‘अनाड़ी का खेलना खेल का सत्यानाश’
नवकांत ठाकुर
‘अनाड़ी का खेलना खेल का सत्यानाश, पटरी हो खराब तो रेल का सत्यानाश, रहे अंधेरा रात भर तेल का सत्यानाश।’ यूं तो आनंद बख्शी साहब ने ये पंक्तियां वर्ष 1983 में आयी फिल्म ‘वो सात दिन’ के लिये लिखी थी लेकिन सियासी नजरिये से देखा जाये तो यह भाजपा के उन नेताओं की करतूतों का संभावित अंजाम बयान करती हुई नजर आती हैं जिनके अनाड़ीपन ने पार्टी के लिये भारी सिरदर्दी का सामान जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वाकई पार्टी का शीर्ष संचालक खेमा इन दिनों भारी परेशानी से गुजर रहा है। उसकी समझ में ही नहीं आ रहा है कि अपने उन बयान बहादुर नेताओं की नादानियों से कैसे निपटा जाये जिनकी बेसिर पैर की बातें लगातार मीडिया की सुर्खियां जुटा रही हैं। इन नेताओं की नादानियों से निपट पाने में नाकामी का ही नतीजा है कि पार्टी के चाणक्य कहे जानेवाले अरूण जेटली भी यह स्वीकार करने से गुरेज नहीं करते हैं कि भाजपा ही शायद इकलौती ऐसी पार्टी है जो हर रोज एक नया बेवकूफ पैदा करने की क्षमता रखती है। हालांकि यह शेर सर्वविदित है कि ‘बेवकूफों की कमी नहीं जमाने में, एक ढृूंढो हजार मिलते हैं।’ लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि अपने बेवकूफों के कारण जितनी सिरदर्दी भाजपा को झेलनी पड़ती है उतनी शायद ही किसी अन्य पार्टी को झेलनी पड़ती हो। खुद को सबसे अधिक अनुुशासित पार्टी बतानेवालनी भाजपा की अंदरूनी हकीकत यही है कि सांगठनिक अनुशासन की जितनी धज्जियां यहां उड़ाई जाती हैं उसकी मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले। मसलन बिहार विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर किसी भी दल के सांसद ने अपने शीर्ष नेतृत्व पर यह इल्जाम लगाने की जुर्रत नहीं की है कि उसने पैसे लेकर ऐसे लोगों को टिकट बेच दिया है जिनके लिये वोट मांगना भी बेशर्मी की इंतहा ही होगी। जाहिर तौर पर यह सीधे-सीधे अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा ही है क्योंकि भाजपा में टिकट वितरण का काम कोई एक व्यक्ति नहीं करता बल्कि इसके लिये संगठन के तमाम शीर्ष संचालकों की एक चुनाव समिति बनी हुई है जिसमें सर्वसम्मति बनने के बाद ही किसी को भी पार्टी का टिकट दिये जाने का फैसला होता है। ऐसे में भाजपा द्वारा पैसे लेकर समाज विरोधी तत्वों, बाहुबलियों व अपराधियों को टिकट दिये जाने का जो खुल्लम खुल्ला इल्जाम पार्टी के सांसद आरके सिंह ने लगाया है वह सीधे तौर पर पार्टी तमाम शीर्ष संचालकों की सैद्धांतिक नैतिकता व वैचारिक शुचिता को ही कठघरे में खड़ा करता हुआ दिखाई देता है। जाहिर तौर पर किसी अन्य दल में किसी ने ऐसा करने की जुर्रत की होती तो उसका अंजाम क्या होता इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन भाजपा में ऐसा करनेवाले को भी इतनी इज्जत बख्शी जा रही है कि उसे मनाने, समझाने व चुप करने के लिये पार्टी अध्यक्ष को खुद ही दंडवत होना पड़ रहा है। खैर, पार्टी के लिये सिरदर्दी बढ़ाने का काम करनेवाले आरके अकेले नेता नहीं हैं। ऐसा करनेवालों की तो पूरी जमात दिखाई पड़ रही है। एक ओर पार्टी के ही नेतृत्व में चल रही महाराष्ट्र की सरकार ने गैरमराठी भाषियों को आॅटो-टैक्सी चलाने के काम से वंचित करने की मुनादी पिटवा दी है तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश से आवाज आयी है कि मुसलमानों को बकरीद में अपने संतानों की कुर्बानी देनी चाहिये। कोई नवरात्र में मांस की बिक्री को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहा है तो किसी को पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की नीतियां नहीं भा रही हैं। किसी की नजर में शिक्षा व नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था खटक रही है तो कोई संस्कृति की दुहाई देकर अल्पसंख्यकों की आजादी पर अंकुश लगाने की बात कर रहा है। किसी की परेशानी टिकट वितरण को लेकर है तो कोई बिहार में मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किये जाने को लेकर बेचैन है। यहां तक कि नीतिगत व सैद्धांतिक मामलों में पार्टी की शीर्ष त्रिमूर्ति की मनमानी से संगठन का काफी बड़ा तबका बेहद नाराज दिखाई दे रहा है। टिकट वितरण में बाहरियों को तरजीह दिये जाने और लगभग 22 फीसदी निवर्तमान विधायकों को टिकट से वंचित कर दिये जाने के कारण संगठन में पनपे असंतोष ने भी शीर्ष नेतृत्व की सिरदर्दी में खासा इजाफा कर दिया है। उस पर तुर्रा यह कि पार्टी प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन भी यह संकेत देने से नहीं हिचक रहे हैं कि पार्टी में कुछ गड़बडि़यां तो हो ही रही हैं। इन तमाम मसलों को समग्रता में देखते हुए बिहार चुनाव पर पड़नेवाले इसके असल की कल्पना की जाये तो निश्चित तौर पर पार्टी के शीर्ष संचालकों की नींद हराम होना स्वाभाविक ही है। लेकिन मसला यह है कि संगठन के भीतर से उठनेवाली ऐसी बातों की गूंज को रोकना भी आवश्यक ही है कि जिसके कारण पार्टी मर्यादा, शुचिता व इमानदारी पर संदेह का वातावरण बन रहा हो। सवाल यह नहीं है कि किसी को व्यक्तिगत विचारों का इजहार करने से रोकना कहां तक उचित है बल्कि जरूरत इस बात की है कि नादानी व बेवकूफी की बातें करके मीडिया की सुर्खियां बटोरनेवाले छपास रोग से ग्रस्त नेताओं को सांगठनिक अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाये। अन्यथा एक ही मसले पर अलग-अलग सुर सुनाई पड़ने के नतीजे में जमीनी स्तर पर पार्टी की विश्वसनीयता खतरे में पड़ सकती है जिसका नुकसान अंततोगत्वा संगठन की स्वीकार्यता पर पड़ना तय ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’