चीन की चतुराई से बचने में भलाई
चीन वाकई बेहद चतुर-चालाक ही नहीं बल्कि कुटिल भी है। साथ ही हर चतुर-चालाक की तरह वह भी दूसरों को बेवकूफ ही समझता है। लेकिन भारत को बेवकूफ समझने की गलती अब उसे बेहद महंगी पड़ती दिख रही है। तभी तो भारत के साथ संबंधों को संभालने और संवारने के लिए उसने अपनी कोशिशें तेज कर दी हैं। इसी सिलसिले में उसने औपचारिक तौर पर स्पष्ट कर दिया है कि कश्मीर मसले पर भारत-पाक के बीच जारी विवाद में हस्तक्षेप करने या किसी एक के पक्ष-विपक्ष में खड़े होने का उसका कोई इरादा नहीं है। साथ ही चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने अपनी हालिया दिल्ली यात्रा के दौरान परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत की सदस्यता के मसले पर भविष्य में नरमी बरते जाने का संकेत देने में भी कोई कोताही नहीं बरती है। यानि भारत के साथ विश्वास बहाली के लिये चीन ने कूटनीतिक कवायदें काफी तेज कर दी हैं। लेकिन मसला है इमानदारी का है जिससे दूर-दूर तक चीन का कभी कोई नाता रहा ही नहीं है। उसके लिए सर्वोपरि है अपना हित। इसके लिए वह कभी भी झुक सकता है, और तन सकता है। उसने भारत की तरफ नए सिरे से दोस्ती का हाथ बढ़ाने की जो पहल की है वह भी उसकी इसी कूटनीति का हिस्सा है। लेकिन मसला है भरोसे का। हालांकि विदेशनीति में भरोसा नाम की कोई चीज होती नहीं है। लेकिन दीर्घकालिक ना सही, तात्कालिक भरोसा तो करना ही पड़ता है। इस लिहाज से भी देखें तो चीन कतई भरोसे के काबिल नहीं है। अभी हाल ही में एनएसजी की सदस्यता के मामले में उसने जिस तरह से भारतीय हितों पर कुठाराघात किया है उसे भुलाया नहीं जा सकता। साथ ही उसकी ललचाई नजरें हमारे पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर उत्तराखंड तक लगातार मंडराती रहती हैं। यहां तक कि गुलाम कश्मीर के काफी बड़े हिस्से पर उसका ही कब्जा है। इसके अलावा पाकिस्तान के साथ समझौता करके वह समुद्री सीमा पर भी हमारे खिलाफ साजिशें रच रहा है। उसे न तो हमारे सामरिक हितों की परवाह है, ना राष्ट्रीय हितों की, ना सामाजिक हितों की और ना आर्थिक हितों की। हमारे बाजार को उसने नकली और सस्ते सामानों का डंपिंग ग्राउंड बना कर रख दिया है। ऐसे में जरूरत है चीन के प्रति एक ठोस और कठोर नीति अमल में लाने की। आज उसकी बिलबिलाहट सिर्फ इस बात को लेकर है कि दक्षिण चीन सागर में भारत के हस्तक्षेप ने उसके हितों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। वास्तव में दक्षिण चीन सागर पर उसके कब्जे को विश्व बिरादरी ने भी नकार दिया है और अवैध माना है। कायदे से देखें तो दक्षिण चीन सागर 35 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ ऐसा विस्तृत अंतर्राष्ट्रीय जलक्षेत्र है जो सिंगापुर से लेकर ताइवान सहित विभिन्न देशों को छूता है। इतने बड़े जलमार्ग पर अकेले चीन का कब्जा आखिर किसी को कैसे मंजूर हो सकता है। उस पर तुर्रा यह कि दक्षिण चीन सागर में स्थित जिन नौ तेल के कुओं की वह नीलामी करने में जुटा है उसमें से दो ऐसे हैं जिस पर ताइवान के साथ भारत का समझौता पहले ही हो चुका है। लिहाजा अमेरिका की अगुवाई में वहां हुए युद्धाभ्यास में भारत की शिरकत स्वाभाविक ही थी जिससे चीन बुरी तरह भन्नाया हुआ है। दरअसल कहां तो उसने पाकिस्तान और उत्तर कोरिया से लेकर खाड़ी व अफ्रीकी देशों तक को अपने पाले में करके विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति बनने का सपना देखा था। लेकिन अब हर मोर्चे पर भारत उसके सपनों के आड़े आने लगा है। एक तरफ भारत ने नए सिरे से उस गुलाम कश्मीर पर अपना दावा प्रस्तुत कर दिया है जहां चीन का भी कब्जा है और दूसरी तरफ अमेरिका और खाड़ी देशों से लेकर ताइवान, सिंगापुर और जापान तक के साथ प्रगाढ़ मित्रता की शुरुआत कर दी है। नतीजन विश्व बिरादरी में चीन बुरी तरह अलग-थलग पड़ता जा रहा है। ऐसे में स्वाभाविक है कि वह भारत को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करेगा। हालांकि भारत को भी चीन के साथ मित्रता की उतनी ही आवश्यकता है जितनी किसी अन्य पड़ोसी देश के साथ। लेकिन सवाल है कि आखिर यह मित्रता किस कीमत पर होगी। एक तरफ वह सरहद पर उत्पात मचाता रहे, गुलाम कश्मीर में दखल बरकरार रखे, पाकिस्तान को हर मुमकिन मदद मुहैया कराए, हमारे पड़ोसी मित्रों को हमसे तोड़ने की कोशिशों में जुटा रहे और दूसरी तरफ हमसे मित्रता की उम्मीद भी रखे। ऐसा कैसे संभव हो सकता है? लिहाजा आवश्यकता है कि पहले सामरिक हितों को सुरक्षित करने की दिशा में कदम उठाया जाए और द्विपक्षीय विवाद के कांटों को जड़ से उखाड़ने की पहल की जाये। इसके लिए चीन को सख्त लहजे में बताना होगा कि सरहद पर शांति रहेगी तो ही आपसी संबंधों में विश्वास बहाली संभव है। वरना वह अपने रास्ते और हम अपने रास्ते। इस सख्ती को दर्शाए बिना अगर चीन के साथ मित्रता की नई इबारत लिखने की कोशिश की गई तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। भारत के साथ मित्रता के लिए चीन को पहले सही राह पकड़नी होगी और आत्मानुशासन की अहमियत को समझना होगा। वैसे भी चीन सरीखे मतलबी मुल्क के साथ कोई भी राब्ता कायम करने से पहले सौ बार सोचने की जरूरत है क्योंकि उसके इतिहास और उसकी फितरत को देखते हुए तो उस पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur