बुधवार, 22 जून 2016

सियासी ‘साॅल्यूशन’ के लिये ‘कन्फ्यूजन’ की कूटनीति

सियासी ‘साॅल्यूशन’ के लिये ‘कन्फ्यूजन’ की कूटनीति  

वकालत के पेशे का सबसे प्रचलित पैंतरा है ‘कन्फ्यूजन’। बचाव पक्ष के वकील को जब लगने लगता है कि सबूतों व गवाहों के मकड़जाल से अपने मुवक्किल को बचा पाना मुश्किल हो सकता है और आरोपी को निर्दोष मानने के लिये जज को सहमत कर पाना संभव नहीं है तो वह अपने तर्कों व दलीलों के दम पर अदालत को कन्फ्यूज करने में ही अपनी पूरी ताकत झोंक देता है ताकि आरोपी को संदेह का लाभ दिलाया जा सके। वकीलों द्वारा अदालत में अपनाये जानेवाले इस पैंतरे का इन दिनों सियासत में भी काफी बोलबाला दिख रहा है। जिसे देखिये वही मतदाताओं को कन्फ्यूज यानि भ्रमित करने में जुटा हुआ है। खास तौर से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर तमाम पार्टियां इसी जुगत में दिख रही हैं कि विरोधी पक्ष के प्रति मतदाताओं के बीच भ्रम व संशय का माहौल बना दिया जाये। तभी तो भाजपा यह प्रचारित कर रही है कि सपा व बसपा के बीच अंदरूनी सांठगांठ है जबकि बसपा का कहना है कि सपा और भाजपा आपस में मिले हुए हैं। उधर सपा के मुताबिक चुंकि बसपा और भाजपा के बीच पहले भी गठजोड़ हो चुका है लिहाजा आगे चलकर भी वे दोनों एकसाथ आने में संकोच नहीं करेंगे जबकि कांग्रेस अभी से मानकर चल रही है कि उसे सूबे की सियासत से बाहर रखने के लिये सपा, भाजपा और बसपा के बीच अंदरखाने परस्पर सहमति बनी हुई है और इसी के नतीजे में ना तो सपा उसके साथ गठजोड़ करने के लिये सहमत हो रही है और ना ही बसपा। यानि सभी दलों का जोर यही साबित करने पर है कि कौन किसके साथ मिला हुआ है और किसकी किसके साथ अंदरूनी सांठगांठ है। जाहिर है कि यह चुनावी पैंतरा मतदाताओं को भ्रमित करने के लिये ही अपनाया जा रहा है जिसमें वास्तविक सच्चाई भले ना हो लेकिन उसका काल्पनिक भौकाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इन दिनों यूपी की तमाम सुर्खियां मतदाताओं को भ्रमित करनेवाली ही दिख रही हैं। मसलन कैराना के मामले को ही लें तो भाजपा के मुताबिक वहां की हालत ठीक वैसी ही है जैसी नब्बे के दशक में कश्मीर की थी। जबकि सूबे में सत्तारूढ़ सपा का कहना है कि कैराना के मामले को सियासी लाभ के लिये बेवजह ही बखेड़े का सबब बनाया जा रहा है जबकि हकीकत में वहां स्थानीय स्तर पर कोई समस्या ही नहीं है। सपा के मुताबिक वहां पूरी तरह रामराज का माहौल है जबकि भाजपा उसे जंगलराज का प्रतीक साबित करने में जुटी हुई है। अब किसकी बात में कितना दूध और किसकी दलीलों में कितना पानी मिला हुआ है यह पता करने के चक्कर में सूबे के उन मतदाताओं का मिजाज घनचक्कर होना तो लाजिमी ही है जिन्होंने कल तक कैराना का नाम भी नहीं सुना था। खैर मतदाताओं का मिजाज तो इस बात को लेकर उखड़ना भी स्वाभाविक है कि कहने को तो सपा और भाजपा दोनों ने यही प्रण किया हुआ है कि इस बार का चुनावी मुद्दा विकास व सुशासन पर ही केन्द्रित रखा जाएगा लेकिन दोनों ही ओर से सांप्रदायिक व जातिगत ध्रुवीकरण की कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। कभी एक तरफ के कुछ नेता ‘रामलला हम आएंगे, दिसंबर में मंदिर बनाएंगे’ का नारा बुलंद कर रहे हैं तो दूसरी तरफ घोषित अपराधियों को संगठन में शामिल करके अल्पसंख्यक वोटों की एकजुटता सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है। चुनाव के बाद भाजपा और बसपा के एकसाथ आने की संभावना जताकर अल्पसंख्यकों को डराने की कूटनीति आजमायी जा रही है तो इसके जवाब में अपना वजूद बचाने के लिये बहुसंख्यकों को एकजुट होने का महत्व समझाया जा रहा है। अब इस बेमानी बहस से गूंज रहे चुनावी नक्कारखाने में विकास व सुशासन की तूती कहां गुम होती जा रही है यह किसी को पता नहीं चल पा रहा है। ऐसे में चुनावी मुद्दों व वायदों के आधार पर पार्टियों को परखनेवाले मतदताओं का भ्रमित होना लाजिमी ही है। इसी प्रकार जब सूबे की सरकार कह रही है कि पिछले साल के बाढ़-सुखाड़ का पैसा उसे अब तक केन्द्र से नहीं मिला है जबकि प्रधानमंत्री सार्वजनिक सभा में आरोप लगा रहे हैं कि केन्द्र से मिलनेवाली सालाना एक लाख करोड़ की रकम प्रदेश सरकार की तिकड़मी योजनाओं में उलझकर फाइलों में ही गायब हो जा रही है तो ऐसे में मतदाताओं का भ्रमित होना तो स्वाभाविक ही है। यहां तक कि मतदाताओं को कन्फ्यूज करने की कूटनीति अपनाने में वह कांग्रेस भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है जिसके लिये इस चुनाव को अस्तित्व की लड़ाई के तौर पर देखा जा रहा है। तभी तो कभी उसके नेता यह शगूफा छोड़ते हैं कि सूबे में राहुल के बजाय प्रियंका को आगे रखा जाएगा तो कभी यह सुर्रा छोड़ दिया जाता है कि वरूण गांधी को कांग्रेस में शामिल कराके उनकी अगुवाई में चुनाव लड़ा जा सकता है। अब इस तरह की ऊटपटांग बातें करके मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिशों में जुटे राजनीतिक दलों को कौन समझाए की इन हवाई बातों से अखबारों की सुर्खियां तो बटोरी जा सकती है मगर इससे वोट मिलना मुश्किल ही है। वैसे भी मतदाता मासूम भले ही हो वह मूर्ख कतई नहीं है वर्ना देश में जड़े जमा चुकी त्रिशंकु सदन की अवधारणा को अफसानों में ही अपना अस्तित्व तलाशने के विवश नहीं होना पड़ता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर

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