गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

‘होइहि सोइ जो मुलायम रचि राखा’

‘होइहि सोइ जो मुलायम रचि राखा’ 


गीता का ज्ञान यही बताता है कि जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह बहुत अच्छा है और जो होनेवाला है वह सबसे अच्छा होगा। इस लिहाज से देखें तो समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है वह भी बहुत अच्छा है और जो होनेवाला है वह सबसे अच्छा होगा। हालांकि तत्व की बातें आम तौर पर तत्काल समझ में नहीं आतीं। तभी तो सपा के भीतर जारी संग्राम का पूरा मामला अंधों के हाथी सरीखा बना हुआ है। लेकिन जिसने पूरा तत्व समझ लिया वह निर्विकार है, शांत है। जाहिर है कि पूरे मामले के असली तत्व को समझना तो उसके लिये ही संभव है जो वास्तव में इस समूचे बवाल का ना सिर्फ सूत्रधार हो बल्कि पूरा मामला उसकी लिखी हुई पटकथा के अनुसार ही संचालित हो रहा हो। इस नजरिये से देखें तो सिर्फ सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ही इकलौते ऐसे शख्स हैं जिन्होंने इस पूरे महाभारत में अब तक अपना आपा नहीं खोया है। हालांकि वे गुस्से का इजहार भी कर रहे हैं, शिवपाल को संरक्षण देने की बात स्वीकार भी कर रहे हैं, अखिलेश की सरकार को अंगीकार भी कर रहे हैं, विरोधियों के हर वार को बेकार भी कर रहे हैं, साथियों का सत्कार भी कर रहे हैं, आस्तीन के सांपों पर प्रहार भी कर रहे हैं और सबकुछ धुंआधार कर रहे हैं। लेकिन वे उतना ही कर रहे हैं जितना मुनासिब है, अपेक्षित है, उचित है। वास्तव में देखा जाये तो एक कुशल, दक्ष व सक्षम सर्जन की तरह दत्तचित्त होकर वे सपा में मौजूद उस फोड़े की सर्जरी कर रहे हैं जिसका फूटना तय था। फर्क सिर्फ इतना है कि वह अपने आप तब फूटता जब मुलायम का होना भी नहीं होने के बराबर हो चुका होता और उसका फूटना सियासी तौर पर सपा के लिये निश्चित तौर पर विभाजक व जानलेवा ही साबित होता। लेकिन मुलायम ने ना सिर्फ उस फोड़े को समय रहते पहचाना है बल्कि अपनी सक्षम मौजूदगी में अपने ही हाथों उसका इलाज कर देना बेहतर समझा है। चुंकि फोड़ा सपा के संचालक परिवार की गर्भनाल से जुड़ा हुआ था लिहाजा सर्जरी भी शांत चित्त व सधे हाथों से ही संभव थी और इस मामले में मुलायम का तो कोई सानी ही नहीं है। यानि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, पूरे सोच विचार के साथ कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता और वे भावावेश में बह जाते तो उनके लिये अखिलेश और शिवपाल में से किसी एक को संगठन व सरकार से बाहर निकालना कौन सा मुश्किल काम था। लेकिन वे दोनों को झेल रहे हैं, पूरी तरह बर्दाश्त कर रहे हैं। मंच पर शिवपाल ने मुख्यमंत्री से माइक छीनकर उन्हें झूठा कहा तब भी मुलायम ने आपा नहीं खोया। अखिलेश ने चुनाव प्रचार के लिये एकला चलो की राह अपनायी तब भी मुलायम शांत रहे। रामगोपाल से लेकर अमर सिंह तक ने जो चिल्ल-पों मचायी उसका भी उन पर कोई असर नहीं हुआ और अब भी वे परिवार और पार्टी की एकजुटता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने पिता होने के नाते बेटे का जमकर कान मरोड़ा लेकिन मुख्यमंत्री पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने की पहल नहीं की। वे मुलायम ही तो थे जिन्होंने इस सर्जरी की औपचारिक शुरूआत करते हुए अंसारी बंधुओं के लिये पार्टी का दरवाजा खुलवाया और अखिलेश को हटाकर शिवपाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। मौजूदा टकराव की शुरूआत वहीं से तो हुई थी। उसके बाद जो कुछ भी घटा उसमें अब तक किसका घाटा हुआ है और कौन विजेता बनकर उभरा है इस बात को समझ लिया जाये तो पूरे मामले का असली तत्व आसानी से समझा जा सकता है। अब तक की पूरी सर्जरी ने किसी को ‘हीरो’ बना दिया है तो किसी को ‘विलेन’। कोई ‘जोकर’ साबित हुआ है तो कोई ‘चोकर’। सिर्फ मुलायम ही हैं जिनकी छवि पर इस सबका कोई असर नहीं हुआ है। वे पहले भी सर्वमान्य थे और आज भी हैं। चुंकि फोड़ा गर्भनाल से जुड़ा था लिहाजा सर्जरी भी काफी बड़ी हुई है। गहराई से हुई है। ढ़ेर सारा विषाक्त मवाद भी निकला है और दमघोंटू बदबू भी फैली है। नतीजन सपा का कुछ कमजोर व अस्वस्थ दिखना स्वाभाविक ही है। लेकिन इलाज इतना सटीक व कारगर हुआ है कि अब भविष्य में फोड़ा फूटने की संभावना ही समाप्त हो गयी है। अब इस सर्जरी का घाव भरने के बाद सपा का स्वरूप बिल्कुल वैसा ही होगा जैसा सोचकर मुलायम ने साढ़े चार साल पहले अखिलेश को अपनी सियासी विरासत का उत्तराधिकारी बनाया था। साथ ही इस सर्जरी में उतनी ही काट-छांट हुई है जितना बेहद आवश्यक था। जो थोड़ी बहुत विसंगतियां और अनुत्तरित प्रश्न जान बूझकर छोड़ दिये गये हैं उनका जवाब स्वस्थ होने के बाद सपा खुद ही तलाश लेगी। इसके लिये उसे ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी। इसके अलावा सर्जरी के लिये समय भी ऐसा चुना गया जब सर्जिकल स्ट्राइक के धमाके ने कान सुन्न कर दिया था लिहाजा उस आवाज से पार पाने के लिये बड़ी सर्जरी से पनपनेवाली कराह व चीख-पुकार की आवश्यकता भी थी। अब सर्जरी भी हो गयी है और घाव पर टांके की प्रक्रिया भी जारी है। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका घाव भरने में कितना वक्त लगता है और पार्टी को तात्कालिक तौर पर इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

’मन-मन भावे, मूड़ हिलावे‘

’मन-मन भावे, मूड़ हिलावे‘


किसी के भी चाल-चरित्र व स्वभाव के बारे में जितनी सही व पूरी जानकारी उसके धुर विरोधी के पास होती है उतनी किसी और के पास हो ही नहीं सकती। तभी तो भाजपा को अगर सबसे सही तरीके से किसी ने जाना, समझा और पहचाना है, तो वे हैं सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव। खास तौर से ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना’ का दिखावा करके मतदाताओं व विरोधियों को भ्रम व असमंजस में डालने के भाजपा के जिस चरित्र के प्रति मुलायम लगातार सबको आगाह करते रहे हैं उसी का मुजाहिरा किया है भाजपा की मौजूदा कूटनीति ने। यूपी विधानसभा के चुनाव में पार्टी एक हाथ में राष्ट्रवाद के झंडे और दूसरे में विकास के एजेंडे का तो सार्वजनिक तौर पर मुजाहिरा कर रही है। लेकिन राष्ट्रवादी झंडे के भीतर सांप्रदायिक मसलों का डंडा घुसेड़ने की अपनी कोशिशों को खुलकर स्वीकार करना उसे कतई गवारा नहीं हो रहा है। शायद यही भाजपा का असली स्वभाव जिसके तहत इसके तमाम नेता अधिकांश मसलों पर कभी एक सुर में बोलना गवारा नहीं करते। दूर से सुननेवालों को ऐसा लगता है मानो पार्टी के भीतर सैद्धांतिक व वैचारिक स्तर पर भारी टकराव चल रहा है। लेकिन नजदीक से देखने पर तस्वीर बदली हुई दिखती है। इसमें मजेदार तथ्य यह है कि पार्टी में सबकी राहें बेशक अलग दिखती हों लेकिन उनकी मंजिल एक ही रहती है। अब जहां लक्ष्य को लेकर कोई मतभेद या विरोधाभास ना हो वहां राहों का भेद कोई मायने नहीं रखता। लिहाजा इनका आपसी टकराव व विरोध भी अक्सर दिखावे का ही रहता है। परस्पर मतभेद तो दिखता है लेकिन उसमें मनभेद नहीं होता। मन मिला हुआ ही रहता है। दरअसल संगठनिक स्तर पर होनेवाली इस नूराकुश्ती का मकसद सिर्फ सियासी माहौल में भ्रम की स्थिति उत्पन्न करना ही रहता है। और कुछ भी नहीं। इस भ्रम के शिकार सिर्फ मतदाता ही नहीं होते बल्कि कई दफा विरोधी भी हो जाते हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि भाजपा के किस नेता की बात का विरोध करें और किसके बयान की अनदेखी। भ्रम के इसी कुहासे में फंसकर विरोधियों की गाड़ी अक्सर डी-रेल हो जाती है और भाजपा मैदान मार ले जाती है। ऐसा ही माहौल भाजपा ने एक बार फिर बनाने का प्रयास किया है। खास तौर से यूपी विधानसभा के चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने के मामले को लेकर। जितने मुंह उतनी बातें। सुब्रमण्यम स्वामी तो राम मंदिर निर्माण की तारीख का भी ऐलान कर चुके हैं। जबकि राजनाथ सिंह ने औपचारिक तौर पर सरकार की विवशता का इजहार करते हुए पहले ही कह दिया है कि चुंकि राज्यसभा में मोदी सरकार को बहुमत हासिल नहीं है लिहाजा संसद से कानून बनाकर मंदिर का निर्माण कर पाना फिलहाल संभव ही नहीं है। दूसरी ओर यूपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य से लेकर उमा भारती तक खम ठोंकते हुए यह कहने से परहेज नहीं बरत रहे हैं कि मंदिर तो मोदी सरकार के कार्यकाल में ही बनेगा। यानि हर किसी की जुबान पर मंदिर का नाम तो है लेकिन सुर अलग-अलग है। विनय कटियार तल्ख सुर में लाॅलीपाॅप की कड़वाहट बयान करते हैं तो महेश शर्मा कहते हैं कि जो किया जा सकता है वह तो कम से कम कर लिया जाये। इस सबसे अलग भाजपा का राष्ट्रीय संगठन मंदिर मसले को आस्था का विषय बताने से तो नहीं हिचक रहा लेकिन लगे हाथों यह समझाने से भी चुक रहा है कि यूपी में मंदिर को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया जायेगा बल्कि पार्टी विकास और सुशासन के एजेंडे पर ही चुनाव लड़ेगी। पार्टी का साफ मत है कि मंदिर बनना तो चाहिये लेकिन इसके लिये मनामानी नहीं होनी चाहिये। या तो आम सहमति के आधार पर मंदिर निर्माण हो या फिर अदालत के आदेश पर। अब आम सहमति तो बनने से रही। जब इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा किये गये विवादित जमीन के बंटवारे के दो हिन्दू लाभार्थियों के बीच अब तक सहमति नहीं बन पायी है तो तीसरे मुस्लिम पक्षकार के साथ सहमति बने भी तो कैसे? रहा सवाल अदालत के आदेश से मंदिर निर्माण का, तो इस राह के रोड़े फिलहाल समाप्त होते नहीं दिख रहे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला सामने आये तकरीबन दो साल का वक्त गुजर जाने के बावजूद आज तक इस मामले की फाइल सर्वोच्च न्यायालय की आलमारी में धूल ही फांक रही है। अब तक इसकी सुनवाई के लिये पीठ का गठन भी नहीं हो पाया है। पता नहीं कब पीठ का गठन होगा, कब सुनवाई होगी और कब इसका फैसला आएगा। यानि पूरा मामला अभी बदस्तूर अटका-लटका ही रहनेवाला है। इस हकीकत को जानते हुए भी अगर मंदिर मसले की लहर उठाने का प्रयास हो रहा है और कटियार की तल्खी, सरकार की नरमी और संगठन की गर्मी दिख रही है तो इसमें किसी का किसी से कोई विरोधाभास नहीं है। अंदर से सब मिले हुए ही हैं। बस ऊपर से एक दूसरे से असहमत होने का दिखावा किया जा रहा है। ताकि समाज की कट्टरवादी धारा पर भी पकड़ बनी रहे और मध्यममार्गी धारा पर भी। इसके अलावा छोड़-पकड़ की इस खींचतान में विरोधियों को भी उलझाये रखा जाये ताकि वे किसी एक बयान को पकड़कर आगे ना ले जा पायें। अब ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ की जो दोधारी तलवार भाजपा भांज रही है उसकी चपेट इसके विरोधी आते हैं या पार्टी खुद ही लहुलुहान होती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

‘बेकरारी तुझे ऐ अखिलेश कभी ऐसी तो न थी’

’ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-करार?‘


मुगलिया सल्तनत के आखिरी सुल्तान कहे जानेवाले बहादुर शाह जफर के अंदाज में आज वाकई उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से हर कोई यह जानना चाह रहा है कि ‘ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-करार, बेकरारी तुझे ऐ अखिलेश कभी ऐसी तो न थी।’ वास्तव में देखा जाये तो इन दिनों अखिलेश बड़े बेकरार और बेसब्र दिख रहे हैं। यह बेकरारी उनकी बातों से भी झलक रही है और उनकी हरकतों से भी। जिस सौम्य, सरल व सहज अंदाज के कारण वे भीड़ में अलग दिखते रहे हैं वह कहीं दब-छिप सा गया है। उसकी जगह ले ली है खीझ, परेशानी और बेकरारी ने। कहां तो वे सब्र का समुंदर मालूम पड़ते थे जबकि आज उनके सब्र का बांध बुरी तरह जर्जर और कमजोर होकर टूटता दिख रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो बचपन में अपना नामकरण खुद करने की दलील देकर एकला चलो की राह अपनाने घुड़की देने की कोशिश वे कतई नहीं करते। इस तरह की बातें करके वे अपनी बेसब्री का ही मुजाहिरा कर रहे हैं। कहीं ना कहीं उनके सब्र व संयम का बांध टूटता दिख रहा है। वे उसी जाल में उलझते हुए दिखाई दे रहे हैं जिसमें उनके विरोधी उन्हें लपेटना चाहते हैं। उनके विरोधियों की तो कोशिश ही यही है कि वे अपना आपा खोकर ऊल-जुलूल बकना शुरू कर दें। ताकि मुलायम सिंह का उन पर जो भरोसा है वह मिट्टी में मिल जाये और उन्हें अपने लिये किसी नये उत्तराधिकारी की तलाश करना आवश्यक महसूस होने लगे। ऐसे में कसौटी पर है अखिलेश का संयम। वास्तव में देखा जाये तो अभी वक्त का तकाजा यही है कि उन्हें अपनी कथनी और करनी में भरपूर संयम का प्रदर्शन करना चाहिये। उनके बात या व्यवहार से कहीं से भी यह नहीं झलकना चाहिये कि वे संगठन, सरकार या परिवार के किसी सदस्य से रत्ती भर भी नाराज हैं। उनकी बातों से मुलायम के प्रति अटूट विश्वास झलकना चाहिये और मुलायम की हर बात को उन्हें आदेश के तौर पर स्वीकार व अंगीकार करना चाहिये। ठीक ऐसे ही जैसे उनके चाचा शिवपाल यादव लगातार करते हुए दिखते आ रहे हैं। आखिर शिवपाल ने सपा में अपनी हैसियत मजबूत करने के लिये मुलायम के विश्वास का ही तो सहारा लिया है। वर्ना उनकी क्या हैसियत थी कि वे मुलायम द्वारा घोषित उत्तराधिकारी की अपने दम पर जड़ खोदने की सोच भी सकें। लेकिन आज वे ऐसा सिर्फ सोच ही नहीं रहे बल्कि उसे कार्यरूप देते हुए भी दिखाई पड़ रहे हैं तो इसकी इकलौती वजह है अखिलेश और मुलायम के बीच आयी वैचारिक व सैद्धांतिक दूरी। हालांकि इस बात पर अलग से बहस हो सकती है कि यह दूरी अखिलेश की कथनी व करनी के कारण आयी है या फिर इसकी पटकथा किसी और ने लिखी है। कहा तो यह भी जाता है कि इस सबके पीछे सपा के संचालक परिवार की सबसे मजबूत मानी जानेवाली महिला सदस्य ने ही निर्णायक भूमिका निभायी है और उन्होंने मुलायम को अपने शीशे में उतार कर अखिलेश से उन्हें दूर कर दिया है। साथ ही इस दूरी को हवा देकर अपना सियासी समीकरण साधने के दोषी शिवपाल सरीखे अंदरूनी भी बताये जाते हैं और अमर सिंह सरीखे बाहरी भी। लेकिन इन कही-सुनी बातों से इस हकीकत को हर्गिज झुठलाया नहीं जा सकता है कि आखिरकार कहीं ना कहीं अखिलेश भी इस दूरी, संबंधों में पनपी कटुता व आपसी अविश्वास के लिये कम दोषी नहीं हैं। पिछले चुनाव में सपा को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद मुलायम ने तो अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी बनाकर मुख्यमंत्री पद की कुर्सी सौंप ही दी थी। लिहाजा बाद में बाप-बेटे के बीच जो दूरी बनी उसके लिये मुलायम को जिम्मेवार ठहराना कतई उचित नहीं होगा। साथ ही अगर मुलायम इसके लिये जिम्मेवार नहीं हैं तो जाहिर तौर पर उनके करीबियों व अन्य विश्वासपात्रों पर भी इसका दोष नहीं मढ़ा जा सकता है। ऐसे में सीधे तौर पर मौजूदा हालातों के लिये दोषी अखिलेश ही दिखाई पड़ते हैं जिन्होंने कई फैसले मनमाने तरीके से किये जो मुलायम को नागवार गुजरे। अगर उन्होंने मुलायम को विश्वास में लेकर फैसले किये होते तो ना तो उन्हें दोबारा गायत्री प्रजापति को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिये मजबूर होना पड़ता और ना ही प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से हाथ धोना पड़ता। आज नौबत यहां तक आ पहुंची है कि मुलायम उन्हें सपा का चुनावी चेहरा बनाने के लिये भी तैयार नहीं हैं। उन्होंने खुलकर बता दिया है कि आगामी चुनाव में किसी को भी चुनावी चेहरा नहीं बनाया जाएगा और चुनाव के बाद विधायक दल की बैठक में आम सहमति के आधार पर ही नये मुख्यमंत्री का चयन किया जाएगा। यानि बात बिल्कुल साफ है कि कहीं ना कहीं अखिलेश के प्रति मुलायम का भरोसा कमजोर अवश्य पड़ा है। बेशक इसकी डोर आज भी टूटी नहीं है जिसके कारण परिवार में पनपी असहजता को वे सार्वजनिक तौर पर खारिज करते हुए ही दिख रहे हैं लेकिन अगर अखिलेश ने हालात की गंभीरता को समझते हुए स्थिति को संभालने की पहल नहीं की तो सियासी डगर पर उनकी राहें लगातार दुश्वार होती जाएंगी। लिहाजा अपेक्षित है कि वे सब्र व संयम का परिचय देते हुए मुलायम को विश्वास में लेकर ही आगे बढ़ें। अगर मुलायम के बताये मार्ग का आंखें मूंद कर अनुसरण किया जाये तो भविष्य सुरक्षित भी रहेगा और सुनिश्चित भी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

‘बात निकली है तो अब दूर तलक जाएगी’

‘बात निकली है तो अब दूर तलक जाएगी’


वाकई दशकों से अनसुना ही तो किया जा रहा था पड़ोसी की उस बात को जो वह हमें सुनाता आ रहा था। उसने अपनी बात सुनाने के लिये क्या-क्या नहीं किया। कभी गालियां दी, कभी हिंसक हुआ। कभी गुदगुदाया भी, कभी तमतमाया भी। सिर्फ इसलिये ताकि उसकी बात सुनी जाये। लेकिन वह बात जिसका कोई मायने-मतलब ही नहीं है। आखिर ऐसी बातों को अनसुना ना करते तो और क्या करते। लेकिन वह नहीं माना। उसकी गुस्ताखियां लगातार बढ़ती गयीं। इस तरफ की खामोशी को उसने कमजोरी समझ ली। उसका हौसला लगातार बुलंद होता गया। लेकिन बर्दाश्त की भी एक हद होती है। और जब वह हद आ गयी, तो हो गया वह, जिसकी हमारे पड़ोसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उसे ऐसी जगह पर ऐसा जख्म दे दिया गया जिसे ना तो वह सह सकता है और ना ही किसी से कह सकता है। कहे भी तो क्या कहे, किससे कहे। तभी तो जख्मों से छलनी होने के बावजूद वह मानने के लिये तैयार ही नहीं है कि उसके किस हिस्से पर कैसा वार हुआ है। कुछ समय के लिये अगर मान भी लिया जाये कि उसके खिलाफ कोई वार नहीं किया गया है तो आखिर यह छटपटाहट और बिलबिलाहट क्यों है? क्यों भारत के तमाम टीवी चैनलों को प्रतिबंधित किया गया है? नवाज शरीफ ने आखिर किस बात की निंदा की है? क्यों लश्कर का मुखिया बिलबिलाहट में जहर उगलता और बदला लिये जाने की धमकी देता घूम रहा है? जब कुछ हुआ ही नहीं है तो किसका बदला, कैसा बदला? यानि वह हुआ तो जरूर है जिसे स्वीकार करने का साहस हमारे पड़ोसी मुल्क में है ही नहीं। आखिर वह दुनियां के सामने यह स्वीकार भी कैसे कर सकता है कि उसके कब्जेवाली जमीन पर आतंकी गतिविधियां संचालित हो रही थीं जिसे भारत ने विध्वंसक कार्रवाई करते ध्वस्त कर दिया है। साथ ही वह अपनी आवाम के सामने यह भी कबूल नहीं कर सकता कि उसके कब्जेवाली जमीन पर चहलकदमी करते हुए पड़ोसी मुल्क की फौज ने बड़े आराम और इत्मिनान के साथ सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दे दिया और उसकी तमाम रक्षा व्यवस्था को इसकी भनक भी नहीं लग सकी। परमाणु और मिसाइलों की तमाम धौंस का बेअसर रहना भी वह स्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वीकार करे या ना करे, इतना तो तय है कि पलटवार करने का प्रयास जरूर करेगा। तैयारियां इधर भी पूरी हैं। बस इंतजार है कि वह कुछ करे तो सही। जवाब ऐसा मिलेगा कि सिर्फ इतिहास ही नहीं बदलेगा, पूरा भूगोल बदल जाएगा। वैसे भी पहले पठानकोट और उसके बाद उड़ी में कराए गये आतंकी हमले का करारा जवाब देने के क्रम में अंजाम दिये सर्जिकल स्ट्राइक से ही भारत के सीने में सुलग रही बदले की आग कतई शांत नहीं पड़ सकती है। अभी तो सिर्फ ताजा घाव पर मरहम लगा है, नासूर बन चुके पुराने जख्मों का हिसाब-किताब तो बाकी ही है। यह तो आतंक के खिलाफ सीधी कार्रवाई की महज एक शुरूआत भर है। पाक की ओर से थोपे गये छद्म युद्ध के खिलाफ इसे भारत के पहले औपचारिक प्रतिवाद के तौर पर देखा जाना ही उचित होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो आतंक के खिलाफ लंबे समय से जारी लड़ाई का यह छोटा सा पड़ाव मात्र है। सच तो यह है कि बेशक अपनी ओर से आर-पार का युद्ध छेड़ने की पहल करने के विकल्प को आजमाने से परहेज बरतने की नीति बदस्तूर जारी रहनेवाली है लेकिन पाकिस्तान को जंग से भी अधिक जहरीला दर्द देने की राह पर भारत लगातार आगे बढ़ता रहेगा। खैर, सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देने के अलावा पड़ोसी मुल्क को विश्व बिरादरी में अलग-थलग करने का पड़ाव भी अब पूरी तरह पार होने की कगार पर ही है। अमेरिका द्वारा पाक को औकात में रहने का निर्देश दिया जाना, संयुक्त राष्ट्र द्वारा नवाज शरीफ की तमाम दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया जाना, सार्क देशों द्वारा पाक का पूरी तरह बहिष्कार किया जाना, रूस द्वारा पाक सेना के साथ पूर्वनिर्धारित युद्धाभ्यास स्थगित किया जाना और चीन द्वारा पाक में जारी आतंकी गतिविधियों के खिलाफ मुखर होना यह बताने के लिये काफी है कि विश्व बिरादरी में पाक किस कदर अकेला पड़ता जा रहा है। लेकिन लड़ाई अभी बहुत लंबी है। मौजूदा पड़ावों को ही पर्याप्त मानकर शांत बैठ जाने का मतलब होगा सांप को चोटिल करके छोड़ देना। अभी तो उसे महज कुछ ही जख्म दिये गये हैं। फन कुचलना तो अभी बाकी है। जिस जंग का उसने आगाज किया उसे अंजाम तक तो पहुंचाना ही है। इसके लिये रणनीति भी तैयार है। अब जहां एक ओर आर्थिक नुकसान पहुंचाने के लिये उसे एकतरफा तौर पर दिया गया मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा उससे वापस लिया जाना है वहीं मित्र देशों को इस बात के लिये सहमत करना है कि वे भी उसके साथ अपना आर्थिक रिश्ता पूरी तरह खत्म ना भी करें तो अधिकतम कम अवश्य कर लें। साथ ही सिंधु सरीखी नदियों के पानी से उसे महरूम करने की ठोस योजना पर भी जल्दी ही अमल आरंभ होनेवाला है। जाहिर तौर पर ऐसे तमाम विकल्पों अमल करना तब तक जारी रखा जाना चाहिये जब तक पाक प्रायोजित आतंकवाद का समूल नाश नहीं हो जाता है और गुलाम कश्मीर की सरजमीं पर निर्णायक तौर पर भारतीय तिरंगा लहराने में कामयाबी नहीं मिल जाती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur