ट्रीय राजमार्गों, ग्रामीण सड़कों का जाल बिछाने की शुरूआत करनेवाले, शिक्षा का अधिकार दिलानेवाले, बाढ़-सुखाड़ का पूर्ण समाधान करने के लिये नदियों को जोड़ने और मोबाइल क्रांति से लोगों को जोड़ने वाले, विचारधारा पर अडिग किन्तु विरोधियों का भी सम्मान करने वाले, संयुक्त राष्ट्र तक में हिन्दी और हिन्दुस्तान का डंका बजानेवाले अटल जी का चले जाना वाकई अपूरणीय क्षति है। यानि कोई ऐसा आयाम या इंसान नहीं है जिसे अटलजी के जाने से फर्क ना पड़ा हो। फर्क उस भाजपा को पड़ा है, जिसका ना सिर्फ उन्होंने बीज बोया बल्कि उसे दो सांसदों से आगे बढ़ाते हुए ऐसा स्वरूप दिया कि कांग्रेस के विरोध वाली तीन गैरकांग्रेसी सरकार का नेतृत्व उन्होंने खुद भी किया और आज पूरे बहुमत के साथ भाजपा केन्द्र से लेकर तकरीबन बीस राज्यों में सत्तारूढ़ है। फर्क उस भारत को पड़ा है, जिसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये उन्होंने अपने जीवन का क्षण-क्षण और देह का कण-कण समर्पित कर दिया। फर्क देशवासियों को पड़ा है, जिसके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की दिशा में ऐसी पदचाप बनाई जिस पर चलते हुए भाजपा की तमाम सरकारें जनकल्याण के ध्येय के साथ आगे बढ़ रही हैं। फर्क लोकतांत्रिक मूल्यों को पड़ा है, जिसकी राह पकड़ कर उन्होंने 24 दलों को अपने साथ जोड़कर पूरे कार्यकाल की सरकार चलाई। फर्क उन मूल्यों को पड़ा है, जिसका पूरी श्रद्धा के साथ अनुपालन करते हुए उन्होंने यह कहते हुए महज एक वोट की कमी के कारण अपनी सरकार गिर जाने दी कि वे जोड़-तोड़ और जुगाड़ से प्राप्त होनेवाली सत्ता को चिमटे से छूना भी गवारा नहीं कर सकते। फर्क उस विपक्ष को पड़ा है, जिसके लिये अटलजी के कार्यालय व निवास के ही नहीं बल्कि दिल के दरवाजे भी हमेशा खुले रहते थे। फर्क धर्मनिरपेक्षता के उस सिद्धांत को पड़ा है, जिस पर गुजरात में आघात होने पर उन्होंने रूंधे गले और भारी मन से कहा था कि अब वे विश्व को अपना चेहरा कैसे दिखा पाएंगे। फर्क उस मां सरस्वती को पड़ा है, जिसकी साधना उन्होंने आपातकाल के दौरान जेल में भी जारी रखी और कविता की पूरी किताब सलाखों के पीछे रह कर लिख डाली। लेकिन वास्तव में अगर किसी को फर्क नहीं पड़ा है तो वे अकेले व इकलौते अटलजी खुद ही हैं। ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया की तर्ज पर वाकई उन्हें व्यक्तिगत तौर पर अपने जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा है। बल्कि देखा जाये तो उनका जाना वास्तव में उनकी मुक्ति ही है। अब वे मुक्त हो गए हैं अपनी तमाम शारीरिक व्याधियों व पीड़ाओं से। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
शुक्रवार, 10 अगस्त 2018
‘गुंथे फूल सबके मन भाए, बिखरे हुए करें हाय-हाय’
अनेकता में एकता की जो अवधारणा है उसमें विवधता के बावजूद खूबसूरती में तभी इजाफा होता है जब एकता के धागे में तमाम तरह के फूल परस्पर मजबूती से गुंथे-जुड़े हों। वर्ना बिखरे हुए फूलों की पंखुड़ियां तो न्यौछावर करने के काम ही आती हैं। हालांकि माला बनने के क्रम में भी फूलों की स्वतंत्र सत्ता बरकरार ही रहती है लेकिन अलग-अलग रंग, रूप व गंध का होने के बावजूद जिन फूलों ने सहमति व विश्वास के धागे में बंधना स्वीकार कर लिया हो उनकी ही माला के तौर पर पूछ होती है। राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर भी तमाम जातियों व उपजातियों में बंटे होने के बावजूद जिन वर्गों ने परस्पर एकता की डोर को जितनी मजबूती से थामना स्वीकार किया उनकी उतनी ही अधिक कद्र होती है। लेकिन जो आत्ममुग्धता के दायरे से निकल कर दूसरे को अपनाने और किसी अन्य के साथ जुड़ने के लिये आगे नहीं आते उन्हें कोई नहीं पूछता। वे हाशिये पर रहते हुए दूसरों की खुशी व तरक्की को देखकर आहें ही भरते रह जाते हैं। ऐसा ही हो रहा है इन दिनों उन अगड़ी जातियों के साथ जो इस सप्ताह संसद में ओबीसी और अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कल्याण के लिये बनाए गए कानूनों को देख कर जल-भुन व कुढ़ रहे हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर जलन के धुएं का फैलाव देख कर व विवशता भरी गुहार सुनकर एकबारगी किसी का भी दिल पसीज सकता है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखा जाये तो अपनी इस दशा व मौजूदा हालातों के लिये ये किसी और को कतई जिम्मेवार नहीं ठहरा सकते। आज अगर पिछड़ों और दलितों के हितों की रक्षा के लिये तमाम राजनीतिक दल एक साथ आगे आए हैं और हर कोई इन्हें लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है तो इसकी कई वजहों में से एक बड़ा कारण इनकी वह एकता है जो सभी राजनीतिक दलों को ललचाता भी है और डराता भी है। बेशक दलित, आदिवासी और पिछड़े ही नहीं बल्कि मुसलमान भी अंदरूनी तौर पर तमाम उपजातियों व फिरकों में बंटे हुए हों लेकिन बात जब जाति के स्वाभिमान की आती है तो ये सभी एकजुट हो जाते हैं। ऐसी एकजुटता अगड़ों यानि कथित सवर्णों में कहीं नहीं दिखती। आदिवासी समाज जब सड़क पर उतरता है तब वह संथाल, गोंड, मुंडा, माहली, बोडो, मीणा, खासी, सहरिया, गरासिया, उरांव, बिरहोर या मावची वगैरह के रूप में अलग-पृथक नहीं दिखता बल्कि समग्रता में आदिवासी शक्ति दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार विभिन्न अनुसूचित जातियों के बीच आपस में सामाजिक स्तर पर तमाम दूरियों के बावजूद हक व अधिकारों पर अतिक्रमण की नौबत आने पर 16.6 फीसदी दलित आबादी एकजुट नजर आती है। लेकिन अगड़ों की बात करें तो इनके बीच शायद ही कभी ऐसी एकजुटता दिखती हो। सभी अगड़ी जातियों के एकजुट होने की बात तो बहुत दूर की है अलबत्ता ये आपस में भी एक-दूसरे के साथ मिल जुलकर आगे आने के लिये सहमत नहीं होते। खुद को अगड़ों का अगुवा कहनेवाले ब्राह्मणों की ही बात करें तो इनमें कोई गौड़ है तो कोई द्रविड़। गौड़ में भी कान्यकुब्ज, शाकलद्वीपीय, मैथिल, सरयूपाणी, सारस्वत, चितपावन, झिझौतिया, गालव, अनाविल व महियाल सरीखे दर्जनों प्रकार के ब्राह्मण हैं। इतना ही नहीं बल्कि आगे इनमें भी कई भेद, विभेद, मतभेद और विच्छेद हैं। मैथिल ब्राह्मण की बात करें तो इनमें कोई श्रोत्रिय है तो कोई भलमानुस, कोई जयवार तो कोई करमहे, सुगरगणे वगैरह। अंतिम संस्कार करानेवाले महाब्राह्मण वैसे ही समाज से अलग-विलग रहते हैं। लेकिन बाकियों में भी कोई किसी को अपने बराबर का नहीं मानता। सब एक-दूसरे से ऊपर ही हैं और बेहतर में भी बेहतरीन हैं। आत्ममुग्धता की यही स्थिति राजपूतों की भी है और कायस्थों व भूमिहारों में भी। नतीजन कुल 23.4 फीसदी आबादी के बावजूद आरक्षण के लाभ से अलग-थलग पड़ी अगड़ी जातियों के हितों की रक्षा की बात कहीं नहीं सुनी जाती। नतीजन इस वर्ग के बीच असंतोष, तकलीफ और काफी हद तक जलन व आक्रोश का भाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। फिलहाल इनके दुख की वजह है कि संसद से ओबीसी और एससी-एसटी को तो अधिकतम सम्मान और अधिकार मिल रहा है, लेकिन इन्हें कोई टके का भाव भी नहीं दे रहा। ना सत्ता पक्ष और ना ही विपक्ष। ओबीसी आयोग बनाने के लिए भी संसद में आम सहमति बन जाती है और एससी-एसटी उत्पीड़न निरोधक कानून को कठोर करने के मामले में भी संसद में सर्वसम्मति का माहौल बन जाता है। लेकिन अगड़ों के लिये अलग से कुछ करना किसी को जरूरी महसूस नहीं होता। ऐसे में सवाल है कि आखिर अगड़ों को ऐसी नौबत क्यों झेलनी पड़ रही है? हालांकि कहने को कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यही है कि इस नौबत की जड़ें अतीत में उतनी गहराई तक नहीं धंसी हैं जितनी वर्तमान के साथ जुड़ी हुई हैं। जिन परिस्थितियों के कारण दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिये विशेष संवैधानिक व्यवस्था की गई थी वे व्यावहारिक स्तर पर भले ही कुछ हद तक बदली हों लेकिन सैद्धांतिक, वैचारिक, मानसिक व सामाजिक स्तर पर यथावत बरकरार हैं। लिहाजा जब तक अगड़ों में श्रेष्ठता व विशिष्ठता का अहंकार, आपसी भेद-विभेद व मतभेद और बाकियों के प्रति दुर्भावना का भाव बरकरार रहेगा तब तक इनके लिये हाशिये से ऊपर उठना और सियासी स्तर पर कद्र व विशेष पूछ हासिल कर पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही बना रहेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर
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मंगलवार, 7 अगस्त 2018
जोरदार प्रहार के लिये दमदार मुद्दे की दरकार
केन्द्र की मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिये विपक्ष की बेचैनी किसी से छिपी ने नहीं है। इसके लिये समूचा विपक्ष कुछ भी कर गुजरने के लिये सैद्धांतिक तौर पर पूरी तरह तैयार हो चुका है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी वापस ले ली है तो प्रदेश स्तर पर यूपी में सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के बावजूद सपा ने महागठबंधन के लिये कुर्बानी देते हुए अपनी तुलना में बसपा को अधिक सीटें देने की स्वीकृति का संकेत दे दिया है। बिहार में राजद ने सभी गैर-भाजपाई ताकतों को महागठबंधन में सम्मानजनक तरीके से समाहित करने के लिये तमाम खिड़की-दरवाजे खोल दिये हैं तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल होने का प्रस्ताव लेकर ममता बनर्जी दिल्ली में कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार सदस्यों से एकांत में बातचीत कर चुकी हैं। सुदूर दक्षिण में द्रमुक के साथ कांग्रेस के तालमेल की रूपरेखा पहले ही तैयार हो चुकी है जबकि जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस भी महागठजोड़ का हिस्सा बनने के लिये पहले से तैयार है। कर्नाटक में जद-एस की नाराजगी को दूर करते हुए कांग्रेस ने उसे किसी भी मसले पर सीधा केन्द्रीय नेतृत्व से संवाद कायम करने की मंजूरी दे दी है और आंध्र प्रदेश व तेलंगाना से लेकर महाराष्ट्र तक में भाजपानीत राजग के खिलाफ दिख रहे तमाम दलों को एकजुट होकर चुनाव लड़ने के लिये मनाया-समझाया जा रहा है। यानि बीते लोकसभा चुनाव में विपक्षी वोटों के बिखराव के कारण महज 32 फीसदी वोट पाकर ही संसद में अपने दम पर पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल कर लेने वाली भाजपा की चैतरफा घेरेबंदी करके यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है कि भाजपा को नकारने के लिये पड़नेवाला एक भी वोट विपक्ष के बिखराव के कारण बर्बाद ना हो सके। इस तरह 2019 के आम चुनाव की रणभूमि के लिये व्यूह रचना की निर्णायक रूपरेखा तैयार कर ली गयी है। लेकिन सवाल है कि महारथियों के व्यूह को धारदार व मारक हथियारों से लैस किये बिना सत्ता पक्ष पर जोरदार प्रहार करके उसे परास्त करने की योजना को कैसे सफल किया जा सकता है। इस लिहाज से देखा जाये तो सरकार पर जोरदार प्रहार करने के लिये दमदार मुद्दों के हथियार का चयन करने के मकसद से हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के नतीजे से कोई उत्साहजनक वातावरण नहीं बन पा रहा है। हालांकि समान विचारधारा वाले तमाम दलों को अपने साथ मजबूती से जोड़ने के लिये कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद का लाॅलीपाॅप अपने दरवाजे के बाहर अवश्य लटका दिया है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ा गैर-भाजपाई दल होने के नाते महागठबंधन की धुरी की भूमिका तो कांग्रेस को ही निभानी होगी। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार की बात करें तो कांग्रेस के अलावा बाकी सभी पार्टियों की पहुंच क्षेत्रीय व सूबाई स्तर तक ही सिमटी हुई है। लिहाजा चुंकि राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाकर भाजपा के खिलाफ मजबूत घेराबंदी तैयार करने की जिम्मेवारी कांग्रेस के ही कांधों पर है तो फिर ऐसे मुद्दों के हथियारों का चयन भी उसे ही करना होगा जिसका राष्ट्रव्यापी प्रयोग कर पाना संभव हो। हालांकि इस जिम्मेवारी को निभाते हुए कार्यसमिति की दूसरी बैठक में कांग्रेस ने जिन मुद्दों का चयन किया है उनमें असम के नागरिकता रजिस्टर से 40 लाख लोगों का नाम नदारद होना, फ्रांस से राफेल जहाजों की खरीद में हुआ भ्रष्टाचार, बैंकों में हुई धोखाधड़ी और बढ़ती बेरोजगारी का मसला मुख्य रूप से शामिल है। लेकिन इनमें से एक की भी मारकता ऐसी नहीं दिख रही है जो भाजपा की विश्वसनीयता व स्वीकार्यता के कवच में छेद कर उसके मर्मस्थल को भेदने में सक्षम हो। बल्कि खतरा तो यह है कि कांग्रेस द्वारा चयनित मुद्दों के तमाम हथियार कहीं भाजपा के कवच से टकराकर उल्टा बुमरैंग करके विपक्ष को ही आहत व घायल ना कर दें। मसलन असम के नागरिकता रजिस्टर का मसला भाजपा ने ही विपक्ष को थमाया है लिहाजा विपक्ष जितना इस मुद्दे को तूल देगा उतना ही इससे भाजपा को राष्ट्रीय स्तर फायदा मिलेगा क्योंकि इससे कट्टर राष्ट्रवादी सोच जुड़ी हुई है जिसका प्रसार भाजपा के लिये बेहद फायदेमंद साबित हो सकता है। इसी प्रकार बैंकों में धोखाधड़ी के आंकड़े भी कांग्रेस के ही खिलाफ हैं क्योंकि पूरा एनपीए घोटाला उसके ही कार्यकाल में हुआ। राफेल के मामले में भी गोपनीयता करार वर्ष 2008 में तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी ने किया था जिसके लागू रहते हुए इस पर उठनेवाले तमाम सवालों से भाजपा के पक्ष में जनसंवेदना का निर्माण हो सकता है। रहा सवाल रोजगार का तो इसको लेकर सत्तापक्ष या विपक्ष कुछ भी कहे लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि यह सनातन समस्या है जिसका राजनीतिक स्तर पर पूर्ण निदान नहीं हो पाने की बात सर्वविदित है। यानि समग्रता में देखा जाये तो कांग्रेस ने जिन मुद्दों का चयन किया है उनकी जड़ें या तो उसके ही कार्यकाल की नाकामियों से जुड़ी हैं अथवा मोदी सरकार ने ही उपहार के तौर पर ये मुद्दे उसे सुलभ कराए हैं। ऐसे में यह विश्वास करना तो बेहद मुश्किल है कि इन मुद्दों से मोदी सरकार की स्वीकार्यता या लोकप्रियता में रत्ती भर भी कमी आ पाएगी अलबत्ता यह देखना अवश्य दिलचस्प होगा कि अगर वाकई विपक्ष ने इन्हीं मुद्दों से सरकार पर प्रहार करने की पहल की तो इसके पलटवार का विपक्ष की सेहत पर क्या असर पड़ेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर
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शनिवार, 4 अगस्त 2018
‘समीकरणों की सिद्धांतों से सियासी भिड़ंत’
सियासत की राहों से गुजर कर सत्ता की मंजिल तक पहुंचने के लिये सिद्धांतों की भी उतनी ही जरूरत पड़ती है जितनी समीकरणों की। सिर्फ सिद्धांत के दम पर अगर सियासत को आगे बढ़ाना संभव होता तो महज एक वोट की कमी के कारण लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को हार का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन वह लोग ही और थे जो सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए समीकरणों के सहारे हासिल होनेवाले सियासी लाभ को ठुकरा दिया करते थे। सामान्य तौर पर सियासत में सिद्धांतों और समीकरणों के बीच संतुलित तालमेल से ही आगे बढ़ने की राह निकलती हुई देखी गई है। व्यावहारिकता में ना तो सिर्फ सिद्धांतों से सियासत को आगे बढ़ाना संभव हो सकता है और ना ही सिर्फ समीकरणों के दम पर। बल्कि सियासत के लिये दोनों को एक दूसरे का पूरक कहना ही उचित होगा। लेकिन मसला है कि इन दिनों सिद्धांत और समीकरण आमने-सामने आ गए हैं। जो सिद्धांतों के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं उनका समीकरण गड़बड़ हो रहा है और जिनके हाथों में समीकरण की लाठी है उनकी राहों में सिद्धांतों का उजाला नदारद है। एक पक्ष सिद्धांत के लिये समीकरण की परवाह नहीं करना चाहता जबकि दूसरा पक्ष समीकरण साधने के लिये अपने सिद्धांतों की बलि देने से भी संकोच नहीं कर रहा है। हालांकि दोनों को अपनी राहें सत्ता की मंजिल की ओर ही जाती हुई दिख रही हैं लेकिन ऐसा तो संभव ही नहीं है कि दोनों को एक साथ बहुमत का आंकड़ा हासिल हो जाए। लिहाजा अंतिम फैसला तो जनता-जनार्दन को ही करना होगा कि सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले को अपना आशीर्वाद दिया जाए या समीकरण के सांझा चूल्हे पर सियासी रोटी सेंकने वालों को तरजीह दी जाए। लेकिन जनता का फैसला तो चुनाव के बाद ही आयेगा। फिलहाल तो तात्कालिक नफा-नुकसान के मुताबिक भविष्य का आकलन करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। इस लिहाजा से देखें तो सिद्धांतों को ताक पर रख कर समीकरणों के सहारे सियासी सफलता हासिल करने के प्रयासों को बीते कुछ सालों में जनता ने बुरी तरह नकारा ही है। जब उत्तर प्रदेश में दशकों से गैर-कांग्रेसवाद की राजनति करनेवाली सपा ने विधानसभा चुनाव में समीकरणों को साधने के लिये सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर कांग्रेस का हाथ थामने की पहल की तो जनता ने दोनों को सिरे से खारिज कर दिया। जब धुर सैद्धांतिक विरोधी पीडीपी को गले लगाकर भाजपा ने सिद्धांतों को ताक पर रखकर समीकरणों के सहारे जम्मू-कश्मीर की सत्ता हथियाने की पहल की तो एक के बाद एक होनेवाले उप-चुनावों में भगवा खेमे को सिलसिलेवार हार का सामना करना पड़ा। बिहार में नीतीश कुमान ने अपने द्वारा गढ़े गए सिद्धांतों से ही पलटी मारते हुए जब महा-गठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ दोबारा जुड़ने की पहल की तो उसके बाद से जमीनी स्तर पर उनकी पकड़ लगातार कमजोर ही होती जा रही है और अपनी सरकार होते हुए भी उप-चुनावों के मंझधार में राजग की लुटिया डूबती हुई दिख रही है। लेकिन जब धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के धागे से महा-गठजोड़ के समीकरण की गांठ बांधकर यूपी में विरोधियों ने भाजपा को चुनौती दी तो मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में भी कमल मुरझा गया। इन कुछ मिसालों के संकेतों को समग्रता में समझने की कोशिश करें तो सिद्धांतों के लिये समीकरण को ताक पर रखना उतना नुकसानदायक नहीं रहता है जितना समीकरण साधने के लिये सिद्धांतों से मुंह मोड़ना। तभी तो भाजपा ने समीकरण की परवाह किये बगैर सिद्धांतों की राह पर आगे बढ़ना ही मुनासिब समझा है जबकि कांग्रेस समीकरण के लिये अपने सिद्धांतों से समझौते का विकल्प आजमाना बेहतर समझ रही है। खास तौर से असम में तैयार किये जा रहे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानि एनआरसी के मामले में भाजपा ने राजग के समीकरणों की परवाह किये बगैर अपने पूर्वनिर्धारित सिद्धांतों की राह पर आगे बढ़ना ही बेहतर समझा है। वर्ना भाजपा को भी बेहतर पता है कि इस मसले को तूल दिये जाने से जदयू, लोजपा, रालोसपा व अन्नाद्रमुक सरीखे उसके वे सहयोगी खासे खफा हो सकते हैं जिन्होंने सियासी लाभ के लिये मौके की नजाकत के मुताबिक खुद को ढ़ालते हुए राजग में साझेदारी करना स्वीकार किया है और वक्त बदलते ही उन्हें पलटने में जरा भी देर नहीं लगेगी। यानि राजग में टूट व बिखराव की संभावना को समझते हुए भी भाजपा ने अवैध घुसपैठियों के खिलाफ संघर्ष के सिद्धांत पर कायम रहना बेहतर समझा है। दूसरी ओर एनआरसी के मसले पर कांग्रेस के रूख की बात करें तो विगत में उसका इतिहास भी अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर खदेड़े जाने के पक्ष में ही रहा है लेकिन सियासी समीकरणों को साधने और अल्पसंख्यक व भाजपा विरोधी वोटों का राष्ट्रीय स्तर पर ध्रुवीकरण करने के लिये महा-गठजोड़ कायम करने की आवश्यकता के मद्देनजर उसने फिलहाल अपने पुराने सिद्धांत से दूरी बना लेना ही बेहतर समझा है। हालांकि कांग्रेस अपने इस कदम को धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और सामंजस्य के सिद्धांतों के प्रति मजबूत निष्ठा के सिद्धांतों पर अपनी अडिगता के तौर पर अवश्य प्रस्तुत करेगी ताकि सिद्धांतों पर कायम रहने का भरम भी बना रहे और समीकरणों को साधने में भी सफलता मिल जाए। लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यह टकराव सीधे तौर पर सिद्धांतों और समीकरणों के बीच ही होगा। जिसमें अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला, जिस दिए में जान होगी वह जला रह जाएगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर
सोमवार, 30 जुलाई 2018
‘मजबूत व्यवस्था में पिसता मजबूर आदमी’
राजधानी दिल्ली सिर्फ एक शहर या महानगर नहीं है। यह मिनी भारत भी है। देश का शायद ही कोई ऐसा जिला-जनपद होगा जहां के लोग दिल्ली में ना रहते हों। जाहिर है कि जहां पूरे भारत के लोग रहते हैं वहां देश के हर कोने की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और बोल-वचन ही नहीं बल्कि समूचे देश में जमीनी स्तर पर मौजूद गुण-अवगुण और (सु या कु) व्यवस्था के भी दर्शन होंगे ही। लेकिन होता यह है कि गुण का प्रसार तो बाद में होता है अवगुण अपने पांव काफी तेजी से फैला लेता है। पूरे तालाब को गंदा करने के लिये सिर्फ एक सड़ी हुई मछली ही काफी होती है और समूचे गुलिस्तान को विरान करने के लिये एक ही उल्लू काफी होता है। लेकिन यहां तो समूचे देश का गुण कम और दुर्गुण अधिक आ गया है। तभी तो दिल्ली का दामन दिनों-दिन इस कदर दागदार और तार-तार होता जा रहा है कि अब यह कहने में भी शर्म आने लगी है कि यह दिलवालों की दिल्ली है। सच पूछा जाये तो अब दिल्ली की व्यवस्था के संचालकों में दिल नाम की कोई चीज चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी बमुश्किल ही मिल पाती है। देश के बाकी हिस्सों में हालात शायद ही इतने बुरे हों जितने दिल्ली में हैं। यहां आदमी की सुविधा के लिये व्यवस्था नहीं है बल्कि सुविधा के साथ व्यवस्था के संचालन में सहभागी बनना आदमी की विवशता है। यहां आदमी के लिये व्यवस्था नहीं बदलती बल्कि व्यवस्था के मुताबिक आदमी को ढ़लना-बदलना पड़ता है। यहां आदमी की किसी समस्या के लिये व्यवस्था कतई जिम्मेवार नहीं होती, अलबत्ता व्यवस्था की समस्याओं के लिये आदमी को जिम्मेवार अवश्य बताया जाता है। यहां बिना उफ किये चुपचाप व्यवस्था को सहते-ढ़ोते रहना आदमी की अनिवार्य जिम्मेवारी है। हालांकि जो लोग दिल्ली की इस हकीकत से वाकिफ नहीं हैं उनके लिये ये बातें अचरज का सबब हो सकती हैं लेकिन यहां आदमी और व्यवस्था के बीच का रिश्ता महीनों या वर्षों नहीं बल्कि दशकों से ऐसा ही चला आ रहा है। यहां व्यवस्था मजबूत है और आदमी मजबूर। तभी तो एक नीम-पागल मां और दरिद्र रिक्शाचालक पिता की तीन बेटियां भूख से दम तोड़ देती हैं लेकिन इसके लिये पूरी व्यवस्था के किसी भी अंग की जिम्मेवारी तय नहीं होती। हालांकि मौत भूख से हुई है तो राजनीति भी होगी ही। तभी उंगली भी उठ रही है और दोषारोपण भी हो रहा है। कांग्रेस ने केन्द्र की भाजपा और दिल्ली की आप सरकार को जिम्मेवार बताया है। भाजपा, कांग्रेस के शासन में हुए ‘खुल्ला खेल फर्रूखाबादी’ और आप सरकार के नाराकरापन को जिम्मेवार बता रही है। उधर आप सरकार व्यवस्था के सिर पर मामले की जिम्मेवारी का ठीकरा फोड़ रही है। रही व्यवस्था की बात तो उसका तर्क है कि बीते कई सालों से उसके पास कोटा ही खाली नहीं है कि नया राशन कार्ड बन सके। यानि भूख से हुई तीन मासूम बहनों की मौत की शर्मनाक घटना के लिये यहां कोई जिम्मेवार नहीं है। वह भी तब जबकि साल 2013 में संसद ने खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया तो लगा कि अब देश में कोई भूखा नहीं सोएगा। सबको भर पेट भोजना अवश्य मिलेगा। लेकिन इस कानून को यहां की व्यवस्था ने इस तरह लागू किया कि भूखे तक तो रोटी पहुंची नहीं अलबत्ता राशन पाने का हक उन्हें मिला जिनके लिये यह राहत नहीं मुनाफा है। व्यवस्था को चढ़ावा चढ़ाने के एवज में हासिल मुनाफा। वैसे बिना चढ़ावे के प्रसाद मिले भी तो कैसे? क्योंकि जिन नियम-कायदों के तहत 15 लाख परिवारों के राशन कार्ड बनाए गए उसमें शर्त रखी गई कि एक लाख सालाना से अधिक आमदनी वाले परिवारों को राशन नहीं दिया जा सकता। साथ ही एक अनिवार्य शर्त थी कि कार्ड उनका ही बनेगा जिनके पास रिहाइश का प्रमाण भी उपलब्ध हो। यानि नियम ऐसा जिसे बिना चढ़ावे के पूरा नहीं किया जा सकता। वर्ना जिसके पास दिल्ली में रिहाइश का प्रमाण पत्र होगा उसकी आमदनी सिर्फ एक लाख सालाना कैसे हो सकती है और जिसकी कमाई सिर्फ एक लाख होगी वह दिल्ली जैसे शहर में परिवार कैसे पाल सकेगा। इस झोल की पोल तब खुली जब राशन वितरण के लिये बायोमैट्रिक व्यवस्था लागू की गई। तब कुल चार लाख कार्डधारक ऐसे गायब हुए कि उनका कुछ अता-पता ही नहीं चला। इनमें डेढ़ लाख कार्डधारक तो ऐसे थे जिन्होंने सालाना 25 हजार की आमदनी दर्शाकर वह अंत्योदय कार्ड हासिल कर लिया जिसमें सामान्य राशन कार्ड के मुकाबले काफी अधिक सरकारी सुविधाएं मिलती हैं। लेकिन इन कार्डों को निरस्त करने की जहमत नहीं उठाई गई क्योंकि दिल्ली की गरीब हितैषी सरकार के संचालकों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया। नतीजन जिस मंडावली में तीन बहनों की भूख से मौत हुई है वहां कोटा खाली नहीं होने के कारण वर्ष 2015 से अब तक एक भी नया राशन कार्ड बनाया ही नहीं गया है। यही स्थिति समूची दिल्ली की है। अब ऐसे में अगर कोई पूछे कि इस पूरी अव्यवस्था की जिम्मेवारी किसकी है तो शायद ही इसका कोई जिम्मेवार साबित हो सके। लिहाजा जब भूख से तीन बच्चियों की मौत की खबर सुर्खियों में आती है तो दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री इसका ठीकरा व्यवस्था पर फोड़ते हैं। वैसे एक मिनट के लिये उनकी बात मान भी ली जाए तो सवाल उठता है कि अगर ऐसी व्यवस्था के भरोसे रहना है तो फिर सरकार की क्या जरूरत है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर
गुरुवार, 26 जुलाई 2018
बहुत कठिन है डगर ‘संप्रग’ की....
कहने को भले ही अगली लोकसभा का गठन होने में दस महीने का वक्त बाकी हो लेकिन तमाम राजनीतिक दलों ने अभी से चुनावी बिसात पर अपनी गोटियां जमाने का काम युद्धस्तर पर आरंभ कर दिया है। जाहिर है कि कांग्रेस भी इसमें पीछे रहने का जोखिम नहीं उठा सकती है। लेकिन मसला है कि अब तक अमल में लायी जा रही रणनीतियां व कूटनीतियां जिस तरह से विफल होती दिख रही हैं उसके बाद अब नए सिरे से परिस्थितियों को अपने मन मुताबिक ढ़ालना और मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विकल्प प्रस्तुत करना बेहद मुश्किल हो गया है। आलम यह है कि अव्वल तो अपने दम पर चुनावी भवसागर में उतरने पर डूबने का खतरा स्पष्ट दिख रहा है और दूसरे जिन छोटे-बड़े दलों को समेट-गूंथ कर संप्रग की नैया के निर्माण की योजना बनाई गई थी वह योजना भी परवान नहीं चढ़ पा रही है। ऐसे में अब अंतिम उपाय के तौर पर नैया के खिवैया का पद रिक्त रखने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं बचा है ताकि पद प्राप्ति के लोभ में सभी संगी-साथी मजबूती से आपस में जुड़े रहें और भाजपा के अन्य विरोधियों को भी यही लोभ-मोह दिखाकर संप्रग के साए तले एकत्र होने के लिये सहमत किया जा सके। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने तय किया है कि वह प्रधानमंत्री पद के लिये अपनी दावेदारी की जिद पर नहीं अड़ेगी बल्कि नेतृत्व के मसले पर अब आमसहमति से ही अंतिम फैसला किया जाएगा। हालांकि सच तो यही है कि कांग्रेस ने बड़े दिल या बड़प्पन का प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस ने यह फैसला नहीं किया है। बल्कि यह काफी हद तक ऐसा ही त्याग है जैसा वर्ष 2004 में सोनिया गांधी ने संप्रग को बहुमत मिलने के बाद प्रधानमंत्री पद का परित्याग करके किया था। उस वक्त प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने से परहेज बरतना सोनिया की मजबूरी थी और मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की विवशता है। तब स्वीकार्यता आड़े आयी थी और अब संप्रग के पुनर्गठन की चुनौती है। वर्ना राहुल के नेतृत्व को गैर-भाजपाई विपक्ष के अधिकांश दला़ें ने काफी हद तक नकार दिया है। राहुल का चेहरा आगे करके चुनाव लड़ने की कांग्रेस की जिद के कारण ही अब तक संप्रग के एकीकरण की राह तैयार नहीं हो पाई है। इसी जिद के कारण विपक्षी खेमे के अधिकांश ऐसे दलों ने कांग्रेस से दूरी बढ़ानी शुरू कर दी जो वर्ष 2004-2014 के दौरान लगातार कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के साझीदार व समर्थक रहे थे और आज भी भाजपा के साथ उनका कोई तालमेल नहीं है। लेकिन संप्रग की नैया का राहुल को खिवैया बनाने की कांग्रेस की जिद ने गठजोड़ के पुराने घटक व समर्थक दलों के आपसी तालमेल व परस्पर विश्वास को अंदरूनी तौर पर इतना कमजोर कर दिया कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर पूरे दिन चली चर्चा के बाद देर रात हुए मतदान के दौरान कांग्रेस से अलग दिखने की कोशिशों के तहत ही शरद पवार की राकांपा और चंद्रशेखर राव की टीआरएस ने मतदान की प्रक्रिया में शिरकत करने से ही परहेज बरत लिया। दरअसल कांग्रेस के हाथों में समूचे विपक्ष का नेतृत्व सौंपने को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर सहमति का माहौल बनता नहीं दिख रहा है। महाराष्ट्र की एनसीपी, तमिलनाडु की अन्ना द्रमुक, ओडिशा की बीजद, तेलंगाना की टीआरएस और आंध्र प्रदेश की टीडीपी सरीखी स्थानीय स्तर पर बेहद ताकतवर समझी जानेवाली उन पार्टियों को अपने साथ जोड़कर राष्ट्रव्यापी महा-गठजोड़ बनाना भी कांग्रेस के लिये बड़ी चुनौती बन गयी है जो किसी भी सूरत में भाजपानीत राजग के साथ चुनावपूर्व गठजोड़ कायम नहीं कर सकते। यहां तक कि उत्तर प्रदेश और बिहार में महा-गठजोड़ का प्रयोग पूरी तरह सफल रहने के बावजूद एक ओर बसपा सुप्रीमो मायावती ने ऐलान कर दिया है कि सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलने पर ही वे साझेदारी में चुनाव लड़ने का प्रस्ताव स्वीकार करेंगी और दूसरी ओर बिहार में राजद के शीर्ष संचालक कहे जानेवाले तेजस्वी यादव ने भी बता दिया है कि विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के लिये राहुल के अलावा और भी चेहरे उपलब्ध हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके अलावा कर्नाटक में भी कुमारस्वामी द्वारा सार्वजनिक तौर पर आंसू बहाये जाने, गठबंधन की सरकार चलाने में पेश आ रही परेशानियों की तुलना जहर के घूंट से किये जाने और एचडी देवेगौड़ा द्वारा चुनाव पूर्व गठजोड़ को अव्यावहारिक बताये जाने के बाद यह संभावना बेहद कम दिख रही है कि वहां संप्रग की सरकार होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ कोई मजबूत महा-गठजोड़ आकार ले पाएगा। यानि कांग्रेस को अब मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात व पंजाब सरीखे उस सूबों में अपने बलबूते पर ही कोई करिश्मा कर दिखाना होगा जहां उसकी भाजपा से सीधी टक्कर होने वाली है और तीसरी ताकत के लिये कोई जगह ही नहीं है। ऐसे में देश की मौजूदा सियासी तस्वीर को समग्रता में समझने की कोशिश करें तो अगले चुनाव में विपक्षी महा-गठजोड़ बनाकर गैर-भाजपाई वोटों का राष्ट्रीय स्तर पर बिखराव रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम होती दिख रही हैं। ऐसी सूरत में होगा यह कि जिन सीटों पर भाजपा का मुकाबला किसी गैर-कांग्रेसी दल से होगा वहां ना चाहते हुए भी कांग्रेस ही भाजपा को लाभ पहुंचाएगी क्योंकि ऐसी सीटों पर गैर-भाजपाई वोटों में कांग्रेस के कारण ही बिखराव होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर
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सोमवार, 23 जुलाई 2018
‘नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या...???’
अमरोहा में जन्मे उर्दू के महान शायर जाॅन एलिया भले ही हिन्दुस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान में रह-बस गए लेकिन उनकी कलम से एक ऐसी गजल निकली जो पूरी तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दिल की आवाज बनने के काबिल है। जाॅन लिखते हैं कि- ‘‘उम्र गुजरेगी इम्तहान में क्या? अब भी हूं मै तेरी अमान में क्या? मेरी हर बात बेअसर ही रही, नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या? मुझको तो कोई टोकता भी नहीं, यही होता है खानदान मे क्या? बोलते क्यो नहीं मेरे अपने, आबले पड़ गये जबान में क्या?’’ राहुल वाकई बीते लंबे समय से इसी मसले से जूझ रहे हैं। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता कि कोई जान-बूझकर ऐसी बातें और हरकतें करे जिससे उसकी किरकिरी हो, फजीहत हो। लिहाजा लग यही रहा है कि अव्वल तो राहुल को यह पता नहीं चल रहा कि उनसे क्या गलती हो रही है और दूसरे जिन लोगों पर फीडबैक पहुंचाने और सही सलाह देने की जिम्मेवारी है वे अपने कर्तव्य को इमानदारी से अंजाम नहीं दे रहे हैं। नतीजन उनकी जायज व वाजिब बातें भी उनकी हरकतों व गलतियों के बोझ तले दम तोड़ रही हैं। ऐसी ही तस्वीर दिखी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान भी। यूं तो राहुल ने कितना सच बोला और किस हद तक झूठ का सहारा लिया इस पर अलग से बहस हो सकती है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि उनका भाषण काफी नपा-तुला, ओजस्वी, आक्रामक और धारदार था। अपने संबोधन को भावनात्मक रूप देते हुए युवाओं, महिलाओं, दलितों व अल्पसंख्यकों को संदेश देने में भी वे सफल रहे। मोदी सरकार की रीति-नीति पर प्रहार करते हुए यह साबित करने की कोशिश भी कामयाब रही कि किस तरह सरकार चुनिंदा उद्योगपतियों को भरपूर लाभ पहुंचाने के लिये आम लोगों की जेब से पैसा निचोड़ रही है। यानि कुल मिलाकर उनका भाषण ठीक वैसा ही था जिसकी मुख्य विपक्षी दल के शीर्ष नेता से अपेक्षा रहती है। लेकिन पूरा गुड़ गोबर हो गया उनकी हरकतों से। उन्होंने कुछ ऐसी हरकतें कर दीं जिसे कतई मर्यादित, संसदीय, अपेक्षित या अनुकरणीय नहीं कह सकते। तभी उनका भाषण हाशिये पर रह गया और हरकतों के कारण उनकी जमकर आलोचना हो रही है। पहली गलती यह हुई कि जब उन्होंने राफेल विमान सौदे को लेकर रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण पर गलतबयानी का आरोप लगाया तब अपनी सफाई देने के लिये तुरंत निर्मला खड़ी हुईं लेकिन राहुल ने उन्हें बोलने का मौका ना देते हुए अपना भाषण लगातार जारी रखा। जबकि परंपरा है कि अगर संसद में कोई मंत्री कुछ कहने के लिये खड़ा होता है तो उस समय बोल रहा सदस्य तत्काल चुप होकर बैठ जाता है। लेकिन राहुल ने ऐसा नहीं किया। हालांकि इसके लिये लोकसभा अध्यक्षा ने राहुल को सभ्य भाषा में मर्यादा और परंपरा की याद भी दिलाई लेकिन राहुल की कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। इसके बाद दूसरी गलती उन्होंने अकाली दल की सांसद व केन्द्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के बारे यह कहके कर दी कि भाषण में व्यवधान के दौरान जब सदन की कार्रवाई कुछ मिनटों के लिये स्थगित हुई तब वे उनकी ओर मुस्कुराते हुए देख रही थीं। जाहिर है कि किसी महिला के लिये ऐसी बात कहना हर लिहाज से बेहद गलत व अमर्यादित आचरण ही कहा जाएगा। तभी बिफरते हुए हरसिमरत ने उनसे पूछ लिया कि आज वे कौन सा नशा करके आए हैं? इसके बाद सबसे बड़ी गलती राहुल ने प्रधानमंत्री मोदी के गले लगने के बहाने उनके गले पड़कर की। गले लगना तो तब कहेंगे जब दो लोग एक साथ गले मिलने के लिये अपनी बांहें फैलाएं। लेकिन जब किसी बैठे हुए आदमी के पास जाकर कोई अचानक उसके गले में बांहों का फंदा डालकर उससे चिपट जाए तो इसे गले पड़ना कहा जाएगा। वैसे भी संसद के भीतर इस तरह के आचरण को कतई सामान्य, शिष्ट या संसदीय नहीं माना जा सकता। तभी इसके लिये लोकसभा अध्यक्षा की ओर कड़ी बात भी कही गई और हरसिमरत को भी यह कहने का मौका मिल गया कि यह मुन्नाभाई का मंच नहीं है जहां पप्पी-झप्पी डाली जाए। राहुल की इस हरकत को राजनाथ सिंह ने भी चिपको आंदोलन का नाम देकर चुटकी लेने में कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सबसे आखिर में राहुल ने बेहद ही बचकाने तरीके से आंख मारकर यह जताने की जो कोशिश की कि मानो ऐसी हरकतें करके उन्होंने कोई बड़ा मैदान मार लिया हो वह सबसे अफसोसनाक था। इसका सीधा सा मतलब है कि उन्हें अपनी हरकतों का कोई अफसोस नहीं है और वे कतई यह नहीं मान सकते हैं कि उनसे कोई गलती हुई है। हालांकि लोकसभा अध्यक्षा ने बाद में राहुल को अपने बेटे जैसा बताते हुए उनकी गलतियों को बचपना समझ कर अनदेखा करने की पहल अवश्य की लेकिन यह बचपना था, मासूमियत थी, सरासर बदमाशी या आत्ममुग्धता की निशानी? आत्ममुग्धता इसलिये क्योंकि तमाम गलतियों के बाद राहुल की जुबान से साॅरी का एक छोटा सा औपचारिक अल्फाज भी नहीं निकला। बल्कि वे अपनी हरकतों पर अभीभूत होकर अपने पक्ष के सांसदों की ओर देखकर आंख मारते नजर आए। इस पूरे प्रकरण से हुआ यह है कि विरोधियों द्वारा उनकी पप्पू की जो छवि बनायी जाती रही है उसे इन्होंने खुद ही पूरी मजबूती से स्वीकार व अंगीकार कर लिया है जिसके लिये सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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