‘होइहि सोइ जो मुलायम रचि राखा’
गीता का ज्ञान यही बताता है कि जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह बहुत अच्छा है और जो होनेवाला है वह सबसे अच्छा होगा। इस लिहाज से देखें तो समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है वह भी बहुत अच्छा है और जो होनेवाला है वह सबसे अच्छा होगा। हालांकि तत्व की बातें आम तौर पर तत्काल समझ में नहीं आतीं। तभी तो सपा के भीतर जारी संग्राम का पूरा मामला अंधों के हाथी सरीखा बना हुआ है। लेकिन जिसने पूरा तत्व समझ लिया वह निर्विकार है, शांत है। जाहिर है कि पूरे मामले के असली तत्व को समझना तो उसके लिये ही संभव है जो वास्तव में इस समूचे बवाल का ना सिर्फ सूत्रधार हो बल्कि पूरा मामला उसकी लिखी हुई पटकथा के अनुसार ही संचालित हो रहा हो। इस नजरिये से देखें तो सिर्फ सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ही इकलौते ऐसे शख्स हैं जिन्होंने इस पूरे महाभारत में अब तक अपना आपा नहीं खोया है। हालांकि वे गुस्से का इजहार भी कर रहे हैं, शिवपाल को संरक्षण देने की बात स्वीकार भी कर रहे हैं, अखिलेश की सरकार को अंगीकार भी कर रहे हैं, विरोधियों के हर वार को बेकार भी कर रहे हैं, साथियों का सत्कार भी कर रहे हैं, आस्तीन के सांपों पर प्रहार भी कर रहे हैं और सबकुछ धुंआधार कर रहे हैं। लेकिन वे उतना ही कर रहे हैं जितना मुनासिब है, अपेक्षित है, उचित है। वास्तव में देखा जाये तो एक कुशल, दक्ष व सक्षम सर्जन की तरह दत्तचित्त होकर वे सपा में मौजूद उस फोड़े की सर्जरी कर रहे हैं जिसका फूटना तय था। फर्क सिर्फ इतना है कि वह अपने आप तब फूटता जब मुलायम का होना भी नहीं होने के बराबर हो चुका होता और उसका फूटना सियासी तौर पर सपा के लिये निश्चित तौर पर विभाजक व जानलेवा ही साबित होता। लेकिन मुलायम ने ना सिर्फ उस फोड़े को समय रहते पहचाना है बल्कि अपनी सक्षम मौजूदगी में अपने ही हाथों उसका इलाज कर देना बेहतर समझा है। चुंकि फोड़ा सपा के संचालक परिवार की गर्भनाल से जुड़ा हुआ था लिहाजा सर्जरी भी शांत चित्त व सधे हाथों से ही संभव थी और इस मामले में मुलायम का तो कोई सानी ही नहीं है। यानि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, पूरे सोच विचार के साथ कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता और वे भावावेश में बह जाते तो उनके लिये अखिलेश और शिवपाल में से किसी एक को संगठन व सरकार से बाहर निकालना कौन सा मुश्किल काम था। लेकिन वे दोनों को झेल रहे हैं, पूरी तरह बर्दाश्त कर रहे हैं। मंच पर शिवपाल ने मुख्यमंत्री से माइक छीनकर उन्हें झूठा कहा तब भी मुलायम ने आपा नहीं खोया। अखिलेश ने चुनाव प्रचार के लिये एकला चलो की राह अपनायी तब भी मुलायम शांत रहे। रामगोपाल से लेकर अमर सिंह तक ने जो चिल्ल-पों मचायी उसका भी उन पर कोई असर नहीं हुआ और अब भी वे परिवार और पार्टी की एकजुटता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने पिता होने के नाते बेटे का जमकर कान मरोड़ा लेकिन मुख्यमंत्री पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने की पहल नहीं की। वे मुलायम ही तो थे जिन्होंने इस सर्जरी की औपचारिक शुरूआत करते हुए अंसारी बंधुओं के लिये पार्टी का दरवाजा खुलवाया और अखिलेश को हटाकर शिवपाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। मौजूदा टकराव की शुरूआत वहीं से तो हुई थी। उसके बाद जो कुछ भी घटा उसमें अब तक किसका घाटा हुआ है और कौन विजेता बनकर उभरा है इस बात को समझ लिया जाये तो पूरे मामले का असली तत्व आसानी से समझा जा सकता है। अब तक की पूरी सर्जरी ने किसी को ‘हीरो’ बना दिया है तो किसी को ‘विलेन’। कोई ‘जोकर’ साबित हुआ है तो कोई ‘चोकर’। सिर्फ मुलायम ही हैं जिनकी छवि पर इस सबका कोई असर नहीं हुआ है। वे पहले भी सर्वमान्य थे और आज भी हैं। चुंकि फोड़ा गर्भनाल से जुड़ा था लिहाजा सर्जरी भी काफी बड़ी हुई है। गहराई से हुई है। ढ़ेर सारा विषाक्त मवाद भी निकला है और दमघोंटू बदबू भी फैली है। नतीजन सपा का कुछ कमजोर व अस्वस्थ दिखना स्वाभाविक ही है। लेकिन इलाज इतना सटीक व कारगर हुआ है कि अब भविष्य में फोड़ा फूटने की संभावना ही समाप्त हो गयी है। अब इस सर्जरी का घाव भरने के बाद सपा का स्वरूप बिल्कुल वैसा ही होगा जैसा सोचकर मुलायम ने साढ़े चार साल पहले अखिलेश को अपनी सियासी विरासत का उत्तराधिकारी बनाया था। साथ ही इस सर्जरी में उतनी ही काट-छांट हुई है जितना बेहद आवश्यक था। जो थोड़ी बहुत विसंगतियां और अनुत्तरित प्रश्न जान बूझकर छोड़ दिये गये हैं उनका जवाब स्वस्थ होने के बाद सपा खुद ही तलाश लेगी। इसके लिये उसे ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी। इसके अलावा सर्जरी के लिये समय भी ऐसा चुना गया जब सर्जिकल स्ट्राइक के धमाके ने कान सुन्न कर दिया था लिहाजा उस आवाज से पार पाने के लिये बड़ी सर्जरी से पनपनेवाली कराह व चीख-पुकार की आवश्यकता भी थी। अब सर्जरी भी हो गयी है और घाव पर टांके की प्रक्रिया भी जारी है। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका घाव भरने में कितना वक्त लगता है और पार्टी को तात्कालिक तौर पर इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur