कर्नाटक में जितना स्वाभाविक भाजपा की सरकार का बनना था उतना ही स्वाभाविक इसका बहुमत परीक्षण में असफल होना भी था। जब प्रदेश के चुनाव का नतीजा आया तो त्रिशंकु विधानसभा के लिये मिले खंडित जनादेश में बहुमत के लिये आवश्यक 112 सीटें तो किसी को नहीं मिल सकीं लेकिन कुल 104 सीटें जीत कर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर अवश्य उभरी। दूसरी ओर कांग्रेस को पिछली बार मिली 122 सीटों के मुकाबले इस बार सिर्फ 78 सीटों पर ही सिमट कर रह जाने के लिये मजबूर होना पड़ा जबकि बसपा-जेडीएस गठजोड़ 38 सीटों के साथ तीसरी ताकत के रूप में उभरा। हालांकि अपनी हार का गम गलत करने और भाजपा की जीत का जायका बिगाड़ने के लिये कांग्रेस ने चुनावी नतीजा सामने आने तत्काल बाद ही जेडीएस को बिना शर्त समर्थन का ऐलान करते हुए बहुमत के आंकड़े की स्पष्ट तस्वीर दिखा दी। लेकिन अव्वल को कांग्रेस ने कूटनीतिक ख़ुराफ़ात करके भाजपा को रोकने की कोशिश की थी और दूसरे भाजपा ही सबसे बड़ी ताकत के तौर पर सामने आई थी लिहाजा राज्यपाल वजूभाई वाला ने स्वाभाविक तौर पर भाजपा के सरकार गठन के दावे को स्वीकार कर लिया और बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाते हुए उन्हें विश्वासमत हासिल करने के लिये पंद्रह दिनों की मोहलत दे दी। यानि कहने का तात्पर्य यह कि ना तो राज्यपाल ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री नियुक्त करके कोई गलती की और ना ही भाजपा ने सरकार बनाने का दावा करके कोई अनैतिक काम किया। लेकिन एक तरफ तो भाजपा के पास बहुमत का आंकड़ा उपलब्ध नहीं था और दूसरे कांग्रेस द्वारा सुप्रीम कोर्ट में इंसाफ की गुहार लगाये जाने के बाद विश्वासमत हासिल करने के लिये मिली पंद्रह दिनों की मोहलत महज तीन दिनों में सिमट गई लिहाजा येदियुरप्पा की अल्पमत सरकार का विश्वासमत के दौरान गिरना भी स्वाभाविक ही था। ऐसे में यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि चुनाव परिणाम सामने आने के बाद कर्नाटक में जो राजनतिक घटनाक्रम दिखा है वह बेहद स्वाभाविक भी है और सहज भी। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम को राजनीतिक नजरिये से देखा जाये तो यह सीधे तौर पर भाजपा की हार है और कांग्रेस की जीत। भाजपा जीती हुई बाजी हार गयी है और कांग्रेस ने हारे हुए गढ़ पर अपनी जीत का झंडा लहराने में कामयाबी हासिल कर ली है। निश्चित तौर पर कांग्रेस ने भाजपा की हलक में हाथ डालकर जीत के निवाले पर कब्जा जमाया है। लिहाजा कांग्रेस के लिये यह जीत बेहद खास भी है और यादगार भी। कांग्रेस को पूरा हक है कि वह इस जीत का खुलकर जश्न मनाए और जेडीएस के साथ मिलकर या तो साझेदारी की सरकार बनाए या फिर अपने समर्थन से उसकी सरकार बनवाए। लेकिन भाजपा के नजरिये से देखा जाये तो उसके लिये निश्चित तौर पर यह आत्मचिंतन का मसला है कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? जब बहुमत का आंकड़ा उसके पास उपलब्ध ही नहीं था और कांग्रेस ने जेडीएस को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान करते हुए तुरूप का इक्का फेंक दिया तो उस बाजी में उलझने की बेसब्री क्यों दिखाई गई। कांग्रेस का समर्थन मिल जाने के बाद जब जेडीएस के पास बहुमत का आंकड़ा स्पष्ट दिखाई पड़ गया तो फिर राज्यपाल के पास जाकर सरकार बनाने का दावा करने की जल्दबाजी करने के बजाय पहले बहुमत का आंकड़ा जुटाने की कोशिश क्यों नहीं की गई। साथ ही सवाल तो यह भी उठेगा ही कि आखिर राज्यपाल ने विश्वासमत हासिल करने के लिये येदियुरप्पा को पंद्रह दिनों की मोहलत देने की ऐतिहासिक दरियादिली क्यों दिखाई जो सुप्रीम कोर्ट को भी हजम नहीं हुई और उसे इस अवधि को कम करने के लिये विवश होना पड़ा। खैर, अब इन तमाम मसलों पर चिंतन करने और गलतियों पर माथा पीटने के लिये भाजपा की कर्नाटक इकाई के पास पर्याप्त समय है। लेकिन पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को इस पूरे प्रकरण से जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई तो नामुमकिन ही है। सच तो यह है कि चुनावी नतीजों में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने और बहुमत के लिये आवश्यक आंकड़े से महज सात सीटें ही कम होने के बावजूद भाजपा को जिस कदर भारी फजीहत का सामना करना पड़ा है उसकी मुख्य तौर पर तीन वजहें रही हैं। अव्वल तो लगातार जीत के सिलसिले को कर्नाटक में भी जारी रखने का भारी दबाव पार्टी ने अपने ऊपर ओढ़ लिया जिसके कारण उसे विकल्पहीनता की स्थिति का सामना करना पड़ा और दूसरे गोवा की ही तर्ज पर आनन-फानन में सरकार बनाकर विरोधियों को लाजवाब कर देने की बेसब्री भरी नीति पर कर्नाटक में भी अमल करना उसके लिये आत्मघाती साबित हुआ। इस सबके अलावा तीसरी सबसे बड़ी गलती प्रशासनिक स्तर पर हुई जिसमें विश्वासमत के लिये 15 दिनों के मोहलत को स्वीकार करने के बजाय इसे अधिकतम एक सप्ताह की समय सीमा में समेट दिया जाता तो सुप्रीम कोर्ट को भी इसमें दखल देने की जरूरत महसूस नहीं होती और इस बीच में आसानी से बहुमत जुटाने के लिये उपलब्ध विकल्पों को टाटोला जा सकता था। लेकिन कहावत है कि ‘जाके प्रभु दारूण दुख देहीं, वाकी मति पहिले हरि लेहीं।’ यही भाजपा के साथ भी हुआ है वर्ना पार्टी का वह शीर्ष नेतृत्व एक साथ इतनी आत्मघाती गलतियां कतई नहीं कर सकता था जो प्रतिकूल परिस्थितियों में जीत हासिल करने का चैम्पियन माना जाता हो। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
रविवार, 20 मई 2018
गुरुवार, 17 मई 2018
‘तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय’
कर्नाटक में जितना नाटक चुनाव से पहले हुआ, उतना ही चुनाव के दौरान हुआ और उससे भी अधिक चुनाव के बाद। दरअसल वहां का चुनावी नतीजा ही ऐसा है जिसमें हारा कोई नहीं है। सभी जीते ही हैं। सीटों की तादाद के लिहाज से भाजपा को जीत मिली है क्योंकि उसके खाते में सबसे अधिक 104 सीटें आई हैं। वोट के हिसाब से कांग्रेस जीती है क्योंकि उसे भाजपा के मुकाबले 1.8 फीसदी वोट अधिक मिले हैं। भाजपा को सूबे के 36.2 फीसदी मतदाताओं ने अपना वोट दिया है जबकि कांग्रेस की झोली में 38 फीसदी वोट हैं। इसके अलावा जीती तो वह जेडीएस भी है जिसने भाजपा और कांग्रेस के बीच हुई जोरदार कांटे की टक्कर में भी ना सिर्फ पूरी मजबूती के साथ अपना अस्तित्व कायम रखा है बल्कि कुल 37 सीटों पर कब्जा जमाते हुए दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को बहुमत के आंकड़े से काफी पीछे ही रोक दिया है। यानि समग्रता में देखा जाये तो यह जनादेश ‘तुम्हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय’ का ही है। पूरा मामला ‘ना तुम जीते ना हम हारे’ टाइप का होकर रह गया है। वैसे भी जब किसी एक को पूरी जीत मिल ही नहीं पाई है तो दूसरा उसकी जीत और अपनी हार को स्वीकार क्यों करे? ऐसे में जब कोई हार स्वीकार करने के लिये विवश ही नहीं है तो फिर यह घमासान होना तो स्वाभाविक ही है कि आखिर सरकार किसकी बने। मतदान होने तक तो तीनों ही पार्टियां एक दूसरे को हराने और निपटाने में ही जी-जान से पिली हुई थीं लेकिन जनादेश सामने आने के बाद की परिस्थितियों में तस्वीर पलट गई है। अब भाजपा का दावा है कि सरकार बनाने का पहला मौका उसे ही मिलना चाहिये क्योंकि सबसे बड़े दल के तौर पर उभरने में उसे ही सफलता मिली है और बहुमत के आंकड़े के सबसे करीब तक पहुंचने में उसे ही कामयाबी मिली है। लेकिन कांग्रेस का तर्क है कि अगर जनता ने भाजपा को सत्ता के संचालन का जनादेश दिया होता उसे अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिल गया होता। लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं है। बहुमत के आंकड़े से तो वह भी आठ पायदान नीचे है। ऐसे में मौजूदा विधानसभा में भाजपा के बजाय उसे सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिये जिसे बहुमत के लिये आवश्यक तादाद में नवनिर्वाचित विधायक अपना समर्थन दें। इस लिहाज से कांग्रेस ने भाजपा की जीत का जायका बिगाड़ते हुए जेडीएस को अपना समर्थन दे दिया है जिसके नतीजे में इन दोनों दलों की संयुक्त ताकत बहुमत के आंकड़े के लिये आवश्यक आंकड़े से अधिक ही बैठती है। यानि एक ओर भाजपा ने भी सरकार बनाने के लिये कमर कस ली है और दूसरी ओर भाजपा के विजय रथ का पहिया पंचर करने के लिये कांग्रेस ने भी जेडीएस को बिना शर्त अपना समर्थन दे दिया है। दोनों ने राजभवन जाकर अपना दावा भी पेश कर दिया है और दोनों को इंतजार है सरकार बनाने के लिये राजभवन से बुलावे का। यानि गेंद चली गई है राज्यपाल वजूभाई वाला के हाथों में। उन्हें ही फैसला करना है कि किसे सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया जाये। निश्चित तौर पर राज्यपाल का फैसला ही अंतिम होगा जिसे चाहे-अनचाहे सबको स्वीकार भी करना ही होगा। लेकिन इस बीच बड़ा सवाल है कि आखिर इस जनादेश को निष्पक्षता व तटस्टस्था से किस रूप में समझा जा जाए। हालांकि इस बात में तो कोई शक ही नहीं है कि त्रिशंकु विधानसभा का जनादेश ऐसी ही सूरत में सामने आता है जब आम मतदाता भी विकल्प चुनने को लेकर किसी आम राय पर नहीं पहुंच पाते। उनके बीच भी असमंजस व द्वन्द्व की स्थिति रहती है। लेकिन तमाम उहापोह और असमंजस के बीच भी त्रिशंकु विधानसभा के लिए आए इस खंडित जनादेश के मायने बेहद ही स्पष्ट हैं। जनादेश को गहराई से परखा जाए तो इसका सबसे स्पष्ट मतलब यही है कि कांग्रेस को जनता ने सिरे से खारिज कर दिया है और उसे लगातार दूसरी बार सत्ता की बागडोर अपने हाथों में लेने का मौका नहीं दिया है। तभी तो सत्ता की दौड़ में उसे भाजपा से काफी नीचे के पायदान पर खड़ा होने के लिये विवश होना पड़ा है। हालांकि कांग्रेस ने चुपचाप इस जनादेश को शिरोधार्य कर लिया है। तभी तो पूरा नतीजा सामने आने से पहले ही सिद्धारमैया ने अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप दिया और कांग्रेस नेतृत्व ने भी पार्टी की सरकार बनाने की कवायदें शुरू करने से परहेज बरत लिया। वैसे यह कांग्रेस को भी बेहतर पता है कि उसके विकल्प के तौर पर जनता ने भाजपा को ही चुना है और जेडीएस को भी तीसरे पायदान पर रखते हुए स्पष्ट तौर पर विपक्ष में बैठने का ही निर्देश दिया है। यानि बहुमत के आंकड़े से दूर रह कर भी यह चुनाव भाजपा के लिये जीत की खुशखबरी लेकर ही आयी है। लेकिन सवाल है कि जब किसी एक दल या चुनाव-पूर्व गठबंधन को अपने दम पर पूर्ण बहुमत का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया है तो आखिर सरकार बनेगी कैसे? तभी तो कांग्रेस ने भाजपा को रोकने के लिये जेडीएस को समर्थन देने का दांव चल दिया है। यानि कर्नाटक का जो नाटक अभी सड़क पर चल रहा है वह राज्यपाल द्वारा किसी एक पक्ष को सरकार बनाने का निमंत्रण दिये जाने के बाद विधानसभा के भीतर बहुमत साबित होने तक बदस्तूर जारी रहेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’
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सोमवार, 7 मई 2018
‘दुश्मनी ने दोस्ती का सिलसिला रहने दिया’
मुनव्वर राणा लिखते हैं कि- ‘हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है, हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है, गिले-शिकवे जरूरी हैं अगर सच्ची मोहब्बत है, जहां पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है।’ वाकई जहां दोस्ती का रिश्ता काफी गहरा हो वहां आप-जनाब के लहजे में तो कतई बातचीत नहीं होती। लिहाजा कोई अगर किसी को यथोचित सम्मान नहीं दे रहा हो और उसके सामने ही उसे गालियां बक रहा हो तो यह गलतफहमी नहीं पालनी चाहिये कि उनके रिश्तों में कोई खटास है या अंदरूनी तौर पर वे एक-दूसरे को नापसंद करते हैं। बल्कि इस बात के आसार काफी अधिक हो सकते हैं कि उनका रिश्ता इस कदर मजबूत है कि गालियों के अलावा अंतरंगता दिखाने की कोई दूसरी राह उन्हें सूझ ही नहीं रही है। अंतरंगता की इस उलटबांसी को सामाजिक ताने-बाने में साले-बहनोई या देवर-साली के रिश्तों में भी देखा जा सकता है और अरसे से बिछड़े दो दोस्तों की मुलाकात के वक्त भी इस तथ्य को परखा जा सकता है। दूसरे नजरिये से देखें तो जिस्म पर चाकू चलानेवाला हमेशा दुश्मन ही नहीं होता है। बल्कि चिकित्सक भी मर्ज का जड़ से इलाज करने के लिए चाकू से ही जिस्म की चीड़-फाड़ करता है। लिहाजा अगर कोई किसी के जिस्म पर चाकू चला रहा हो तो आंखें मूंद कर यह कतई नहीं मान लेना चाहिये कि वह उसका दुश्मन ही है। हो सकता है कि वह उसका चिकित्सक हो जो उसे उसकी बीमारी से निजात दिलाने के लिए उसके जिस्म को चाकू से काट-कुरेद रहा हो। सियासी समीकरणों के नजरिये से ऐसा ही मामला सामने आया है मध्य प्रदेश में जहां सतही तौर पर देखने से यही समझ में आ रहा है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगामी विधानसभा चुनाव में शिवराज सिंह चैहान को पार्टी का चेहरा नहीं बनाए जाने का संकेत देकर शिवराज की उम्मीदों, अरमानों व अपेक्षाओं की गला काट कर हत्या कर दी है। लेकिन गहराई से परखाने पर पूरी तस्वीर का दूसरा ही रंग दिखाई पड़ रहा है। सच पूछा जाए तो शाह ने शिवराज को चेहरा बनाने से इनकार करके उन्हें ऐसा अभयदान दे दिया है जिसमें जीत का सेहरा तो स्वाभाविक तौर पर उनके नेतृत्व में वर्ष 2005 के नवंबर माह से लगातार सूबे की सेवा कर रही सरकार के सिर ही बंधेगा लेकिन अगर पार्टी को हार का सामना करना पड़ा जो इसकी रत्ती भर की जवाबदेही भी शिवराज की नहीं होगी। इसके अलावा पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं होने के कारण ना तो शिवराज को व्यक्तिगत तौर पर पार्टी की नैया पार लगाने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा और ना ही पार्टी को सांगठनिक व सतही स्तर पर जारी सत्ता विरोधी लहर से जूझने के लिये मजबूर होना पड़ेगा। इसके अलावा शिवराज के विरोधियों के पास भी अब यह बहाना नहीं बचेगा कि वे भाजपा को तो जीत दिलाना चाहते थे लेकिन शिवराज को लाभ दिलाना उन्हें गवारा नहीं हो रहा था। यानि शाह ने शिवराज के चेहरे को तात्कालिक तौर पर मुख्यमंत्री पद की दौड़ से अलग करके एक ही तीर से कई निशाने साध लिये हैं। वैसे भी इतिहास गवाह है कि भाजपा ने जिसको भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके चुनाव लड़ा है उसकी अपनी सीट ही खतरे में आ जाती रही है। बात चाहे हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल की करें या झारखंड में अर्जुन मुंडा की। दोनों ही सूबों में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को तो बहुमत हासिल हो गया लेकिन पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने वाले धूमल और मुंडा अपना चुनाव हार गये। कहा तो यही जाता है कि धूमल और मुंडा को विरोधियों ने नहीं हराया। उन्हें उन अपनों ने ही हरा दिया जो मुख्यमंत्री पद पर उनकी दावेदारी को पचा नहीं पा रहे थे। जाहिर है कि अगर मध्य प्रदेश में शिवराज को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करने की पहल की जाती तो उनका हाल भी मुंडा या धूमल जैसा होने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता था। लेकिन उनके चेहरे को आगे करने से इनकार करके शाह ने शिवराज का यह संकट भी समाप्त कर दिया है और उनके विरोधियों के लिये सकारात्मक राजनीति की राह पर आगे बढ़ने की चुनौती पेश कर दी है। यानि अब अगर किसी ने भी संगठन के हितों के आड़े आने की गलती की तो वह शिवराज का नहीं बल्कि सीधे तौर पर भाजपा का ही दुश्मन माना जाएगा। जाहिर है कि इतनी बड़ी गलती करने की जुर्रत तो भाजपा का कोई नेता नहीं कर सकता। लिहाजा पार्टी में सांगठनिक स्तर पर जारी गुटबाजी का शाह ने एक ही झटके में जो तोड़ निकाला है वह भी काबिले तारीफ ही कहा जाएगा। लेकिन इस सबसे अलग हटकर भी देखा जाए तो शाह ने औपचारिक तौर पर भले ही यह संकेत दिया हो कि पार्टी की ओर से इस बार शिवराज को औपचारिक तौर पर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा लेकिन उन्होंने शिवराज के हितों के उलट एक बात भी नहीं कही है। यानि आगामी चुनाव में पार्टी की ओर से दोबारा जनादेश मांगने की पूरी रणनीति शिवराज के कार्यकाल में हुए काम काज पर ही टिकी होगी। ऐसे में पार्टी को बहुमत हासिल होने की स्थिति में शिवराज को मुख्यमंत्री बनाने से परहेज बरतने का कोई कारण ही नहीं रहेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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