शनिवार, 4 जून 2016

झूठ बोला है तो कायम भी रहो उस पर.....

‘आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिये’ 


जफर इकबाल साहब का कहना है कि ‘खामोशी अच्छी नहीं इनकार होना चाहिये, ये तमाशा अब सर-ए-बाजार होना चाहिये, झूठ बोला है तो कायम भी रहो उस पर जफर, आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिये।’ यानि अव्वल तो झूठ बोलना ही गुनाह है और दूसरे अगर यह गुनाह हो भी जाये तो झूठ बोलने के बाद जरूरी है कि उस पर कायम भी रहा जाये। लेकिन मसला है कि जब आज की तारीख में सच पर कायम रहनेवाले लोग चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते तब झूठ पर कायम रहनेवालों को कहां से ढ़ूंढ़ कर लाया जाये। खास तौर से सियासत के बारे में तो वैसे भी कहा जाता है कि यहां कोई किसी बात पर लंबे समय तक कायम नहीं रहता। यहां तो ‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजे’ का ही चलन है। यही वजह है कि मौके की नजाकत व सियासी जरूरतों को देखते हुए यहां कब कौन अचानक अपनी कही हुई बात से पलट जाये इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। जाहिर है कि इसके लिये अलग से किसी घटना की मिसाल देने की कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि सियासत में होनेवाली रोजमर्रा की इन घटनाओं के प्रति लोग इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि अब लोग भी यह याद रखना जरूरी नहीं समझते कि कब किसने क्या कहा था। तभी तो सभी यही मानकर चलते हैं कि लोगों की याददाश्त बड़ी छोटी होती है और कोई नया गुल खिलते ही पिछले तमाशे को सिरे से भुला दिया जाता है। लोगों की इसी आदत का फायदा तमाम राजनीतिक पार्टियां भी जमकर उठाती हैं और केन्द्र व सूबों की सरकारें भी। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें धरातल पर आ जाने के बावजूद पेट्रोल व डीजल की खुदरा कीमतों में अधिक कमी नहीं कर पाने की मजबूरी गिनाने के क्रम में सरकार की ओर से जो दलीलें पेश की जा रही थीं उसे भी आम लोगों ने सच मान लिया और अब कच्चे तेल की कीमतों में उछाल के बाद पेट्रोल व डीजल की कीमतों में की जा रही लगातार वृद्धि को जायज ठहराने की दलीलों को भी आंखें मूंद कर सच मान लिया जा रहा है। जबकि दोनों दलीलें सैद्धांतिक तौर पर एक दूसरे के बिल्कुल ही विपरीत हैं। मौजूदा हालातों की बात करें तो केन्द्र सरकार के तरफदार आंकड़ों के हवाले से लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि चुंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में जनवरी माह के मुकाबले 70 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है लिहाजा पेट्रोल-डीजल व रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि करना सरकार की मजबूरी हो गयी है। लेकिन इस तर्क को अगर सही माना जाये तो जब पूर्ववर्ती संप्रग सरकार के कार्यकाल में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 160 से 170 डॉलर प्रति बैरल की दर से कच्चा तेल मिल रहा था उस दौरान पेट्रोल की खुदरा कीमतों का 80 रूपये प्रतिलीटर की कीमत को भी पार कर जाना तो समझ में आता है। लेकिन इन दलीलों के तहत तो जब राजग की मौजूदा सरकार के कार्यभार संभालते ही कच्चे तेल की कीमत 20 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे आ गयी तब इसका फायदा आम लोगों को हाथोंहाथ मिल जाना चाहिये था, जोकि नहीं मिला। मोदी सरकार के कार्यकाल में जब 20 से 30 डॉलर प्रति बैरल की कीमत पर कच्चा तेल मिल रहा था तब तो यह बताया जाने लगा कि चुंकि कच्चे तेल का सौदा पहले ही तय हो जाता है लिहाजा पुरानी कीमतों के आधार पर ही पेट्रोल व डीजल की खुदरा कीमत तय करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अब जबकि कच्चे तेल की कीमतें हाल ही में महज 50 डॉलर पर ही पहुंची है तब अचानक ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफा कर दिये जाने की वजह क्या है? या तो सरकार का यह तर्क लागू होना चाहिये कि कच्चे तेल का सौदा पहले ही हो चुका है। फिर तो पहले की सस्ती दरों पर ही आज पेट्रोल-डीजल मिलना चाहिये। या फिर पेट्रोलियम कंपनियों की यह दलील हमेशा अमल में लायी जाये कि अंराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी तो घरेलू बाजार पर भी इसका सीधा व स्पष्ट असर पड़ेगा ही। लेकिन यह दोनों ही बातें लागू करने के लिये सरकार तैयार नहीं है। उसे तो जब जिससे फायदा दिखता है तब उस तर्क को आगे कर देती है। अब इसका तो स्पष्ट मतलब यही हुआ कि आंकड़ों की बाजीगरी में लोगों को उलझाकर सरकार की मंशा सिर्फ अपने खजाने को भरने की है ताकि बजट घाटे को पूरा किया जाये और विकास की योजनाओं को गति देने के लिये धन की कमी ना होने पाए। हालांकि इस सोच को भी सिरे से गलत नहीं कहा जा सकता है लेकिन इसमें सरकार को संतुलन तो रखना ही पड़ेगा। आखिर जनता पर किस हद तक बोझ डाला जाये इस पर विचार तो करना ही पड़ेगा। मसला सिर्फ पेट्रोल-डीजल का नहीं है। सवाल है इनकी कीमतों में वृद्धि के कारण महंगी होनेवाली ढ़ुलाई का, जिसका असर पूरे बाजार पर पड़ेगा। ऐसे में आवश्यकता है बजटीय आवश्यकताओं और आम लोगों के हितों के बीच संतुलन बिठाने की। वर्ना जिन आम लोगों के हित की चिंता करते हुए देश के विकास की गाड़ी को रफ्तार दी जा रही है वही गाड़ी आम लोगों के हितों को कुचलते हुए ना आगे बढ़ जाये। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर 

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