कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे.....
‘कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे, मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे, कोई इशारा दिलासा न कोई वादा मगर, जब आई शाम मेरा इंतजार करने लगे।’ कायदे से देखें तो वसीम बरेलवी की यह गजल इन दिनों स्वामी प्रसाद मौर्य की वास्तविक हालत को बयान करती हुई महसूस होती है। वाकई इनके बारे में कही-सुनी बहुत सी बातें अफवाहों व अटकलों की शक्ल में सियासी महफिलों में तैरती फिरती हैं। लेकिन ना तो इन्होंने अब तक खुलकर कुछ कहा है और ना ही इनके लिये किसी ने अपना दरवाजा बंद किया है। अलबत्ता भले ही इन्होंने किसी से कोई वादा ना किया हो लेकिन इनके इंतजार में सभी पलक पांवड़े बिछाए दिख रहे हैं। सतही तौर पर देखने से तो यही लगता है कि बसपा छोड़ने के बाद मौर्य के सामने विकल्पों का पूरा आसमान अपनी बांहें फैलाए खड़ा है। ये जिधर का भी रूख करें इनके लिये उधर ही तोरणद्वार व वंदनवार सजाये जाने की पूरी तैयारी है। हर कोई लालायित है इन्हें गले लगाने के लिये। इनके इंतजार में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पलकें बिछाये खड़े हैं और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इनकी राहों में बांहें फैलाये हुए हैं। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो हर रास्ता इनके ही इंतजार में दिख रहा है। अब इन्हें ही तय करना है कि किधर जाना है। लिहाजा विकल्पों की बहुलता के कारण कायदे से तो इनका अगला कदम बेहद आसान होना चाहिये था। लेकिन गहराई से देखें तो पूरा माहौल उतना खुशनुमा कतई नहीं है जितना सतह पर दिख रहा है। बल्कि हकीकत तो यह है कि विकल्पों की बहुलता ने ही इनकी राहें बुरी तरह दुश्वार कर दी हैं। तभी तो इन्होंने सबसे पहला काम किया विकल्पों को सीमित करने का। इसी क्रम में सबसे पहले इन्होंने सपा की ओर जानेवाले रास्ते का दरवाजा खुद ही बंद कर लिया। इन्होंने सपा से अपनी दूरी दिखाने के लिये उसपर तीखा हमला बोल दिया। कहा कि सपा के विषय में उनकी राय नहीं बदली है। वह उसे गुण्डों और माफियाओं की पार्टी ही मानते हैं और मुलायम सिंह यादव के परिवारवाद के विरोधी वे पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। शायद यह तल्खी दिखाना मौर्य की मजबूरी भी रही होगी क्योंकि जो व्यक्ति बसपा में कई वर्षों तक मायावती के बाद नम्बर दो की हैसियत में रहा हो, उसके लिए अचानक ही सपा में शामिल हो जाना अव्यावहारिक और असहजतापूर्ण हो सकता है। इस तथ्य को सपा नेता समझ नहीं सके अन्यथा वह जल्दबाजी न दिखाते। ना आजम खान आनन-फानन में मौर्य को सपा में शामिल होने का न्यौता देकर चट मंगनी और पट ब्याह कराने की कोशिश करते और ना ही मौर्य को गठजोड़ की संभावनाएं टटोलने से पहले ही अलगाव का एलान करने के लिये मजबूर होना पड़ता। खैर, जो हो गया वह बदल तो नहीं सकता। अलबत्ता उसके असर को तो भुगतना ही होगा। अब इसका नतीजा यह हुआ है कि फिलहाल सपा की ओर खुलनेवाला दरवाजा मौर्य के लिये बंद हो गया है और अपनी ओर से मौर्य ने ही उस पर सांकल चढ़ा दी है जबकि दरवाजे के दूसरी तरफ शिवपाल यादव टेक लगाकर खड़े हो गये हैं ताकि वह दरवाजा खुल ही ना सके। हालांकि इन्होंने अपनी ओर से भले ही सपा की ओर खुलनेवाले दरवाजे पर कुंडी चढ़ा दी हो लेकिन सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ इनके पुराने रिश्तों की दुहाई देते हुए अखिलेश यादव ने आज भी इनके लिये रास्तों में फूल बरसाना जारी रखा हुआ है। लेकिन सवाल है कि विपक्ष के नेता पद से हटते ही सत्तापक्ष का दामन थाम लेने का मतदाताओं का जो असर पड़ेगा उससे इनकी विश्वसनीयता तो सवालों के घेरे में आ ही जाएगी। ऐसे में अब फिलहाल मौर्य के सामने अपनी अलग पार्टी बनाने के अलावा भाजपा में शामिल होने का ही विकल्प बचा है। बसपा में इनकी वापसी अब नामुमकिन है और कांग्रेस में तो फिलहाल शायद ही कोई महत्वाकांक्षी नेता शामिल होना पसंद करे। लेकिन मसला है कि अपनी अलग पार्टी बनाने के विकल्प में भी बहुत जोखिम है क्योंकि अगर जनता ने नकार दिया तो सियासत में अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। यानि सुरक्षित विकल्प तो इनके सामने अब भाजपा का ही है लेकिन मसला है कि पिछले चुनाव में बसपा से आये बाबूसिंह कुशवाहा को महज चैबीस घंटे के लिये संगठन में शामिल कराने का बेहद बुरा खामियाजा भुगत चुकी भाजपा में इस दफा मौर्य के मसले पर पहले आम सहमति तो बने। तभी तो भाजपा में दबी जुबान से मौर्य के बारे में बातें तो कई तरह की हो रही हैं लेकिन खुलकर कोई कुछ नहीं कह रहा। वैसे यदि जातीय समीकरण की बात करें तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद भी मौर्य समाज से ही आते हैं जिनकी छवि पूरी तरह बेदाग है। जबकि मायावती सरकार के कार्यकाल में स्वामी प्रसाद भी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे थे। लिहाजा भाजपा भी इन्हें अपने संगठन में शामिल करने से पहले सौ-बार सोचेगी और उसके बाद ही कोई अंतिम फैसला लेगी। बहरहाल मौजूदा हालातों में मौर्य के बारे में अभी सिर्फ अटकलें ही लगायी जा सकती हैं। लेकिन सवाल है कि अगर अटकलों का दौर ही चलता रहा और ये समय रहते अपने लिये कोई ठौर-ठिकाना तलाशने में कामयाब नहीं हो सके तो चुनावी तपिश का मौसम इनके सियासी सफर की बड़ी रूकावट भी बन सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant Thakur