बचपन से ही हमें यह सिखाया जाता है कि अच्छा वक्ता बनने की अनिवार्य शर्त है कि पहले अच्छा श्रोता बना जाए। जो अच्छा श्रोता नहीं होगा वह अच्छा वक्ता भी नहीं बन सकता। लिहाजा बोलना कम और सुनना अधिक चाहिये। साथ ही जितना सुना गया उसे अधिक से अधिक गुनना, धुनना और बुनना चाहिये। उसके बाद वैचारिक व सैद्धांतिक बुनावट और कसावट के साथ जुबान से जो बातें निकलेंगी वही अच्छे वक्ता के तौर पर समाज में पहचान दिलाएंगी। यह तो हुई सैद्धांतिक बात। अब अगर व्यवहारिक तौर पर देखें तो माहौल ऐसा है जिसमें सुनने व समझने की ना तो फितरत बची है और ना ही आदत। बस बोलते जाना है। भले उन बातों में कोई तथ्य या प्रामाणिकता हो या ना हों। कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता हैं कि एक ही बात को कितनी बार दोहराया जा रहा है। इन दिनों देश की सियासत में इसी एकसूत्रीय रणनीति पर अमल हो रहा है। बात चाहे सत्तापक्ष की करें या विपक्ष की। सुनने, समझने, गुनने, धुनने और बुनने की लंबी प्रक्रिया के बाद ही कुछ बोलने की परंपरा अब बीते दिनों की बात बन कर रह गई है। लेकिन सवाल है कि बातों में तथ्य, सत्य, गंभीरता, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता तो तब आएगी जब किसी भी मामले पर बोलने से पहले इसके तमाम पहलुओं के बारे में सुनकर विश्लेषण व चिंतन-मनन करके कोई ठोस राय कायम की जाए। लेकिन अगर कोई बोलने की रौ में सुनना-समझना गवारा ही ना कर रहा हो तो उसकी वही हालत होती है जो इन दिनों कांग्रेस और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की दिख रही है। कायदे से देखें तो कांग्रेस ने आगामी चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा को घेरने के लिये जिन मुद्दों को मुख्य हथियार के तौर पर चुना है उसमें से एक भी औजार ऐसा नहीं है जो सत्य, तथ्य व प्रामाणिकता की धार व मजबूती से चमक-दमक रहा हो। कांग्रेस ने एक ओर राफेल के मुद्दे को आगे करके चैकीदार को चोर बताने की पहल की है तो दूसरी ओर ईवीएम की कमियां-खामियां गिना कर वह सरकारी तंत्र को बेईमान साबित करने पर तुली हुई है। इसके अलावा नोटबंदी के नुकसान गिनाकर वह आम लोगों की संवेदना बटोरना चाहती है तो जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स का नाम देकर सरकार को लुटेरी साबित करने में जुटी हुई है। साथ ही किसानों के लिये कर्जमाफी का वायदा करके वह जमीनी स्तर पर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में लगी है। ये पांच ही वह बड़े मुद्दे हैं जिसके पंच से कांग्रेस की कोशिश है भाजपा को धराशायी करने की। लेकिन इन पांचों मसलों को अलग-अलग टटोलें तो इनमें से एक भी मुद्दा तथ्य व सत्य से ढ़ला ठोस हथौड़ा नहीं है जिससे मोदी सरकार के ताबूत में कील ठोंकी जा सके बल्कि ये सभी मनगढ़ंत बातों की हवा से फूले हुए गुब्बारे ही हैं जो सांच के आंच को एक क्षण भी शायद ही बर्दाश्त कर पाएं। इन पांचों मसलों को सिलसिलेवार ढंग से परखें तो राफेल खरीद के मामले को ही नहीं बल्कि ईवीएम में गड़बड़ी के सवाल को भी पूरी तरह देखने, परखने और समझने के बाद सुप्रीम कोर्ट पहले ही खारिज कर चुका है। राफेल के मामले में कांग्रेस के तमाम सवालों का जवाब संसद में सरकार भी दे चुकी है और मामले से जुड़ी फ्रांस सरकार और दसौं कंपनी से लेकर रिलायंस तक की ओर से पूरे तथ्यों व प्रमाणों के साथ स्थिति स्पष्ट की जा चुकी है। ईवीएम को हैक करना अगर संभव होता तो चुनाव आयोग द्वारा हैक करने के लिये तीन दिन का वक्त दिये जाने का इन्होंने सदुपयोग कर लिया होता। रहा सवाल जीएसटी का तो अगर ये इतना ही खराब है तो जीएसटी लागू करने से लेकर जीएसटी काउंसिल तक में हर फैसला अब तक बहुमत के बजाय सर्वसम्मति से क्यों हुआ? कांग्रेस ने नीति-नियम के निर्धारण से किनारा अथवा विरोध क्यों नहीं किया? नोटबंदी इतनी गलत थी तो राहुल गांधी नोट बदलने के लिये कतार में लगने के बजाय सड़क पर संघर्ष के लिये क्यों नहीं उतरे। मामले को न्यायालय में खींचकर सरकार को शर्मिंदा क्यों नहीं किया? इसी प्रकार किसानों की कर्ज माफी की बात करना भी कांग्रेस के लिये ऐसा ही है जैसे सहेज कर रखने के बजाय अपने ही हाथों से फाड़ी गई चादर पर पैबंद लगाने की बात की जा रही हो। हालांकि ऐसा नहीं है कि बिना सोचे-समझे और सिर्फ बोलते चले जाने के लिये बोलना केवल कांग्रेस और राहुल का शगल है बल्कि ऐसी ही फितरत और आदत का मुजाहिरा सत्तारूढ़ भाजपा भी कर रही है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी। वर्ना जिस राम मंदिर मसले के विवाद को सुलझाने के लिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आड़ लेकर अध्यादेश लाने से बचने की कोशिश की जा रही है उसी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सबरीमला के मसले पर दिये गये फैसले को सार्वजनिक मंच से ललकारने व दुत्कारने का दुस्साहस कतई नहीं किया जाता। यहां तक कि अगस्ता खरीद घोटाले को चुनावी मुद्दा बनाने के लिये प्रधानमंत्री द्वारा मीडिया रिपोर्ट का हवाला नहीं दिया जाता जबकि इसका कथित राजदार क्रिश्चन मिशेल सरकार की पकड़ में आ चुका है। यानि बोलने से पहले सोचना और सोचने के लिये सुनना जब किसी को गवारा ही नहीं है तो उनकी बातों की कितनी गंभीरता, विश्वसनीयता व प्रामाणिकता रहेगी इसे आसानी से समझा जा सकता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
गुरुवार, 24 जनवरी 2019
शुक्रवार, 18 जनवरी 2019
‘क्या बने बात जब कांग्रेस से बात बनाए ना बने’
बात बनने से पहले ही बिगड़ती हुई दिखे तो कैसा महसूस होता है यह कोई कांग्रेस से पूछे। कहां तो कोशिश थी सभी दलों को साथ जोड़कर महागठबंधन बनाने की ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत घेराबंदी की जा सके। लेकिन स्थिति यह है कि किसी भी सूबे में कांग्रेस के साथ कांधे से कांधा मिलाने के लिये कोई तैयार ही नहीं है। हालांकि सबको मालूम है कि चुनावी नतीजा भाजपा के खिलाफ आने के बाद भी अपना कद ऊंचा करने के लिये उसे कांग्रेस के कांधे पर ही चढ़ना होगा। लेकिन इस समय जबकि कांग्रेस को अपनी सियासी डोली को चुनावी सफर में आगे बढ़ाने के लिये क्षेत्रीय दलों के कांधे की जरूरत है तो एक के बाद एक सभी उससे कन्नी काटते दिख रहे हैं। अपने कांधे पर कांग्रेस का वजन उठाने के लिये कोई तैयार नहीं है। यूपी में तो बसपा, सपा व रालोद यानि बुआ, बबुआ और ताऊ की तिकड़ी ने पहले ही कांग्रेस से किनारा कर लिया। लेकिन चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी को भी तेलंगाना में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके चुनाव लड़ने का बेहद बुरा हश्र झेलने के बाद अब आंध्र प्रदेश में हाथ का साथ पकड़ने से परहेज बरतने में ही अपनी भलाई दिख रही है। यहां तक कि लोकसभा की महज सात सीटों वाले सूबे दिल्ली में सत्तारूढ़ अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस की लाख कोशिशों के बावजूद उसके साथ जुड़ने के लिये तैयार नहीं है। जबकि इस गठबंधन में बाधक बन रहे अजय माकन का प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा भी हो गया और प्रदेश कांग्रेस की कमान 80 वर्षीया बुजुर्ग नेत्री शीला दीक्षित को भी सौंप दी गई ताकि आप के साथ संबंध कायम करने में कोई परेशानी ना हो। लेकिन केजरीवाल कांग्रेस को ऊंचा उठाने के लिये अपना कांधा लगाने को कतई तैयार नहीं हैं। आलम यह है कि कर्नाटक में कांग्रेस ने जिस जेडीएस की सरकार बनवाई वह भी बुरी तरह बिदकी हुई है। जेडीएस के शीर्ष नेता एचडी देवेगौड़ा तो काफी पहले ही यह बता चुके हैं कि कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन तार्किक नहीं है। लेकिन मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी जिस तरह कांग्रेसियों से दुखी होकर रो-गा रहे हैं कि उनकी स्थिति क्लर्क की बन कर रह गई है ऐसे में कौन सोच सकता है कि कांग्रेस को सियासी बेड़ा पार करने के लिये जेडीएस अपने कांधे पर सवार होने की इजाजत देगी। उधर ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बीजू जनता दल तो पहले ही अपना सफर अपने दम पर तय करने का इरादा जता चुकी है जबकि छत्तीसगढ़ में भी अजीत जोगी विधानसभा की तरह लोकसभा चुनाव अपने दम पर ही लड़ने का इरादा जाहिर कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इस डर से कांग्रेस को अपना कांधा मुहैया कराने के लिये तैयार नहीं है कि कहीं कल को वामदलों के साथ मिलकर वह उसके लिये खतरे का तूफान ना खड़ा कर दे जबकि केरल में वामदल कतई कांग्रेस को अपने करीब नहीं आने देना चाह रहे हैं। असम में भी स्थानीय दलों के साथ कांग्रेस का समझौता नहीं हो पा रहा है जबकि जम्मू-कश्मीर में एनसी और पीडीपी के बीच फंसी कांग्रेस तय ही नहीं कर पा रही है कि इधर जाए या उधर जाए। यानि समग्रता में देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर तस्वीर ऐसी बन रही है कि लोकसभा के कुल 543 में से 269 सीटों के लिये सांसद चुननेवाले उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, असम, छत्तीसगढ़, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, केरल, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और दिल्ली सरीखे ग्यारह सूबों में यह अभी से तय है कि कांग्रेस को चुनावी वैतरणी पार करने के लिये कोई मजबूत कांधा मयस्सर नहीं हो पाएगा। इन तमाम सूबों में चुनाव त्रिकोणीय होगा जिसमें सबसे बड़ी स्थानीय ताकत का सहयोग कांग्रेस को नहीं मिल पाएगा। दरअसल बीते दिनों हुए चुनाव के नतीजों ने यह उम्मीद प्रबल कर दी है कि इस बार जनमानस का बहुमत भाजपा के खिलाफ जाने वाला है। जबकि कांग्रेस ने बेशक आमने-सामने की लड़ाई में राजस्थान व मध्य प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक में भाजपा को शिकस्त देने में कामयाबी हासिल कर ली हो लेकिन उसकी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विकल्प के तौर पर स्वीकार्यता नहीं होने की बात से भी सभी वाकिफ हैं। हालांकि कांग्रेस को साथ लेकर गैर-भाजपाई गठजोड़ बनाने का लाभ भी सबको दिखाई पड़ रहा है लेकिन इसमें स्थानीय ताकतों को अपना हित सुरक्षित नजर नहीं आ रहा है। आखिर राजनीति है भी असीमित संभावनाओं को संभव कर दिखाने का खेल। उसमें भी माहौल इतना बेहतर है कि भाजपा सिमटती दिख रही है और कांग्रेस की स्वीकार्यता में कोई इजाफा नहीं दिख रहा। ऐसे में अगर तीसरी ताकतें कांग्रेस को ऊंचा उठाने के लिये अपना कांधा लगाने के बजाय अपने ही कद को ऊंचा करने की रणनीति बना रही हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। भले ही बाद में सत्ता के शिखर को छूने के लिये आवश्यक ऊंचाई हासिल कर पाना कांग्रेस के कांधे पर सवार हुए बिना संभव ना हो सके। लेकिन कांग्रेस को किनारे लगाकर त्रिकोणीय व बहुकोणीय टकराव में अपना फायदा देखनेवालों को यह नहीं भूलना चाहिये कि विरोधियों के ऐसे ही बिखराव ने बीते आम चुनाव में महज 32 फीसदी वोट पाने वाली भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल करा दिया था। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर
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मंगलवार, 8 जनवरी 2019
‘सामाजिक समस्याओं पर धार्मिक रंग चढ़ाने की सियासत’
सियासत सिर्फ मौजूदा समस्याओं पर ही नहीं होती बल्कि सियासत के लिये समस्याएं खड़ी भी की जाती हैं और उन पर मनचाहा रंग चढ़ा कर लोगों की भावनाओं को सुलगाया और भड़काया भी जाता है। खास तौर से धर्म, परंपरा व रीति-रिवाजों को सबसे अधिक अहमियत देने वाले भारतीय समाज में अपनी सियासी पकड़ मजबूत करने के लिये किसी भी मसले को जाति व धर्म की भावनाओं के साथ जोड़ने की कोशिशें यूं तो लगातार चलती रहती हैं लेकिन मौसम चुनाव का हो तो सामाजिक मसलों को मजहबी रंग देकर परवान चढ़ाने की होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। इन दिनों ऐसी ही कोशिशें तीन तलाक के मसले पर भी हो रही है, गौ-हत्या के मामले में भी और सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर भी। इन तीनों मामलों में धर्म का पक्ष प्रबल दिखाने की कोशिश हर तरफ से की जा रही है। इसके पीछे रणनीति है कि मामला जब धार्मिक रंग लेगा तभी लोगों की भावनाएं उसके साथ गहराई से जुड़ेंगी और समाज में वैचारिक, सैद्धांतिक व व्यावहारिक स्तर पर ऐसा विभाजन हो पाएगा जिसका पूरा राजनीतिक लाभ लिया जा सके। यही वजह है कि ना तो राजनीति करनेवाले इन मसलों पर धार्मिक रंग चढ़ाने में कोई कसर छोड़ रहे हैं और ना ही राजनीति के कृपा प्रसाद से तृप्त होने की कामना रखनेवाले धर्म के धंधेबाज ही इन मामलों में राजनीतिक दृष्टिकोण को स्थापित करने में अपना सहयोग व समर्थन देने में गुरेज कर रहे हैं। जबकि वास्तव में देखा जाए तो ये तीनों मसले ऐसे हैं जो सीधे तौर पर सामाजिक कुरीतियों से जुड़े हैं। इनका कोई ठोस तार्किक धार्मिक आधार उपलब्ध ही नहीं है। इन्हें आधार मिल रहा है बेसिर-पैर की किंवदंतियों और कपोल-कल्पित कहानियों से जो किसी भी धर्म के स्थापित सिद्धांतों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। अगर तीन तलाक की व्यवस्था का कोई धार्मिक आधार उपलब्ध होता तो दुनिया के दो दर्जन से अधिक इस्लामिक देशों में दशकों पहले इस कुप्रथा पर दंडात्मक प्रतिबंध हर्गिज नहीं लगाया जाता। वास्तव में तीन तलाक का मामला धार्मिक मसला है ही नहीं। यह सामाजिक समस्या है। तभी तो इस कुप्रथा के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ना सिर्फ इस व्यवस्था को महिलाओं के प्रति अन्याय करनेवाली कुरीति का नाम देते हुए इसे असंवैधानिक बताया बल्कि इस पर प्रतिबंध लगाने का उपाय करने के लिये केन्द्र सरकार को निर्देश भी दिया। यानि वास्तव में देखें तो महिला को विवाह व्यवस्था में बराबरी का हक देने के लिये ही तीन तलाक को दंडनीय बनाने के लिये केन्द्र सरकार द्वारा कानून लाने की कोशिश की जा रही है जिसे लोकसभा ने तो पारित कर दिया है लेकिन मामले को धर्म के चश्मे से देखनेवालों ने अपना वोट बैंक दुरूस्त करने के लिये इसे राज्यसभा में अटका-लटका दिया है। इसी प्रकार गौ-हत्या की बात करें तो अगर इस्लाम में यह इतना ही सबाब यानि पुण्य का काम होता तो इस्लामिक संगठनों व जानकारों की काफी बड़ी जमात इसके खिलाफ खड़ी ही नहीं होती और कहीं से भी इसे रोकने का कभी कोई फतवा ही सामने नहीं आता। इस काम को अंजाम देनेवाले बूचड़खानों में हिन्दुओं और मुसलमानों की हिस्सेदारी और भागीदारी को अलग करके नहीं देखा जा सकता। गौ-हत्या करनेवाले को सीधे तौर पर मुसलमानों का प्रतिनिधि मान लेना और इसके लिये पूरी कौम को जिम्मेवार ठहरा देना निहायत ही अनुचित है क्योंकि मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा तबका ना सिर्फ गौ-हत्या व गौ-मांस के सेवन को निहायत ही गलत मानता है बल्कि उनमें से कई ऐसे हैं जो किसी भी हिन्दू से अधिक गौ-भक्त हैं और गौ-सेवा का काम कर रहे हैं। इसी प्रकार अगर सनातन धर्म की किसी भी मान्यता या परंपरा में गर्भधारण करने में सक्षम महिलाओं को अछूत मानने का कोई आधार होता तो इस धर्म के सर्वाेच्च केन्द्र माने जानेवाले ज्योतिर्लिंगों, शक्ति पीठों या चार धामों के गर्भगृह में भी महिलाओं के प्रवेश को लेकर अवश्य ही कोई अलग मान्यता, परंपरा या व्यवस्था होती। लेकिन सनातन धर्म के इन सर्वोच्च व सर्वमान्य केन्द्रों में महिलाओं को हर तरह से पुरूषों के बराबर ही दर्शन व पूजन का अधिकार हासिल है। ऐसी सूरत में यह समझ से परे है कि गर्भधारण करने में सक्षम आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर से दूर रखने के पीछे आखिर क्या धार्मिक, वैदिक अथवा तार्किक-प्रामाणिक आधार हो सकता है? कहने का तात्पर्य यह है कि मामला चाहे तीन तलाक का हो, गौ-हत्या का अथवा सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का। ये सभी समस्याएं वास्तव में सामाजिक हैं जिसमें गैरबराबरी, खुराफाती और बदमाशी से भरी हुई सोच छिपी हुई है जिसका प्रतिकार अवश्य किया जाना चाहिये। लेकिन मसला है कि आम लोगों की भावना से जुड़े इन मसलों का राजनीतिक लाभ तब तक नहीं मिल सकता जब तक इस पर धर्म का पक्का मुलम्मा ना चढ़ाया जाए और इन समस्याओं को धर्म विशेष के साथ मजबूती से जोड़ा ना जाए। यही वजह है कि धर्म के ठेकेदारों व धंधेबाजों ने राजनीतिक दलों की इस छुपी हुई मंशा को पूरा करने में अपना सहयोग देते हुए समाज को धार्मिक आधार पर विभाजित करने और इन मसलों को धार्मिक रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लिहाजा आवश्यक है कि लोग जागरूक हों और सही-गलत का फर्क समझें वर्ना अंधविश्वास और मासूमियत के दोहन का सिलसिला बदस्तूर चलता ही रहेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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