तमाम जटिलताओं से अलग हटकर अब तक कानून और संविधान को समझने का एक तरीका यह भी था कि तटस्थता, निष्पक्षता और निरपेक्षता के साथ अपने दिल पर हाथ रख खुद से पूछा जाये कि क्या सही है और क्या गलत। दिल से जो आवाज आएगी वही न्यायसम्मत होगा और जो न्यायसम्मत होगा वह निश्चित ही कानून व संविधानसम्मत भी होगा। लेकिन बीते कुछ दिनों में सर्वोच्च न्यायालय के जो फैसले आए हैं उसने दिल की आवाज को गलत बताने का काम किया है। बात चाहे धारा 377 में बदलाव की करें या आधार विधेयक को मनी बिल के तौर पर पारित कराने की प्रक्रिया को संविधान के साथ धोखा बताये जाने की अथवा एडल्ट्री यानि व्यभिचार को अपराध करार देने वाली धारा 497 को असंवैधानिक करार देकर खारिज करने की। बल्कि पदोन्नति में आरक्षण व्यवस्था को लागू करने का रास्ता साफ किए जाने की बात ही क्यों ना हो। ऐसे तमाम मामलों में जो फैसले आए हैं उससे समाज का काफी बड़ा वर्ग कतई सहमत या संतुष्ट नहीं दिख रहा है। समझना मुश्किल है अगर आरक्षण व्यवस्था के दायरे का विस्तार करते हुए इसे पदोन्नति में भी लागू किया जाएगा तो उस अवधारणा का क्या होगा जिसके तहत कहा जाता रहा है कि शोषित, पीड़ित व दमित वर्ग को मुख्यधारा में आगे आने का मौका देने के लिये इस व्यवस्था को लागू किया था। समाज में हाशिये पर खड़े वर्ग को आगे लाने के लिये पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के नियमों, अपेक्षाओं व अहर्ताओं में ढ़ील देने की बात तो समझ में आती है। लेकिन नौकरी पा जाने वालों को नियमानुसार या तय समय के बाद स्वाभाविक तौर पर मिलनेवाली पदोन्नति के मानदंडों में भी ढ़ील दिये जाने के पीछे आखिर क्या सोच हो सकती है यह समाज के काफी बड़े वर्ग की समझ से परे है। समझ से परे यह भी है कि आधार पर फैसला देने वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ ने अलग से डिसेंट लिखते हुए यह कैसे कह दिया कि आधार विधेयक को लोकसभा में धन विधेयक के रूप में पारित करना संविधान के साथ धोखे के समान है लिहाजा यह निरस्त किये जाने के लायक है। यह तो सरासर लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार, योग्यता और निष्पक्षता पर उंगली उठाने वाली बात हुई क्योंकि यह निर्णय करने का अधिकार पूरी तरह लोकसभा अध्यक्ष का ही होता है कि कौन सा विधेयक मनी-बिल के तौर पर प्रस्तुत किया जाएगा। जब लोकसभा अध्यक्ष ने आधार विधेयक को मनी बिल के तौर पर सदन में प्रस्तुत किये जाने का फैसला दे दिया तो उसके खिलाफ कुछ भी कहने का अधिकार किसी को नहीं हो सकता है। भले ही वह किसी भी पद या कद का व्यक्ति क्यों ना हो। लेकिन सर्वोच्च सम्मान की चाहत रखने वाले मी-लाॅर्ड अन्य संवैधानिक पदों की गरिमा का समुचित सम्मान क्यों नहीं करते यह वाकई समझ से परे है। समझ से परे तो यह भी है कि धारा 377 में बदलाव करते हुए समलिंगियों को यौन संबंध स्थापित करने की औपचारिक रूप से इजाजत दिये जाने के बाद अब पति-पत्नी को कहीं भी और किसी के साथ भी स्वच्छंद तरीके से शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत देने के पीछे आखिर क्या मानसिकता हो सकती है। धारा 497 को असंवैधानिक बता कर खारिज कर दिये जाने के बाद अब आखिर क्या मतलब रह जाएगा विवाह व्यवस्था का? इस फैसले के बाद कानूनी, संवैधानिक या विधिक तौर पर व्यभिचार की आखिर क्या परिभाषा होगी? बेशक खुलते-बदलते वक्त की बेलगाम बयार के अनुकूल खड़े दिखने के लिये स्थापित सिद्धांतों में बदलाव करते हुए इस तरह के फैसले को एकबारगी सही भी माना जा सकता है लेकिन जब व्यवहार व परंपरा के प्रतिकूल सिद्धांत गढ़े जाएंगे तो उसे आदर्श व अनुकरणीय कैसे माना जाएगा। इन फैसलों को पूरी तरह अमल में लाये जाने के बाद समाज की कैसी तस्वीर सामने आएगी इस पर विचार करना भी अगर जरूरी नहीं समझा गया है तो निश्चित ही भावी दुष्परिणामों के लिये किसी अन्य को दोष देना कतई सही नहीं होगा। अब नयी व्यवस्था के तहत जब यौन शुचिता का कोई मायने-मतलब ही नहीं रहा गया है तो इसके परिणाम स्वरूप पैदा होने वाली पीढ़ियां किन संस्कारों में ढ़लेंगी और कैसा भारत गढ़ेंगी इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। पश्चिम के खुले समाज में भी जब सर्वशक्तिमान अमेरिकी राष्ट्रपतियों की भी हिम्मत नहीं होती कि वे अपने विवाहेत्तर संबंधों को स्वीकार कर सकें तो इसका सीधा अर्थ यही है कि पश्चिमी समाज भी यौन शुचिता की अपेक्षा करता है। लेकिन संस्कार, मर्यादा व परंपरा की संस्कृति को आत्मसात करने वाले भारतीय समाज को एक झटके में यौन अराजकता की बेलगाम राहों पर धकेल देना और अपने परंपराओं, मूल्यों, संस्कारों और मर्यादाओं को पुरातन सोच का प्रतीक बताकर उससे पल्ला झाड़ लेना वाकई समाज के काफी बड़े वर्ग की समझ में फिलहाल तो कतई नहीं आ सकता। वर्जनाओं को तोड़ने की होड़ अब अगर परिवार व समाज को छिन्न-भिन्न करते हुए भारतीयता के मूल्यों को तार-तार करने की ओर बढ़ चले तो कोई आश्चर्य, विस्मय या अचंभे की बात नहीं होगी। अपेक्षित था कि मी-लाॅर्ड इस तथ्य की अनदेखी नहीं करते कि अपनी परंपराओं, मर्यादाओं, संस्कारों और सनातन संस्कृति के दम पर ही हम गर्व से समूचे विश्व को यह बताते हैं- यूनानो-मिश्र-रोमां सब मिट गए जहां से, बाकी मगर है अब तक नामो-निशां हमारा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
शुक्रवार, 28 सितंबर 2018
शनिवार, 22 सितंबर 2018
‘श्रेय की सियासत में दफन होती सिद्धू की सिद्धि’
स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि- ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।’ वाकई इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फों में बड़ा नाम दर्ज कराने के लिये मन का बड़ा होना भी उतना ही आवश्यक है जितना कर्मों का बड़ा होना। लेकिन बड़ा काम करने के बाद छोटे मन का प्रदर्शन करते हुए श्रेय हासिल करने की होड़ में शामिल होने का नतीजा क्या होता है यह पंजाब सरकार के कांग्रेसी मंत्री व पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। बीते दिनों उन्होंने काम तो बहुत बड़ा किया था। उन्होंने इमरान खान को पाकिस्तान का वजीर-ए-आजम चुने जाने पर बधाई देने के बहाने परोक्ष तौर पर दोनों मुल्कों के बीच की उस डोर को नए सिरे से जोड़ने की पहल की जिसे जोड़ने के अलावा दोनों मुल्कों के पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं है। उन्हें यह मौका दिया केन्द्र की मोदी सरकार ने और उन्होंने भी अपनी पार्टी के नेताओं की नाराजगी की परवाह किए बगैर इस बड़े काम को पूरा करने की दिशा में पूरे आत्मविश्वास के साथ पहल की। दरअसल पाकिस्तान के 22वें प्रधानमंत्री के तौर पर अपने शपथ ग्रहण का साक्षी बनने के लिये इमरान ने तीन भारतीय क्रिकेटर दोस्तों को बुलाया जिनमे कपिल देव और सुनील गावस्कर के अलावा सिद्धू का नाम शामिल था। गावस्कर ने तो विनम्रता से अपनी विवशता दर्शाते हुए बता दिया कि व्यावसायिक व्यस्तताओं के कारण वे शपथ ग्रहण का साक्षी नहीं बन पाएंगे। लेकिन सरकार से अनुमति मिलने पर ही पाकिस्तान जाने की बात सिद्धू ने भी कही और कपिल ने भी। इसके बाद सिद्धू के जाने और कपिल के नहीं जा पाने से यह साफ हो गया कि सरकार ने बेहद सधे व सटीक तरीके से कूटनीतिक कदम आगे बढ़ाया है। वैसे भी अगर सरकार चाहती तो सिद्धू की यात्रा को आसानी से रोक सकती थी। लेकिन विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने सिद्धू को तोते की तरह रटाकर व समझा-बुझाकर इन नसीहतों के साथ पाकिस्तान भेजा कि अव्वल तो वे वहां अति-उत्साह नहीं दिखाएंगे और दूसरे ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे देश व देशवासियों की भावना आहत हो। साथ ही उन्हें सुषमा ने हमेशा यह बाद अपने दिमाग में रखने की हिदायत दी कि उन्हें लौटकर भारत ही आना है क्योंकि यही उनका अपना देश है। वैसे भी सिद्धू को इस्लामाबाद भेजने के लिये चुनना बेहतरीन कूटनीतिक पहल थी क्योंकि वे ना सिर्फ विपक्षी खेमे के धारदार व आक्रामक नेता हैं बल्कि उनकी वाक्पटुता की पाकिस्तानी निजाम से लेकर वहां की आवाम भी कायल है। सिद्धू ने भी वहां जाकर शांति का झरोखा खोलने के अभियान में सिद्धि हासिल करके यह दर्शा दिया कि उन पर भरोसा किया जाना बिल्कुल सही था। हालांकि शपथ ग्रहण के कार्यक्रम में पाकिस्तानी कब्जेवाले कश्मीर के राष्ट्रपति मसूद खान की बगल वाली कुर्सी पर सिद्धू बैठने और पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा के गले लगने को लेकर कांग्रेसनीत विपक्ष से लेकर भाजपानीत सत्तापक्ष तक ने उनकी काफी आलोचना की लेकिन तटस्थता व निष्पक्षता से देखा जाये तो वे पूरी गर्मजोशी के साथ वहां गए और गरिमापूर्ण ढ़ंग से वापस भी आए। वहां जाकर उन्होंने वही बातें कीं जिसकी शांति व अमन की आशा में पाकिस्तान दौरे पर गए किसी भी सच्चे भारतीय से अपेक्षा की जा सकती है। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी की उसी नीति को आगे बढ़ाया कि दोस्त बदले सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते। उनकी यात्रा का हासिल यह रहा कि अव्वल तो पाकिस्तान की ओर से बातचीत की पेशकश हुई और दूसरे दुनिया को दिखाने के लिये पाकिस्तान ने घोषणा की कि गुरूनानक देख के 500वें प्रकाश पर्व के मौके पर उस करतारपुर बाॅर्डर को भारतीय श्रद्धालुओं के लिये खोल दिया जाएगा जिसे बंटवारे और आजादी के बाद से ही उसने बंद किया हुआ है। हालांकि भारत सरकार ने कूटनीतिक तौर पर पाकिस्तान को औकात में लाने के लिये उसकी किसी बात को तवज्जो नहीं देने की ही नीति अपनाई हुई है और प्रयास हो रहा है कि उसे इतना झुकाने के बाद ही इस तरफ से उसकी किसी पहल का समुचित जवाब दिया जब वह सिर्फ बोली में बात करे और गोली की जुबान से तौबा कर ले। लेकिन करतारपुर काॅरीडोर खुलने संभावना को भुनाने के लिये सिद्धू ने जो हरकत की है वह वाकई बेहद दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है। पूरे किये-धरे का राजनीतिक लाभ लेने और भारत की ओर से पाक पर बनाए गए दबाव के साथ खिलवाड़ करने के क्रम में सिद्धू ने कैसी बचकानी हरकत की है उसे से इसी से समझा जा सकता है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री व कांग्रेस के राज्यसभा सांसद एमएस गिल ने सुषमा स्वराज से मुलाकात का समय मांगा जबकि मिलने के लिये गिल के पीछे-पीछे सिद्धू भी पहुंच गए। साथ ही सिद्धू अपने साथ एक फोटोग्राफर को भी ले गये थे ताकि बाद में दुनिया को बता सकें कि उनके कहने पर ही भारत सरकार पाक के साथ संबंध सुधारने और करतारपुर साहेब का दरवाजा खुलवाने की पहल कर रही है। सिद्धू को समझना चाहिये कि विदेश नीति का मसला दलगत राजनीति से बहुत ऊपर होता है और यह दो देशों के बीच हितों के संतुलन पर टिका होता है जिसमें भारतीय नागरिक होने के नाते उनका फर्ज बिना किसी लोभ-लाभ के सिर्फ भारत का हित सुरक्षित करना है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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गुरुवार, 13 सितंबर 2018
‘कनविन्स के बजाय कन्फ्यूज करने का काॅन्फिडेन्स’
वकालत के पेशे में अक्सर यह देखा जाता है कि किसी भी मुकदमे की पैरवी करते वक्त वकीलों की कोशिश रहती है कि तथ्यों, दलीलों, साक्ष्यों, सबूतों व अपनी बातों से जज को कनविन्स कर लिया जाये। लेकिन अगर साक्ष्य व सबूत पर्याप्त ना हों और मुकदमा कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा हो तो ऐसे में वकील पुरजोर कोशिश करता है कि पूरे मामले को लेकर जज को इस कदर कन्फ्यूज कर दिया जाये कि वह उलझ कर रह जाए और सही फैसले तक पहुंच ही ना सके। इन दिनों भाजपा भी इसी रणनीति पर अमल करती नजर आ रही है। आगामी चुनावों के मद्देनजर उसने जनता जनार्दन को कन्फ्यूज करने की ऐसी रणनीति पर अमल आरंभ कर दिया है जिससे यह समझना बेहद मुश्किल है कि आखिर उसकी नीति क्या है और नीयत क्या है। हालांकि दावे से यह कहना बेहद मुश्किल है कि वाकई जनता को कन्फ्यूज किया जा रहा है अथवा पार्टी ही कन्फ्यूजन की स्थिति में है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि एक तरफ शपथ तो राष्ट्रवाद के डंडे में विकास का झंडा लगाकर ‘सबका साथ सबका विकास’ की ली जा रही हो और दूसरी ओर विकास से जुड़े मसलों पर चुप्पी साध ली जाए। राष्ट्रवाद को भी इस अंदाज में आगे बढ़ाया जाए जिससे समाज में सांप्रदायिक विभाजन की नींव मजबूत होती हुई दिखाई पड़े। राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ताना-बाना बुनने की कोशिश के तहत ही तो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानि एनआरसी के मसले को राष्ट्रीय स्तर पर तूल देते हुए एक तरफ खुले शब्दों में ऐलान किया जाता है कि भाजपा की सरकार एक भी रोहिंग्या अथवा बांग्लादेशी को भारत में घुसपैठ करने की छूट नहीं देगी लेकिन लगे हाथों यह बताने से भी परहेज नहीं बरता जाता है कि दुनिया के किसी भी देश से आने वाले हिन्दू, इसाई, बौद्ध, जैन, सिख व पारसी (गैर-मुस्लिम) समाज के लोगों को शरणार्थी के तौर पर स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं किया जाएगा। जाहिर है कि इस तरह की बात करके समाज को हिन्दू और मुसलमान के बीच की खाई में गिराने का ही प्रयास किया जा रहा है। वर्ना घुसपैठियों को संप्रदाय के चश्मे से देखने-दिखाने की जरूरत ही क्या है? देश की समस्या यह नहीं है कि किस संप्रदाय के लोग हमारे देश में अवैध घुसपैठिये हैं अथवा किस धर्म को माननेवाले शरणार्थी हैं। देश की मौजूदा समस्या है डाॅलर के मुकाबले रूपये की गिरती सेहत, पेट्रोलियम पदार्थों के आसमान छूते दाम और वोटबैंक की राजनीति के लिये अपनाई गई तुष्टिकरण की राह के कारण आंदोलित सवर्ण समाज का तीखा आक्रोश व असंतोष। लेकिन केन्द्र से लेकर देश के 19 राज्यों में प्रत्यक्ष और जम्मू-कश्मीर सरीखे सूबों में परोक्ष तौर पर शासन कर रही भाजपा इन जमीनी मसलों को चिमटे से भी छूने की जहमत नहीं उठा रही है। अलबत्ता पूरा जोर इस बात पर है कि एनआरसी के मसले को किसी भी तरह से मुख्यधारा की चर्चा के केन्द्र में ला दिया जाए। जाहिर है कि सांप्रदायिक मसलों को चर्चा में लाकर असली मसलों से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश के तहत ही ऐसा किया जा रहा है। इसी प्रकार कहने को तो भाजपा अपनी सोच सकारात्मक व विकास परक बताती है और तमाम मंचों से यही अपील करती है कि राजनीतिक बहस को विकास व सुशासन पर ही केन्द्रित रखा जाये लेकिन व्यवहार में इस पर अमल करने को लेकर पार्टी कहीं से भी आश्वस्त नहीं दिखती है। वर्ना विपक्ष के महागठबंधन को लेकर ऐसी बेचैनी का आलम नहीं दिखता कि भाजपा की मातृसंस्था यानि आरएसएस के मुखिया को वैचारिक व सैद्धांतिक विरोधियों की तुलना कुत्ते से करने के लिये मजबूर होना पड़े। यानि संघ से लेकर भाजपा संगठन और मोदी सरकार तक में बेचैनी का माहौल भी है और सिद्धांत व व्यवहार में संतुलन की तलाश भी हो रही है। लेकिन सवाल है कि जब नीति और नीयत सिर्फ सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने तक ही सीमित हो जाये तब सिद्धांतों की याद दिलाना बेमानी और मजाकिया ही होगा। अगर सत्ता केन्द्रित नीति ना होती तो जनता से जुड़ाव इतना कमजोर कैसे हो सकता था कि जन-मन को मथ रहे मसलों को चिमटे से छूने की भी जरूरत ना समझी जाए। व्यवहार में अगर कुछ कर पाना संभव ना भी हो तो सैद्धांतिक बातें करके लोगों को सांत्वना दी ही जा सकती है। गुड़ ना दे सको तो गुड़ जैसी बातें ही कहो। लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर विभिन्न स्तरों की बैठकों के बारे में दी जा रही जानकारियों के मुताबिक ना तो रोजगार के मसले पर कहीं कोई चर्चा हो रही है और ना ही डीजल-पेट्रोल की महंगाई को थामने पर विचार करने की जहमत उठाई जा रही है। अलबत्ता रणनीति बन रही है चुनाव जीतने की और इसके लिये लक्ष्य तय किया गया है 51 फीसदी वोटों पर कब्जे का। इसके लिये तुष्टिकरण पिछड़ों का भी किया जा रहा है और दलितों व आदिवासियों का भी। बहुसंख्यकों व गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिये शरणार्थियों का मसला भी चमकाया जा रहा है। ऐसे में अगर सवर्णों, मुसलमानों और कुछ अन्य जातियों को चिढ़ाना-खिझाना भी पड़े तो कोई दिक्कत नहीं। लेकिन सवाल है कि जब सिद्धांत और व्यवहार में असंतुलन व दिखावे की स्थिति प्रबल रहेगी तो संगठन व सरकार से जनता का जुड़ाव क्यों, कैसे व कब तक कायम रह पाएगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018
‘नुकसान की तस्वीर में फायदे का रंग’
राजनीति में कोई भी नुकसान ऐसा नहीं होता जिसमें कोई ना कोई फायदा ना छिपा हो और कोई फायदा ऐसा नहीं होता जिसमें किसी नुकसान का बीज ना छिपा हो। बल्कि नफा-नुकसान के बीच की डगर से ही सियासत का सफर तय होता है। लिहाजा कोशिश यही की जाती है कि कोई कदम उठाने से पूर्व इस बात का अच्छी तरह आकलन कर लिया जाए कि उससे न्यूनतम नुकसान और अधिकतम फायदा हासिल हो। लेकिन सामाजिक न्याय के झंडे को मजबूती से लहराने और कमंडल को किनारे रखकर मंडल की माला पहनने की कोशिश में भाजपा को इन दिनों जिस कदर अपने परंपरागत मतदाताओं की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है उसकी पार्टी ने शायद ही कभी कल्पना भी की हो। हालांकि संसद के हालिया गुजरे सत्र के आखिरी दिनों में ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देना और अनुसूचित जाति व जनजाति उत्पीड़न निवारक अधिनियम को दोबारा से मजबूत किया जाना भाजपा की नजर में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में ऐसा ऐतिहासिक कदम था कि उसे ‘अगस्त क्रांति’ का नाम देने से भी परहेज नहीं बरता गया। पूरे देश में अगस्त क्रांति यात्रा निकाली गई और जमीनी स्तर तक लोगों को यह बताने का प्रयास किया गया कि पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों के हितों की रक्षा करने के लिये मोदी सरकार किस कदर अडिग व कृतसंकल्पित है। लेकिन ओबीसी और एससी-एसटी के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के इन प्रयासों से समाज का वह सवर्ण तबका बुरी तरह बिदक गया जिसका मानना है कि उसके ही समर्थन से दो सांसदों वाली भाजपा को पूर्ण बहुमत तक की यात्रा करने में सफलता मिली है। नतीजन सवर्णों का आक्रोश सड़क पर दिख रहा है। कहीं भाजपा के मुख्यमंत्री पर जूता-पत्थर फेंका जा रहा है तो कहीं मंत्रियों-सांसदों को काले झंडे दिखाए जा रहे हैं। पूरे देश में सवर्णों का आक्रोश उबाल मार रहा है। हालांकि भाजपा को इस बात का अंदेशा पहले से था कि दलितों व पिछड़ों का तुष्टिकरण करने की कोशिश में उसे सवर्णों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। लेकिन उसकी विवशता थी कि दलितों को गैर-भाजपाई ध्रुवीकरण का हिस्सा बनने से रोकने के लिये एससी-एसटी एक्ट के उन प्रावधानों को दोबारा पूर्ववत बहाल करे जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने कानून का दुरूपयोग रोकने की नीयत से शिथिल कर दिया था। कानून को शिथिल किये जाने के बाद से जिस कदर देश भर में दलितों पर हमलों के मामले सामने आ रहे थे और पूरा दलित समाज मोदी सरकार के खिलाफ आंदोलित, आक्रोशित व एकजुट होता दिख रहा था उससे भाजपा के हाथ-पांव फूले हुए थे कि अगर एकजुट दलितों ने गैर-भाजपावाद का झंडा थाम लिया और राष्ट्रीय स्तर पर मीम-भीम एका की परिकल्पना साकार हो गयी तो उस आंधी में अपना वजूद बरकरार रख पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो जाएगा। वैसे भी पूरा विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्तापक्ष के कई साथी व सहयोगी भी आरक्षण के मसले को लेकर भाजपा व मोदी-सरकार की नीति व नीयत पर उंगली उठाने में कसर नहीं छोड़ रहे थे। मोदी सरकार की छवि को दलित विरोधी के तौर पर दर्शाने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा था। यही वजह रही कि मोदी सरकार ने दलितों की आवाज को संसद की स्वीकृति दिला दी और एससी-एसटी एक्ट को पुराने स्वरूप में बरकरार कर दिया। लेकिन इससे भाजपा को दलितों का कितना समर्थन मिल पाएगा इसके बारे में तो पक्के तौर पर तो कोई कुछ नहीं कह सकता अलबत्ता अब सवर्णों ने अवश्य पार्टी की नींद उड़ा दी है। यही वजह है कि अब पूरा भगवा खेमा इस मामले को लेकर दो-फाड़ दिख रहा है। पार्टी का एक बड़ा तबका इस मसले को इसी सप्ताहांत राजधानी स्थित अम्बेडकर भवन में आयोजित होने जा रही दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पूरी मजबूती से उठाने का संकेत दे रहा है। यहां तक कि वरिष्ठतम भाजपाई नेताओं में शुमार होनेवाले कलराज मिश्र ने तो सार्वजनिक तौर पर जता-बता दिया है कि सवर्णों के खिलाफ होने वाले दलित कानून के दुरूपयोग के मामलों से निपटने के लिये ठोस इंतजाम किये जाने की जरूरत है। लेकिन इस सबके बीच भाजपा के शीर्ष संचालकों की टोली ने मंगलवार की शाम को जब इस पूरे मसले को लेकर अलग से चिंतन-विवेचन किया तो उसमें यही तय हुआ कि एससी-एसटी के मामले को लेकर जारी विवाद को अलग-अलग स्तर पर सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ा जाये। मसलन दलितों के हितों को सर्वोपरि रखने का जो प्रयास किया गया है उसको लेकर दलित समाज के बीच जागरूकता बढ़ाने के अभियान को बदस्तूर जारी रखा जाये। दूसरी ओर सवर्ण समाज को यह बताया जाये कि आखिर किन मजबूरियों के कारण सरकार को इस दिशा में पहलकदमी करनी पड़ी है और क्यों ऐसा करना सभी राजनीतिक दलों के लिये भी आवश्यक हो गया था। साथ ही सवर्ण समाज को यह बताने का भी प्रयास किया जाएगा कि मोदी सरकार ने एससी-एसटी एक्ट में अपनी ओर से कुछ भी नया नहीं जोड़ा है बल्कि पुराने कानून को ही यथावत बहाल कर दिया है। खैर, इस सबसे सवर्ण समाज का आक्रोश कितना शांत होगा और सवर्णों की नाराजगी किस हद तक चुनावी नतीजों में फलित होगी यह तो वक्त आने पर ही पता चलेगा लेकिन इस पूरे विवाद और खास तौर से सवर्णों के मुखर आक्रोश ने भाजपा को दलित विरोधी बताने के प्रयासों को तो पूरी तरह पलीता लगा ही दिया है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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शनिवार, 1 सितंबर 2018
‘तेल के खेल की तह से निकलता निदान’
महंगाई का मसला हमारे देश में सियासी तौर पर हमेशा से ही इतना संवेदनशील रहा है कि कभी प्याज की बढ़ी कीमतों के कारण सरकार बदल गई तो कभी अनाज या दलहन के अभाव ने सत्ताधारियों की साख चैपट कर दी। इस बार आग लगी है पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में। आलम यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद डीजल-पेट्रोल की कीमतें सुरसा की तरह अपना विस्तार करती दिख रही हैं। नतीजन इस मसले पर सरकार को घेरने के लिये राजनीति भी हो रही है और आम लोग भी त्राहिमाम् करते दिख रहे है। हालांकि डीजल-पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाकर और इस पर से करों का बोझ कम करके लोगों को फौरी राहत अवश्य दी जा सकती है। लेकिन चुंकि यह समस्या देश की अंदरूनी नीतियों के कारण खड़ी नहीं हुई है लिहाजा घरेलू जुगाड़ से इस समस्या के समाधान का प्रयास दूरगामी तौर पर कतई कारगर साबित नहीं हो सकता। सच तो यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों की समस्या विश्व व्यवस्था की ओर से भारत पर थोपी व लादी गई है जिसके सामने घुटने टेकने का मतलब होगा विकास व तरक्की की गति से समझौता करना। हालांकि कच्चे तेल की आपूर्ति करनेवाले देशों के संगठन ओपेक के समक्ष भारत लगातार गुहार-मनुहार करता रहा है कि वे अपने रवैये में सुधार लाएं और मुनाफे के लिये मनमानी नीतियों पर अमल ना करें। लेकिन ओपेक देशों द्वारा मुनाफे के लिये कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती का सिलसिला लगातार जारी है। दरअसल दुनिया के बड़े तेल उत्पादक देश आपूर्ति पर नियंत्रण बना कर मनमुताबिक कीमतें तय करने के मकसद से ही वर्ष 1960 में ओपेक का मंच बनाकर एकजुट हुए थे। लेकिन 1998 में कच्चे तेल की कीमतें सर्वकालिक न्यूनतम स्तर यानि 10 डाॅलर प्रति बैरल पर आ गईं तब वर्ष 2000 में ओपेक ने तय किया कि कच्चे तेल की कीमत 22 डॉलर से नीचे जाने पर उत्पादन में कटौती की जाएगी और 28 डॉलर प्रति बैरल की कीमत पर आने के बाद ही उत्पादन बढ़ाया जाएगा। हालांकि बाद के सालों में कच्चे तेल की कीमतें न्यूनतम स्तर पर ही रहीं और आपूर्ति की तुलना में निरंकुश उत्पादन की होड़ लगी रही। नतीजन तमाम तेल उत्पादक देशों का घाटा बढ़ने लगा और आखिरकार ओपेक के अलावा अन्य तेल उत्पादक देशों ने भी ओपेक प्लस के नाम से एक मंच बना कर वर्ष 2017 से उत्पादन में 18 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती करने संबंधी एक समझौता कर लिया। नतीजन कच्चे तेल की कीमतें 27 डॉलर से बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गईं। इस बीच हाल के कुछ महीनों में वेनेजुएला, लीबिया और अंगोला ने तेल आपूर्ति में लगभग 28 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की है। साथ ही वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था के जमींदोज होने और ईरान पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगा दिये जाने के बाद तेल के खेल में चारों तरफ आग ही आग की स्थिति दिख रही है। हालांकि भारत द्वारा दूरगामी तौर पर मांग में कमी करने की चेतावनी और ऊर्जा आवश्यकताओं के लिये अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाने का संकेत दिये जाने के बाद बीते दिनों ओपेक ने कच्चे तेल का उत्पादन एक लाख बैरल प्रतिदिन बढ़ाने का निर्णय अवश्य किया है। लेकिन इससे ना तो समस्या का स्थाई समाधान संभव है और ना ही भविष्य के प्रति निश्चिंत हुआ जा सकता है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नाले के गैस से चूल्हा जलाने की कहानी सुनाना वास्तव में ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में तकनीक की आवश्यकता की ओर इशारा है और इस ओर प्रधानमंत्री की नजरें गड़ी होने का सीधा मतलब है कि अब भारत की पहली प्राथमिकता ऊर्जा के लिये विदेशों पर निर्भरता की विवशता से निजात पाना है। बीते सप्ताह बायोफ्यूल से विमान उड़ाकर बॉम्बार्डियर क्यू-400 द्वारा 20 सवारियों के साथ देहरादून से राजधानी दिल्ली के बीच के स्वर्णिम सफर के सपने को साकार किया जाना भी उसी सिलसिले की कड़ी है। दरअसल अब बेहद आवश्यक हो गया है कि हम वैकल्कि ऊर्जा श्रोतों पर गंभीरता से ध्यान दें और पेट्रोलियम पर अपनी निर्भरता को यथासंभव कम करें। इसके लिये इसी साल नैशनल पॉलिसी फॉर बायोफ्यूल भी तैयार की गई है जिसके मुताबिक अगले चार सालों में एथेनॉल के उत्पाद को तीन गुना तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा बायोफ्यूल, बायोगैस व सौर ऊर्जा पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है और घरेलू संसाधनों से ऊर्जा जरूरतें पूरी करने की कोशिश की जा रही है। वैकल्पिक अक्षय ऊर्जा को लेकर भारत की जो नीति है उसके तहत वर्ष 2025 तक प्रतिदिन के तेल की खपत में 10 लाख बैरल की भारी कमी आएगी। इसके लिये इलेक्ट्रोनिक व गैर-पेट्रोलियम चालित वाहनों को टोल टैक्स से छूट देने की योजना भी बन रही है और नीति आयोग सरकार को यह सलाह भी दे रहा है कि ऐसे वाहनों की खरीद पर डेढ़ लाख तक की सब्सिडी भी मुहैया कराई जाए ताकि आम लोगों को वैकल्कि ईंधन का इस्तेमाल बढ़ाने के लिये प्रेरित किया जा सके। जाहिर है कि वैकल्पिक ईंधन का काफी बड़ा श्रोत खेतों में उपजेगा जिससे निश्चित ही भारत के किसानों को सीधा लाभ होगा और प्रदूषण के स्तर में भी कमी आएगी। साथ ही तेल का आयात करने में खर्च होनेवाली विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी और ऊर्जा में आत्मनिर्भरता से सशक्त भारत की तस्वीर उभर कर सामने आएगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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