अनवरत हो रहा विकास... मगर किसका?
देश को अंग्रेजों से आजादी मिले 71 साल होने को आए। तब से लेकर अब तक देश का लगातार विकास ही हो रहा है। तमाम सरकारें विकास में अपना योगदान देती आ रही हैं। इसका नतीजा भी दिख रहा है कि आज हमारा देश दुनियां की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि छठे नंबर पर आने के लिए हमने उस ब्रिटेन को जीडीपी की दौड़ में पीछे छोड़ा है जिसने हमें दो सौ साल तक अपना गुलाम बनाकर रखा। इसके अलावा अंतरिक्ष में हम मंगल तक पहुंच चुके हैं। जमीन पर भी पूरी दुनिया में किसी की मजाल नहीं है कि हमें अलग करके विश्व राजनीति के किसी समीकरण की कल्पना भी कर ले। हर क्षेत्र में विकास की तमाम ऊंचाइयां लांघते हुए वाकई हमारा देश विकासशील से विकसित होने की ओर छलांग लगा चुका है। लेकिन विकास की इस अनवरत यात्रा की राहों में हम इतने मशगूल हो गए हैं कि अब यह पता नहीं चल पा रहा कि आखिर इस राह की मंजिल कहां है और इसका मकसद क्या है। अगर सिर्फ कागजों में दिखाने के लिए विकास हो रहा है तब तो कहने या सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं जाता है। क्योंकि देश के आम लोगों के लिए तो इस विकास यात्रा का आज भी कोई खास मायने या मतलब नहीं दिख रहा है। अलबत्ता भारत की मौजूदा तस्वीर उस रेल की तरह दिख रही है जिसमें आम आदमी जनरल डिब्बों में घास-भूसे की तरह ठुंसकर सफर करता है और खास आदमी अत्याधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस पूरे डब्बे के आकार के सैलून कोच में अकेले सफर का आनंद लेता है। कोई दूसरा झांक भी नहीं सकता उसके कोच में। ट्रेन में पहले, दूसरे व तीसरे दर्जे के वातानुकूलिक डिब्बे भी रहते हैं और स्लीपर क्लास भी होता है। लेकिन आम आदमी का जीवन जनरल से स्लीपर की औकात बनाने में बीत जाता है और स्लीपर वाला तीसरे दर्जे के वातानुकूलित डिब्बे में जाने की जद्दोजहद में जुटा रहता है। अलबत्ता ट्रेन की हालत हर दिन ऐसी ही दिखती है जैसे आम आदमी को घुसने या लटकने भर की इजाजत देकर उसने बहुत बड़ा एहसान कर दिया हो। तभी तो एक ओर दुनिया के 119 देशों में भुखमरी की स्थिति के बारे में आयी रिपोर्ट में भारत को शर्मनाक ढ़ंग से 100वें पायदान पर खड़ा होना पड़ा है। भुखमरी सूचकांक में हमसे बेहतर स्थिति में नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश हैं। यह स्थिति तब है जबकि फोर्ब्स की हालिया सूची के मुताबिक विश्व के शीर्ष 10 धनवानों में सबसे ज्यादा भारत के ही लोग हैं। विकास के असंतुलन का आलम यह है कि एक ओर अंतरिक्ष को भेदकर मंगल पर ठिकाना बनाने की योजना बन रही है जबकि दूसरी ओर केरल में एक नीम-पागल आदिवासी युवक को पढ़े-लिखे सभ्य समाज के लोग सिर्फ इसलिये पीट-पीटकर मार डालते हैं क्योंकि उसने पेट की आग बुझाने के लिए एक किलो चावल चुराने का गुनाह कर दिया। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर विकास की अंधी दौड़ का मकसद क्या है? इसका निर्णायक मुकाम कहां है? अगर विकास का मकसद सबको पेट भर भोजन मुहैया कराना होता तो देश में भूख से मौतें नहीं हो रही होतीं। केरल में आदिवासी युवक को महज एक किलो चावल के पीछे अपनी जान नहीं गंवानी पड़ती। झारखंड में मां की गोद में सिर रखकर ‘भात-भात’ रटते हुए मासूम संतान को तड़पकर मरना नहीं पड़ता। यानि लोगों का पेट भरने के लिए तो नहीं हो रहा है यह विकास। यह विकास लोगों को तन ढ़ांपने का कपड़ा या सिर छिपाने की छत देने के लिए भी नहीं हो रहा है। अगर ऐसा होता तो दिल्ली की सड़कों पर ही सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ऐसे डेढ़ लाख लोगों का बसेरा नहीं होता जिनके पास कुछ भी नहीं है। इस कुछ भी नहीं होने का मतलब वाकई कुछ भी नहीं होना ही है। जब देश की राजधानी में यह स्थिति है तो बाकी इलाकों की व्यथा-कथा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यानि गुजरात में जो नारा दिया गया कि विकास पागल हो गया है वह कतई गलत नहीं था। पागल उसको ही तो कहते हैं जिसे पता ही नहीं कि वह क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है। खैर, अगर यह भी मान लें कि 70 सालों से अनवरत होता आ रहा विकास देश और देशवासियों की खुशहाली के लिए है तब तो खुशहाली को ही विकास का पैमाना बनाना चाहिए था। जैसा कि भूटान ने बनाया हुआ है। वह जीडीपी के बजाए खुशहाली से अपनी तरक्की को नापता है। भूटान के लिए आम लोगों की खुशहाली मायने रखती है। भले इसके लिए जीडीपी के आंकड़ों को गर्त में ही क्यों ना पहुंचाना पड़े। इसका नतीजा यह है कि वहां के लोग खुश हैं। उन्हें किसी वैश्विक दौड़ या होड़ की परवाह नहीं है। वहां संतुष्टि और खुशहाली के साथ आवश्यक व अनवरत विकास भी हो रहा है। इसके उलट हमारे यहां जो विकास हो रहा है उसमें ना तो सबके लिए रोटी, कपड़ा व मकान की उपलब्धता सुनिश्चित हो रही है और ना ही पढ़ाई, दवाई और कमाई का सबको जुगाड़ मिल पा रहा है। यानि खुशहाली की कौन कहे यहां तो बुनियादी मसले ही हल नहीं हो पा रहे हैं। फिर किसका विकास, कैसा विकास, किस लिए विकास। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur