विज्ञान की नजर में निर्वात की परिकल्पना सैद्धांतिक ही है, व्यावहारिक कतई नहीं है। प्रकृति के किसी भी आयाम में निर्वात के लिये कोई स्थान नहीं है। बल्कि यूं कहें तो गलत नहीं होगा कि निर्वात की अवस्था ही अपने आप में अप्राकृतिक है। प्रकृति हमेशा इसके सख्त खिलाफ रहती है और इसके अस्तित्व को मिटाने के लिये हमेशा प्रयत्नशील रहती है। ऐसा प्रकृति के हर आयाम में दिखता है। प्रकृति की ही तरह राजनीति में भी निर्वात के लिये कहीं कोई जगह नहीं होती। सैद्धांतिक तौर पर भले ही निर्वात की अवस्था दिखाई पड़े लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह संभव ही नहीं है। खास तौर से तात्कालिक तौर पर तो कभी निर्वात यानि शून्यता की स्थिति बनती ही नहीं है। इसकी परिकल्पना को हमेशा दूरगामी तौर पर ही दिखाया-बताया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हालिया दिनों तक यह बताया जा रहा था कि मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी का कोई दूसरा विकल्प उभर कर सामने आ ही नहीं सकता। लेकिन कल तक दूर से दिखाई पड़नेवाली निर्वात, शून्यता अथवा विकल्पहीनता की परिकल्पना का आज की तारीख में कोई अस्तित्व ही महसूस नहीं हो रहा है। बल्कि अब तो यह चर्चा भी तेजी से जोर पकड़ रही है कि मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल भी पाएगा या नहीं? खास तौर से हालिया चुनावों में कांग्रेस को मिली संजीवनी से स्पष्ट हो गया कि भाजपा की राहें उतनी आसान नहीं रहनेवाली हैं जितना उसने भौकाल बनाया हुआ है। साथ ही इन चुनावों से यह भी साफ हो गया कि इस बार क्षेत्रीय दलों के उभार को रोक पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल होगा। इसमें भाजपा के लिये सबसे परेशानी की स्थिति वह होती जिसमें उसके तमाम विरोधी एक मंच पर एकत्र हो जाते। हालांकि इसकी कोशिशें बहुत हुईं लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल सका। समाजवादियों के विलय की बात आई तो जिस सपा को अगुवा बनाने की कोशिश की गई उसने ही अपनी पहचान मिट जाने की चुनौती से डर कर किनारा कर लिया। उसके बाद संयुक्त मोर्चा बनाने की बात आई तो नेतृत्व के सवाल पर मामला बिगड़ गया। बाद में कांग्रेस ने अपनी अगुवाई में राष्ट्रव्यापी महागठजोड़ बनाने का प्रयास किया तो प्रधानमंत्री पद पर उसकी दावेदारी को स्वीकार्यता नहीं मिलने के कारण उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े। यहां तक कि क्षेत्रीय दलों का प्रदेश स्तरीय मोर्चा बनाने के ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और शरद पवार के प्रयास भी सफल नहीं हो सके। यानि विपक्ष को एक मंच पर लाना तराजू पर मेढ़क तौलने सरीखा दुरूह काम ही बना रहा। लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। लिहाजा भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा रोकने की राह अब स्पष्ट तौर पर निकलती दिखाई पड़ रही है और इसकी नींव रखी है तेलंगाना के मुख्यमंत्री व टीआरएस सुप्रीमो के चंद्रशेखर राव ने। दरअसल अब तक के तमाम प्रयास इस वजह से फलीभूत नहीं हो सके क्योंकि किसी एक दल की राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी हैसियत ही नहीं थी कि वह विपक्ष की धुरी बन सके। लिहाजा अब दो-स्तरीय घेरेबंदी का फार्मूला अमल में लाया जा रहा है और प्रयास हो रहा है कि जिन सूबों में कांग्रेस की स्थिति और उपस्थिति मजबूत है वहां कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चाबंदी की जाये और जहां कांग्रेस को साथ लेने से कोई फायदा मिलने की उम्मीद नहीं है अथवा जिस सूबे की क्षेत्रीय ताकतें अपने इलाके में कांग्रेस को दोबारा पनपने व बढ़ने का मौका नहीं देना चाहती वह कांग्रेस व भाजपा से बराबर दूरी कायम करते हुए गठित होनेवाले फेडरल फ्रंट को अपना समर्थन दे। इस फेडरल फ्रंट के गठन की परिकल्पना को अमली जामा पहनाने के लिये ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ चंद्रशेखर राव की बातचीत का पहला चरण भी पूरा हो गया है। इसके अलावा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ भी उनकी मुलाकात होनेवाली है जो अपने विधायक को मध्य प्रदेश में मंत्री नहीं बनाए जाने के कारण कांग्रेस से नाराज बताए जा रहे हैं। इस फ्रंट के घटक दलों में सभी अलग-अलग सूबों के क्षत्रप हैं लिहाजा चुनाव होने तक किसी की महत्वाकांक्षा आपस में नहीं टकराने वाली है। ना तो टीडीपी और सपा-बसपा के बीच सीट समझौते का कोई सवाल पैदा होता है और ना ही बीजेडी का तृणमूल कांग्रेस के साथ। यानि महत्वाकांक्षाओं के टकराव की फिलहाल कोई संभावना ही नहीं है। अलबत्ता इस फ्रंट के गठन से जमीनी स्तर पर यह संदेश तो जाएगा ही कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा भी कोई तीसरा विकल्प है जिसके घटक दलों में कोई तनाव और विवाद नहीं है और वे सभी अलग-अलग सूबों में सफलता के साथ सरकार चला रहे हैं अथवा चला चुके हैं। निश्चित ही इस पहल से तीसरे विकल्प की मजबूती के प्रति मतदातओं को आश्वस्त किया जा सकेगा। हालांकि इस पूरे समीकरण में भाजपा इतनी ही उम्मीद पाल सकती है कि उसके विरोधी वोटों का बंटवारा हो जाए और त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में उसे जीत की राह पर आगे निकलने का मौका मिल जाए। लेकिन इस संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता है कि भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा ही ना हो और जिस सीट पर कांग्रेसनीत महागठजोड़ और फेडरल फ्रंट में से जिसकी बढ़त बने उसके पक्ष में ही भाजपा विरोधी मतों का ध्रुवीकरण हो जाए। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया। @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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